पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२१३

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। -- (१२०) मृरसागर। रोटी बहुत प्रियो। जो प्रभु शिव सनकादिक दुर्लभ सुतहित वशकार नंदत्रियोयह मुख निरखन मूरज प्रभुको धन्य धन्य फल सुफल जियो।शवाय बालंय वर्णन बरनों वालभेप मुगार यकिन जित कित अमर मुनिगण नंदलाल निहारिकेश शिरविन पवनके चहुँ दिशाछिटके झारिराशीश पर धरे जटा मानो रूप कियो त्रिपुरारि । तिलक ललित ललाट केसर विंदु सोभा कारि ।। रेखा अरुन ज्योतिं तिय लोचन रहयों जनु रिपु जारि । कंठ कठुला नीलमणि अंभोजमाल सँवारि । गरल गिरि वकपाल उर अहि भाय भए मदनारि।कुटिल हरिनख हिये हरिके हरप निरखति नारि। ईश जनु रजनीशराख्यो भालहूते उतारि ॥ सदन रज तन श्याम सोभित सुभग इहि अनुहार। मनडे अंग विभूति राजत शंभुसो मधुहारि ॥ त्रिदशपतिं पति असनको अति जननिसों कर आणि सूरदास विरंचि जाको जपत निज मुखचारि॥४७सखीरी नंदनंदन देख्नु ।। धृरि धूसरि जटा जुटली । हरि किए हरभेषुानीलपाट परोइ मणिगण फणिग धोखे जाइ । सुनखुना करि हँसत मोहन नचन डोरु बजाइ । जलजमाल गोपाल पहिरे कहाँ कहां बनाइामुंडमाला मनोहर गर ऐसी सोभा पाइ । स्वातिसुत मालाविराजत झ्यामतन यो भाइ । मनौगंगा गोरि डरहरि लिए कंठ लगाइ ॥ केहरीके नखहि निरखत रही नारि विचारिबालशशि मनी भाल तेले उरथरयो त्रिपुरारि। देखि अंग अनंग डरप्यो नंदसुतको जान ।। मूरदासके हृदयवसिरहयो श्याम शिवको व्यान॥४८॥ राग नटनारायना विहरत विविध वालक संगाडगर डगडोलत मगनि मग धरि धूसरअंगाललित गति पग परत जनि । परस्पर किलकानिामानहु मधुर मराल सावक सुभग वनविहानिलिलिन श्रीगोपाल लोचन श्याम सोभा दूनामनो मयंकहिअंक दीन्ही सिंहकाके मुनादूर दमकत श्रवन सोभा जलयुग उहहहत । मनहुं वासव वलि पठाए जीव कवि कछु कहत॥ कबहुँद्वारे दौरि आवत कबहुँ नंदनिकेत । मुरम सुको गहत ग्वालिनि चारु चुंबन देता॥४९॥विनावर ।। देखों में दधिसुतमें दधि जात । एक अचंभो देखि सखीरी रिपुमें रिपु जुसमातादधिपर कीर कीरपर पंकज पंकनके द्वपातायह सोभा देखत पशु पालक फूले अंग नसमाता। सुंदरवन विलोकि श्यामको नंद निरखि मुसकाताऐसो ध्यानघरे जो : । हरिको सुरदास बलिजाता॥५०॥ धनाश्री ॥ दधिसुत जासे नंदुवार । निरखिनन अरुझ्यो मनमोहन । रटत देख कर वारंवार ।। दीरव मोल कह्यो व्यापारी रहे ठगेसे कौतुकहार । करऊपरले राखिरहे हरि देत न मुक्ता परमसुढार ॥ गोकुलनाथ वएयशुमतिके आंगन भीतर भवन मँझार । शाखापत्र : भए जलमेलत फूलत फरत न लागीवार ।। जानत नहीं ममं सुर नर मुनि ब्रह्मादिक नहि परत विचार । सूरदास प्रभुकी यह लीला ब्रजवनिता गुहि पहिरेहार ॥६॥ कजरीको पय पिाहु लाल तेरी चोटीवाढे। सब लरिकनमें सुन सुंदर सुत तो श्री अधिकचढे । जैसे देखि और ब्रजवालक त्यों वलवैस बढे । कंस केसि वक वैरिनके उर अनुदिन अनल उठे। यह मुनिक हरि पीवन लागे ; त्योंत्यों लियो लटै । अचवन पे तातो जब लाग्यो रोवत्त जीभ उठे। पुनि पीवतही कच टकटोवे ।। झूठे जननि रहे। सुर निरखि मुंख हँसत यशोदा सो सुख उर न कढे ॥५२॥ रामकली ॥ यशोदा ! कवहिं बढ़ेगी चोटी । कितीवार मोहि दूध पिवत भई यह अजहूँ, छोटी ॥ तूज्ञो कहति बलकी वेनीज्यों है लाँची मोटी { काढत गुहत न्हवायत्त ओत नागिनि सी व लोटी ॥ काचोदूधपि । वावत पचिपचि देत नमाखन रोटी । मुरझ्याम चिरजीवो दोउ भैया हरि हलधरकी जोदी ।।१३।। देवगंधार ॥ कहन लगे मोहन मैया मया। पितानंदसों बाया बाया अरु हलधरसों भेया॥ ॐ चड़ि चटि कहत यशोदा लेल नाम कन्हैया ! दूरि कहूं जिनजाडु ललारे मारेंगी काही गैया ॥ aamandametes-