पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२९३

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सूरसागर। . (२००) केशनिरवाएँ । इत उत चितवत लोग निहारें । कह्यो वसन अब चीर उता।वसन अभूपण धरचो उतारी । जल भीतर सब गई कुमारी {माघ शीतको भीत नमान। पटऋतुको गुण समकरि जाने।। वारवार वूडै जलमाहीं । नेकहु जलको डरपति नाहीं ॥ प्रातहुते यक याम नहाहीं । नेमधर्महीं मेंदिन जाहीं ॥ इतनो कष्ट करें सुकुमारी। पतिके हेतु गोवर्द्धन धारी॥अतितप करति देखि गोपाला मनमें कह्यो धन्य व्रजवाला ॥ हरि अंतर्यामी सव जान । छिन छिनकी यह सेवा मानै ॥ वतफल इनहि प्रगट देखरावों । वसन हरों लै कदम चढ़ावों । तनु साधैं तप कियो कुमारी । भजी मोहिं कामातुर नारी ॥ सोरहसहस गोप सुकुमारी। सबके बसन हरे बनवारी ॥ हरत वसन कछु वार नलागी। जलभीतर युवती सब नागी॥ भूषनवसन सबै हरि ल्याये। कदम डार जहँ तहैं लटकाये ॥ ऐसो नीप वृक्ष विस्ताराचीर हारधौं कित कह डारा॥ सवै समाने तनु प्रतिडारा यह लीला रची नंदकुमाराहार चीर मानो तरु फूल्यो। निरखि श्याम आपुन अनुकूल्यो। नेमसहित युवती सब न्हाइ मन मन सविता विनय सुनाइ ।। मूदहि नैन ध्यान उर धारे । नँदनंदन पति होंय हमारे॥रविकार विनय शिवहि मन दीन्हो । हृदय भाव अवलोकन कीन्हो ॥ त्रिपुरसदन त्रिपुरारि त्रिलोचन । गौरीपति पशुपति अपमोचन ॥ गरल अशन अहि भूपनधारी। जटा धरन गंगा शिर प्यारीकरति विनय यह मांगति तुमसोकरहु कृपा हँसिकै आपुनसों। हम पावै सुत यशोमतिको पति। इहै देह करि कृपा देव रति नित्यनेमकार चली कुमारी । येक याम तनको हिमजारीबिजल- लना कह्यो नीर जडाई । अति आतुरदै तटको धाई ॥ जलते निकसि तरुनि सब आई । चीर अभूषन तहांनपाई॥सकुचि गई जलभीतर धाई। देखिहँसत तरुचढ़े कन्हाईस वार वार युवती पछि ताई । सबके बसन अभूपन नाई ॥ऐसो कौन सवै लैभाग्यो । लेतह ताहि विलम नहिं लाग्यो । माघ तुषार युवति अकुलाही । ह्यांकहुँ नंद सुवनतौ नाहीं ॥ हम जानी यह बात बनाई । अंबर हरि लैगए कन्हाई ॥ होकहुँ श्याम विनय सुनि लाज। अंबरदेहु कृपाकार जीजै ॥ थर थर अंग, कपति सुकुमारी । देखि श्याम नहि सके सँभारी ॥ एहि अंतर प्रभु वचन सुनाए । व्रतको फल दरशन सब पाए॥ कहा कहति मोसों ब्रजवाला। मावशीत कत होत विहालाअंबर जहां बताऊं तुमको। तो तुम कहा देहुगी हमको । तन मन अपन तुमको कीन्हो । जो कछु हतो सो तुमहीं दीन्हो और कहा लैहो जू हमसों। हम मांगतहैं अंबर तुमसों यह सुनि हँसे दयालु मुरारी । मेरो कह्यो करो सुकुमारी॥जलते निकसि सबै तट आवहु । तवहि भले अंबर तुम पावहु ॥ भुजाप सारिदीनद्वैभाषहु । दोउ करजोरि जोरितुम राखहु॥सुनहु श्याम इकबात हमारी। नगनकहूं देखिये नानारी ॥ यह मति आपु कहांधौं पाई। आज सुनी यह वात नवाई। ऐसी साध मनहिं में राखहु । यह वाणी मुखते जनि भाषहु ॥ हम तरुनी तुम तरुन कन्हाई । विनावसन क्योंदोहिं देखाई ॥पुरुष जाति तुम यह काजानौ । हाहा यह मुसमें जान आनौ । तौ तुम बैठि रहौ जलही सब । वसन अभू पन नाहि चाहति अब ॥ तवहि देउ जल वाहिर आवहु ॥ बाँह उठाइ अंग देखरावहु ॥कतहोशीत. सहति सुकुवारी । सकुचदेहु जलहीमें डारी ॥ फरयो कदम व्रत फरनि तुम्हारो। अब कहा लज्या कराति हमारो ॥ लेहु नआइ आपुने व्रतको । मैं जानत या व्रतके धनको ।। नीके व्रत कीन्हो तनु गारी । व्रतल्यायो धरिमैं गिरिधारी।तुम मनकामन पूरण करिहौं। राससंग रचिरति सुख भरिहौं ॥ यह सुनिकै मन हर्ष बढ़ायोतिको पूरण फल हम पायो॥छांडहु तुम यह टेक कन्हाई । नीरमाह . । बहु गई जडाईआभूषण सव आयुहि लेहु । चीर कृपाकै हमको देहहाहालागे पाँइ तुम्हारे। पाप ॥ - - -