पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२९२

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दुशमस्कन्ध १० (१९९) सूरश्याम पति तुमते पायो यह कहि घरहि बहोरि ॥६३ ।। अथ वस्त्रहरनलीला दूसरी ॥ राग मूही ॥ | नंदनंदन वर गिरि वर धारी । देखत रीझी घोपकुमारी।मोर मुकुट पीतांवर काछे । आवत देखे | गाइन पाछे । कोटि इंदुछवि वदन विराजै । निरखि अंग प्रांत मन्मथ लाजै ॥ रवि शत छवि कुंडल नहि तूलै । दशन दमक युति दामिनि भूलै ॥ नैन कमल मृगसावक मोहै । शुकनासा पटतरको कोहै । अधर विंब फल पटतर नाही । विद्रुम अरु बंधूपलजाही॥ देखत गीझ रही ब्रजनारी । देह गेहकी सुरति विसारी ॥ यह मनमें अनुमान कियो तव । जप तप संयम नेम करौं अव ।। बारवार सविताहि मनावति । नँदनंदन पति देहु सुनावति । नेम धर्म तप साधन कीजै । शिवसों मांगि कृष्णपति दीजै । वरप दिवसको नेम लियो सव । रुद्राहि सेवहु मन वच क्रम अब.॥ दृढविश्वास व्रतहिको कीन्हों। गौरीपति पूजन मन दीन्हों ॥ पटदश सहस जुरी सुकुमारी । व्रतसाधत नीके तनुगारी ॥ प्रात उठे यमुनाजल खोरे । शीत उष्ण कहुँ अंग नमोरे.॥ पतिके हेत नेम तप साधैं । शंकरसों यह कहिअवराधै।कमलपत्रमातूल चढाोनयन मूदि यह ध्यान लगा३ । हमको पति दीजै गिरिधारी । बडे देव तुमही त्रिपुरारी ॥ और कळू नहि तुमसों मांगो। कृष्णहेतु यह कहिं पालागों । ऐसेहि करत बहुत दिनवीते । प्रभु अंतर्यामी मनचीते ॥ एकदिवस आपुन आए तहां । नवतरुनी स्नान करत जहां ॥ वसनधरे जलतीर उतारी। आपुन जल पैठौं सुकुमारी॥ कृष्णहेतु स्नान करें जहां । सबके पाछे आपुनहैं तहां। मीजत पीठि प्रेम अतिवाढ़ी। चकृत भई युवती सब गढी॥ देखे नँदनंदन गिरिधारी । व्रतफल प्रगट भये वनवारी सकुचि अंग जलपैठि लुकावें । बार बार हरि अंकम लावें ॥ लाज नहीं आवतिहै तुमको । देखत बसन विना सब हमको | हँसत चले तव नंदकुमार।लोगन सुनवति करत पुकार ॥ हार चीर लै चले पराई । हांकदियो कहि नंददोहाई ॥ डारिवसन भूपन तव भागे।श्याम करन अब ढीगे लागे। भाजे कहां चलोगे मोहन । पाछे आइ गई तुव गोहन ॥ तनुकी सुधि संभार कछुनाही । वसन अभूपन पहिरत जाहीं ॥ चीरफटे कंचुकिं वंदछूटे । लेत न वनत हार टूटे ॥ प्रेम सहित मुख खीझत जाहीं। झूठहि बार बार पछिताहीं । गई सबै तिय नंद महरघर । यशुमति पास गई सब दरदर ॥देखहु महरि श्यामके एगुन । जैसे हाल करे सबके उन ॥ चोली चीर हार देखरायो। आपुन भागि इनहिको आयो ॥ यमुनातट कोउ जान नपावै । संग सखा. लिये पाछे धाव तुम सुतको वरजहु नंदरानी । गिरिधर करत नहीं भलीवानी ॥ लाज लगति एक बात सुनावति अंचल छोरि हियो दिखरावति ॥ यह देखत हँसि उठी यशोदा । कछु रािस कछु मनमें कार मोदा ।। आइगए तेहि समय कन्हाई । वांहगही.लै तुरत देखाई ॥ तनक तनक कर तनक अंगुरिया। तुम योवन भार नवल बहुरिया ॥ जाहु घरहि तुमको मैं चीन्ही । तुम्हरी जाति जाति मैं लीन्हीं। तुम चाहति सो ह्यां नापही। और वहुत ब्रजभीतर लैहौ।वारवार कहि कहा सुनावति। इनवातन कछु जान नआवति ॥ देखहरी एभाव कन्हाई । कहांगई तपकी तरुनाई ।। महरि तुमहि कछु दोपन नाही । हमको देखि देखि मुसुकाही ॥ इनके गुण कैसे कोउ जानै । औरै करत और धरि ठान।।देन उरहनो तुमको आई। नीकी पहिरायनि हम पाई । चली सबै युवती घर घरको । मनमें ध्यान करतिहैं हरिको ॥ वरप दिवस तप पूरण कीन्हें। नंद सुवनको तन मन दीन्हें प्रातहोत यमुनाफिर आईप्रथम रहे चढि कदम कन्हाई ॥तीरआइ युवती भई ठगढी। उर अंतर हरिसों रति वाढीकह्यो चलो यमुनाजल खोरे अंगन आभूपण सवछ ।चोली छोर हार उतारें । करसों सिथिल |