पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२३६

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देशमस्कन्ध-१० (१४३) सोरठ ॥ काहेको हरिइतनौ धास्यो।सुनुरी मैया मेरो भैया कितनो गोरस नाश्यो । जब रजुसों कर गाढो बांधे छर छर मारी साटी ।। सूने घर वाया नँदनाही ऐसो कीर हरि डाटी ॥ और न कछु देखें तन श्यामहि ताको करों निपातु । तूजो करै वात सोइ सांची कहा करों तोहि मातु॥ गाढ़े वदत पात सब हलधर माखन प्यारो तोही । ब्रजप्यारो जाको मोहिं गारो छोरति काहे न ओही ॥काको व्रज माखन दधि केहिको बांधे जकरि कन्हाई । सुनत सूर हलधरकी बातें जननी सैन वताई ॥ ३१ ॥ राग सारंग ।। सुनहु पात मेरी बलराम । करन देहु इनकी मोहिं सेवा चोरी. प्रग टत नाम ॥ तुमहीं कही कमी काहेकी नव निधि मेरे धाम । मैं वरजति सुत जाहु कहूं जनि कहि हारी निशि याम ॥ तुमहुँ मोहिं अपराध लगायो माखन प्यारो श्याम ॥ सुनु मैया तुहि छाडि कहौं किहि को राखै मेरो ताम । तेरीसों उरहनो लै आवति झूठहि व्रजकी वाम । सूरश्याम अतिही अकुलाने कपके वांधे दाम ॥ ३२॥ कहाकरौं हरि बहुत खिझाई । सहि न सकी रिसही रिस भरि गई बहुतै ढीठ कन्हाई । मेरो कह्यो नेकु नहिं मानत करत आपनी टेक । भोर होत उरहन लैआ- वत ब्रजकी वधू अनेक ॥ फिरत जहां तहँ द्वंद्व मचावत घर न रहत क्षणएक । सूरश्याम त्रिभुवन को करता यशुमति कहति जनेक ॥३३॥ राग गौरी ॥ निरखि श्याम हलधर मुसुकाने । को वांधे को छोरै इनको यह महिमा येईपै जाने। उत्पति प्रलय करत, येई शेप सहस मुख सुयशवखाने । यमलार्जुन तोरि उधारन कारन करन करत मन मान। असुर सँहारन भक्तहि तारन पावन पतित कहावत पाने । सूरदास प्रभु भावभक्तके अति हित यशुमति हाथ विकाने ॥ ३४॥ हरि चितये यमलार्जुन तन। अवहीं आज इन्हें उद्धारों येहैं मेरेई जन ।। इनके हेतु भुजन बँधवाई अब विलंब नहिं लाऊं। परशकरौं तनु तरुहि गिराऊ मुनिवर शाप मिटाऊ। येसुकुमार बहुत दुख पायो सुत कुवेरके तारों । सूरदास प्रभु कहत मनहि मन करवंधन निरवारों ॥ ३५ ॥ रामकली ॥ यशोदा ऊखल बांध श्याम । मनमोहन वाहिरही छोड़े आपुगई गृह काम ॥ दह्यो मथति मुखते कछुवकरति गारी दैदै | नाम । घर घर डोलत माखन चोरत पटरस मेरे धाम ॥ ब्रजके लरिकन्ह मारि भजतुहै जाहु तुमहु बलराम । सूरश्याम उखलसों वांधे निरखति ब्रजकी वाम ॥ ३६॥ गूनरी ॥ यशोदा कान्हरते दधि प्यारो । डारिदेहु कर मथत मथानी तरसत नंददुलारो ॥ दूध दही माखन वारौं सव जाहि करति तू गारो । कुंभिलाने मुख चंद देखि छवि काहे न नैन निहारो ॥ ब्रह्म सनक शिव ध्यान न पावत सो बज गैयन चारो । सूरश्याम पर वलि वलि जैये जीवन प्राण हमारो ॥ ३७ ॥ राग धनाश्री ।। यशुमति केहि यह सीखदई । सुतहि वांधि तू मथत मथानी ऐसी निठुर भई ॥ हरै बोल युवतिनिको लीनो सुन सब तरुणी नई । लरिकहि त्रास दिखावत रहिये कत मुरझाय गई । मेरे प्राण जीवनधन माधव वांधे घेर भई । सूरश्याम कहुँ त्रास दिखावत तुम कहा कहत दई ॥३८॥ धनाश्री ।। तबहिं श्याम इक बुद्धि उपाई। युवती गई परनि सब अपने गृह कारज जननी अटकाई । आपु गये यमलार्जुन तरु परशत पात उठे झहराई । दिये गिराय धरणि दोऊ तरु तव द्वै कुवेर सुत प्रगटे आई। दोउ करजोरि करत दोउ स्तुति चारि भुजा ति, प्रगट देखाई॥ सूर धन्य व्रजजन्म लियो हरि धरणीकी आपदा नशाई॥ ३९ ॥ बिलावल ॥ धनि गोविंद धनि गोकुल आयोधनि धनि नंद धन्य निशि वासरधनि यशुमति जिन श्रीधर जाय। धनि धनि वाल केलि यमुना पनि धनि वन सुरभी वृंद चराये। धनि यह समौ धन्य ब्रजवासी धनि धनि वेणु मधुर | ध्वनि गाए । धनि धनि अनख उरहनो धनि धनि धनि माखन धनि मोहन खाए।। धन्य सर ऊखल