पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२८९

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(१९६) . . 'सूरसागर। प्रभु जलही भीतर देखि सवनको प्रेम । मोडत पीठि सवनिकी पाछे पूरण कीन्हे नेम ॥ फिरि । देखें तो कुँवर कन्हाई रुचिसों मीजत पीठि। सूर निरखि सकुची बन युवती परीश्याम तनुडीठि ॥३४॥ देवगंधार ॥ अति तप देखि कृपा हरि कीन्हों । तनुकी जरानि दूरिभई. सबकी मिलि तरुणिन सुखदीन्हों। नवलकिसोर ध्यान युवती मन ऊहै प्रगट दिखायो । सकुचि गई अंग बसन समारति भयो सवनि मनभायोः॥ मन मन कहति भयो तप पूरण आनंद उर नसमाई। सूरदास प्रभु लाज नआवति युवतिन माझ कन्हाई ॥३५॥ सारंग ॥ हँसत श्याम ब्रजघरको भागे । लोग नको यह कहति सुनावति मोहन करन लैंगरई लागे॥ हम स्नान करत जलभीतर आपुन मीजत पीठि कन्हाई । कहाभयो जो नंदमहरसुत हमसों करत अधिक ढीठाई । लरिकाई तबहीलों नीकी चारि वरष की पांच । सूरजाइ कहिहैं यशुमति सो श्याम करत एनाच ॥३६॥ प्रेम विवस सब ग्वालि भई । उरहन दैन चली यशुमतिको मनमोहनके रूपरई । पुलकि अंग अंगिया उर दरकी हार. तोरि कर आपु लई । अंचलचीर पातनख उरकरि यहिमिस करि नंदसदन गई। यशोमति माई कहा सुत सिखयो हमको जैसे हालंकियो। चोली फारि हार गहि तोरयो देखो उर नखपात दियो ॥ आंचरचीर अभूषण. तोरे घेरि धरत उठि भागि गयो। सूर महरि मन कहति श्याम धौं ऐसे.लायक कहि भयो॥३७॥ रागगौरी ॥ महरिश्यामको वरजति काहिन । ऐसे हाल किये हरिहमको भई कहूं जगआहिन ॥ और बात एक सुनहु श्यामकी अतिहि भएहैं ढीठ । वसन विना स्नान करति हम आपुन. मीजत पीठ. ॥ आप कहति मेरो सुत वारो हियो उघारि दिखायो । सुनतहु लाजकहतहुन.आवै तुमको कहा लज़ायो.। यह वाणी युवतिन मुख सुनिकै हँसी .बोली | नंदरानी । सुरश्याम तुम लायक नाहीं बात तुम्हारी जानी ॥ ३८ ॥ गौरी ।। बात कही सो लहै बहरी। बिना भीति तुम चित्र लिखतिहौ सो कैसे निवहैरी ॥ तुम चाहतहो गगन तुरैया मांगे कैसे : पावहु । आवतही मैं तुम लखि लीन्ही कहि मोहिं कहा सुनावहु ॥ चोरीरही छिनारो अब भई जान्यो । ज्ञान तुम्हारो। और गोपसुतन नहिं देखौ सूरझ्याम है वारो॥३९॥ मलार ग्वालिनि घरहीकी वाढी। निशि दिन देखत अपनही आंगन ठाढी ॥ कवहिं गुपाल कंचुकी फारी कब मैं ऐसे योग ।। अवहीं संग खेलन सीखे यह जानत सब लोग ॥ नितही झगरतहैं मनमोहन मूरति देखि प्रेमरस- चाखी । सूरदास प्रभु अटक नमानत ग्वाल सबैहैं साखी ॥ ४० ॥ गौरी ॥ यहि अंतर हरि आइ गए। मोर मुकुट पीतांवर काछे अतिकोमल छवि अंग भए । जननि बुलाइ वाह गहि लीन्हो. देखहरी मदमाती । इनहीको अपराध लगावति कहा फिरत इतराती ॥ मुनिहैं लोग मष्ट अबहूं। करि तुमहि.कहां की लाज.। सूरश्याम मेरो माखन भोगी तुम आवति बेकाज॥४१॥ केदागावहीः । देखे नवल किसोर । घर आवतहीतनकभये हैं.ऐसे तनके चोर, कछु.दिन करि दधि माखन चोरी अब चोरत मनमोर। विवस भई तनु सुधि नसंभारति कहत बात भई मोर ॥. यह वाणी कहतही. लजानी समुझिभई जिय ओर । सूरश्याम मुख निरखि चली घर आनँद लोचन लोर ॥ ४२ ॥ नटनारायण ॥ ब्रज घर गई गोपकुमार। नेकहूं कहुँ मन नलागत कामधाम विसारि ॥ मात पितकाः डरन.मानत सुनत नाहिन गारि। हठकरति विरुझाति.तब जिय जननि जानत वारि॥प्रातही गठ चली सब मिलि. यमुनातट सुकुमारि । सूरप्रभुब्रत देखि इनको नाहन परत सँभारि ॥ ४३ ॥ गौरी ॥ यमुनातट देखे नँदनंदन । मोर मुकुट मकराकृत कुंडल पीतवसन मनुचंदन ॥ लोचन तृप्तः | भए दरशनते उरकी तपति बुझानी । प्रेममगन तब भई सुंदरी-उर गद गद मुखवानी । कमल ।