पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२१६

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दशमस्कन्ध-१० - - (१२३). अति रिसमें तनु छीने ॥ आन वतावत आन दिखावत बालक तौ न पतीजै। खिझ खिझ कान्ह खसत कनियांते सुसुकि सुसुकि मन सीजै ॥ जलपुट आनि धरयो आँगनमें मोहननेक तो लीजे सूरश्याम हठि चंदाह मांग चंद कहांते दीने ॥ ६४ ॥ कान्हरो ॥ वार वार यशुमति सुत वोधति आउ चंदु तोहि लाल बुलावै । मधु मेवा पकवान मिठाई आपुन खेर तोहि खवावै ।। हाथीह पर तोहि लीने खेल नहिं धरणी वैठावै । जलभाजन करले जु उठावति याहीमें तू तनुधरि आवै ।। जलपुट आनि धरण पर राख्यो गहि आन्यो वह चन्द्र दिखावे ।। सूरदास प्रभु हाँस मुसु. काने वार वार दोऊ करनावै ॥६५॥ रामकली ॥ मेरो माई ऐसोहठी वालगोविन्दा|अपने करगहि गगन वतावत खेलनको मांगै चंदा॥वासनकै जलधरयो यशोदा हरिको आनि दिखावारुदन करत ढूँढ़े नहिं पावत धरणि चन्द कैसे आवै। दूध दही पकवान मिठाई जु कछ मांगु मेरे छौना।भौंरा चकई लाल पाटको लेंडुवा मांगु खिलौना ॥ दैत्यदलन गजदंत उपारन कंसकेश धरि फंदा । सूरदास वलिजाइ यशोमति सुखके सागर दुखके खंदा ॥६६॥ लेहोरी मा चंदा चहोंगो ।। कहा करौं जलपुट भीतरको बाहर ओकि गौंगो ॥ इहतौ झलमलात झकझोरत कैसेकै जु लहौंगो ॥ वहतो निपट निकटही देखत वरज्योहों नरहौंगौ ॥ तुमरो प्रेम प्रगट मैं जान्यो वौराए न वहोंगी। सूरश्याम कहै करगहि ल्याऊं शशि तनु दाप दहौंगो । ६७॥ धनाश्री ॥ लाल यह चंदा लेलौहो । कमलनयन वलिजाइ यशोदा नीचे नैक चितैहो ॥ जाकारण सुन सुत सुंदर वर कीन्हो इतीअनहो सोई सुधाकर देखि दमोदर या भाजन मेहेहो ॥ नभते निकट आनि राख्योहै जलपुट जतननजो गैहो ॥ ले अपने कर काढ़ि दमोदर जो भावै सो कैहो ॥ गगनमंडलतेगहि आन्यो है पंछी एक पठै हो। सूरदास प्रभु इतीवातको कत मेरो लाल हठेहो ॥६०॥ विहागरो ॥तुम मुखदेखि डरतु शशि भारी|कर करिके हरि हेरयो चाहत भानिपताल गयो अपहारी।।वह शशितो कैसेहु नहिं आवत यह ऐसी कछु चुद्धिविचारी । वदन देखि विधु विधिसकात मन नैन कंज कुंडल उजियारी । सुनहु श्याम तुमको शशि डरपत है कहत ए शरन तुम्हारी । सूरश्याम विरुझाने सोए लिए लगाइ छतियाँ महतारी।।६९॥केदारोगायशुमति लै पलिका पौढावति।मेरो आजु अतिही विरुझानो यह कहि कहि मधुरे सुर गावति।पौढिगई पुनि हरुये करिक अंगमोरि तय हरि जमुहानोकरसों ठोंकि सुतहि दुलरा- वति चटपटाइ वैठे अतुरान।।पौठो लाल कथा एक कहिहौं अतिमीठी श्रवणनको प्यारी। यह मुनि सूरझ्याम मनहरपे पौदिगए हँसि देत हुँकारी ॥ ७० ॥ सुन सुत एक कथा कहौं प्यारी। कमलन यन मनआनद उपज्यो चतुर शिरोमणि देत हुँकारी ॥ नगर एक रमणीक अयोध्या वडे महलजहँ अगम अटारी।बहुत गली पुरवीच विराजत भांति भांति सब हाट वजारी।तहां नृपति दशरथरघुवंशी जाके नारि तीन सुखकारी। कौशल्या कैकयी सुमित्रा तिनके जन्म भए सुतचारी।चारिपुत्र राजाके प्रगटे तिनमें एक राम व्रतधारी। जनक धनुप व्रत देखि जानकी त्रिभुवनके सब नृपति हँकारी ॥ राजपुत्र दोउ ऋपि ले आए सुनि जनक व्रत तहाँ पगधारी । धनुपतोरि मुखमोरि नृपनको जनक सुता तिनकी वरनारी ॥ पग अंगुठा जव पीर नृपतिके तव कैकयी मुखमेलि निवारी । वचन माँ- गि नृपसोतव लीनो रघुपतिके अभिपेक सँवारी ।। तात वचन सुनि तज्यो राज्यतिन भ्राता सहित घरनि वनचारी। उनके जात पिता तनुत्याग्यो अतिव्याकुल करि जीव विसारी ॥ चित्रकूट गए भरत मिलन जव पगपाँवरी देकरी कृपारी। युवती हेतु कनकमृग मारी राजिवलोचन गर्वप्रहारी।। | रावणहरणकरचो सीताको सुनि करुणामय नींदविसारी । सूरझ्याम कर उठे चापको लछिमन देहु । ।