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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२९२

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दुशमस्कन्ध १०


सूरश्याम पति तुमते पायो यह कहि घरहि बहोरि॥६३॥ अथ वस्त्रहरनलीला दूसरी॥ राग मूही ॥ नँदनंदन वर गिरि वर धारी। देखत रीझी घोषकुमारी॥ मोर मुकुट पीतांवर काछे। आवत देखे गाइन पाछे॥ कोटि इंदुछवि वदन विराजै। निरखि अंग प्रांत मन्मथ लाजै॥ रवि शत छवि कुंडल नहि तूलै। दशन दमक युति दामिनि भूलै॥ नैन कमल मृगसावक मोहै। शुकनासा पटतरको कोहै। अधर बिंब फल पटतर नाही। विद्रुम अरु बंधूपलजाही॥ देखत गीझ रही ब्रजनारी। देह गेहकी सुरति विसारी॥ यह मनमें अनुमान कियो तब। जप तप संयम नेम करौं अब॥ बारबार सविताहि मनावति। नँदनंदन पति देहु सुनावति। नेम धर्म तप साधन कीजै। शिवसों मांगि कृष्णपति दीजै। वरप दिवसको नेम लियो सब। रुद्राहि सेवहु मन वच क्रम अब॥ दृढविश्वास व्रतहिको कीन्हों। गौरीपति पूजन मन दीन्हों॥ षटदश सहस जुरी सुकुमारी। व्रतसाधत नीके तनुगारी॥ प्रात उठे यमुनाजल खोरे। शीत उष्ण कहुँ अंग नमोरे॥ पतिके हेत नेम तप साधैं। शंकरसों यह कहिअवराधैं॥ कमलपत्रमातूल चढावैं नयन मूंदि यह ध्यान लगावैं। हमको पति दीजै गिरिधांरी। बडे देव तुमहौ त्रिपुरारी॥ और कछू नहि तुमसों मांगो। कृष्णहेतु यह कहिं पालागों। ऐसेहि करत बहुत दिनवीते। प्रभु अंतर्यामी मनचीते॥ एकदिवस आपुन आए तहां। नवतरुनी स्नान करत जहां॥ बसनधरे जलतीर उतारी। आपुन जल पैठीं सुकुमारी॥ कृष्णहेतु स्नान करैं जहां। सबके पाछे आपुनहैं तहां। मीजत पीठि प्रेम अतिवाढ़ी। चकृत भई युवती सब गढी॥ देखे नँदनंदन गिरिधारी। व्रतफल प्रगट भये वनवारी॥ सकुचि अंग जलपैठि लुकावें। बार बार हरि अंकम लावें॥ लाज नहीं आवतिहै तुमको। देखत बसन बिना सब हमको॥ हँसत चले तब नंदकुमार। लोगन सुनवति करत पुकार॥ हार चीर लै चले पराई। हांकदियो कहि नंददोहाई॥ डारिवसन भूषन तव भागे।श्याम करन अब ढीठो लागे॥ भाजे कहां चलौगे मोहन। पाछे आइ गई तुव गोहन॥ तनुकी सुधि संभार कछुनाहीं। वसन अभूषन पहिरत जाहीं॥ चीरफटे कंचुकिं वंदछूटे। लेत न वनत हार टूटे॥ प्रेम सहित मुख खीझत जाहीं। झूठहि बार बार पछिताहीं। गई सबै तिय नंद महरघर। यशुमति पास गई सब दरदर॥ देखहु महरि श्यामके एगुन। जैसे हाल करे सबके उन॥ चोली चीर हार देखरायो। आपुन भागि इनहिको आयो॥ यमुनातट कोउ जान नपावै। संग सखा लिये पाछे धावै तुम सुतको वरजहु नंदरानी। गिरिधर करत नहीं भलीवानी॥ लाज लगति एक बात सुनावति अंचल छोरि हियो दिखरावति॥ यह देखत हँसि उठी यशोदा। कछु रिसि कछु मनमें करि मोदा॥ आइगए तेहि समय कन्हाई। वांहगही लै तुरत देखाई॥ तनक तनक कर तनक अंगुरिया। तुम योवन भरि नवल बहुरिया॥ जाहु घरहि तुमको मैं चीन्ही। तुम्हरी जाति जानि मैं लीन्हीं। तुम चाहति सो ह्यां नापैहौ। और बहुत ब्रजभीतर लैहौ॥ बारबार कहि कहा सुनावति। इनवातन कछु जान नआवति॥ देखहरी एभाव कन्हाई। कहांगई तबकी तरुनाई॥ महरि तुमहि कछु दोपन नाही। हमको देखि देखि मुसुकाही॥ इनके गुण कैसे कोउ जानै। औरै करत और धरि ठानै॥ देन उरहनो तुमको आई। नीकी पहिरायनि हम पाई॥ चलीं सबै युवती घर घरको। मनमें ध्यान करतिहैं हरिको॥ वरप दिवस तप पूरण कीन्हें। नंद सुवनको तन मन दीन्हें॥ प्रातहोत यमुनाफिर आई। प्रथम रहे चढि कदम कन्हाई॥ तीरआइ युवती भई ठगढी। उर अंतर हरिसों रति वाढी॥ कह्यो चलो यमुनाजल खोरैं। अंगन आभूषण सबछोरैं॥ चोली छोरैं हार उतारैं। करसों सिथिल