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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२९३

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सूरसागर।


केशनिरवारैं॥ इत उत चितवत लोग निहारैं। कह्यो वसन अब चीर उतारैं॥ वसन अभूषण धरयौ उतारी। जल भीतर सब गई कुमारी॥ माघ शीतको भीत नमानै। पटऋतुको गुण समकरि जानै॥ वारवार वूडै जलमाहीं। नेकहु जलको डरपति नाहीं॥ प्रातहुते यक याम नहाहीं। नेमधर्महीं मेंदिन जाहीं॥ इतनो कष्ट करैं सुकुमारी। पतिके हेतु गोवर्द्धन धारी॥ अतितप करति देखि गोपाला मनमें कह्यो धन्य व्रजवाला॥ हरि अंतर्यामी सब जानै। छिन छिनकी यह सेवा मानै॥ व्रतफल इनहि प्रगट देखरावों। वसन हरों लै कदम चढ़ावों। तनु साधैं तप कियो कुमारी। भजी मोहिं कामातुर नारी॥ सोरहसहस गोप सुकुमारी। सबके बसन हरे बनवारी॥ हरत बसन कछु वार नलागी। जलभीतर युवती सब नागी॥ भूषनवसन सबै हरि ल्याये। कदम डार जहँ तहँ लटकाये॥ ऐसो नीप वृक्ष विस्तारा। चीर हारधौं कित कहँ डारा॥ सबै समाने तनु प्रतिडारा। यह लीला रची नंदकुमारा॥ हार चीर मानो तरु फूल्यो। निरखि श्याम आपुन अनुकूल्यो॥ नेमसहित युवती सब न्हाइ। मन मन सविता विनय सुनाइ॥ मूदहिं नैन ध्यान उर धारे। नँदनंदन पति होंय हमारे॥ रविकार विनय शिवहि मन दीन्हो। हृदय भाव अवलोकन कीन्हो॥ त्रिपुरसदन त्रिपुरारि त्रिलोचन। गौरीपति पशुपति अपमोचन॥ गरल अशन अहि भूषनधारी। जटा धरन गंगा शिर प्यारी॥ करति विनय यह मांगति तुमसो। करहु कृपा हँसिकै आपुनसों॥ हम पावैं सुत यशोमतिको पति। इहै देहु करि कृपा देव रति॥ नित्यनेमकार चलीं कुमारी। येक याम तनको हिमजारी॥ व्रजल लना कह्यो नीर जडाई। अति आतुरह्वै तटको धाई॥ जलते निकसि तरुनि सब आई। चीर अभूषन तहांनपाई॥ सकुचि गई जलभीतर धाई। देखिहँसत तरुचढ़े कन्हाई॥ वार वार युवती पछि ताई। सबके बसन अभूषन नाई॥ ऐसो कौन सबै लैभाग्यो। लेतहु ताहि विलम नहिं लाग्यो। माघ तुषार युवति अकुलाहीं। ह्यांकहुँ नंद सुवनतौ नाहीं॥ हम जानी यह बात बनाई। अंबर हरि लैगए कन्हाई॥ होकहुँ श्याम विनय सुनि लीजै। अंबरदेहु कृपाकरि जीजै॥ थर थर अंग, कँपति सुकुमारी। देखि श्याम नहिं सकैं सँभारी॥ एहि अंतर प्रभु वचन सुनाए। व्रतको फल दरशन सब पाए॥ कहा कहति मोसों ब्रजवाला। माघशीत कत होत विहाला॥ अंबर जहां बताऊं तुमको। तौ तुम कहा देहुगी हमको॥ तन मन अर्पन तुमको कीन्हो। जो कछु हतो सो तुमहीं दीन्हो॥ और कहा लैहो जू हमसों। हम मांगतहैं अंबर तुमसों॥ यह सुनि हँसे दयालु मुरारी। मेरो कह्यो करो सुकुमारी॥ जलते निकसि सबै तट आवहु। तबहि भले अंबर तुम पावहु॥ भुजाप सारि दीनह्वै भाषहु। दोउ करजोरि जोरि तुम राखहु॥ सुनहु श्याम इकबात हमारी। नगनकहूं देखिये नानारी॥ यह मति आपु कहांधौं पाई। आज सुनी यह बात नवाई॥ ऐसी साध मनहिं में राखहु। यह वाणी मुखते जनि भाषहु॥ हम तरुनी तुम तरुन कन्हाई। विनाबसन क्योंदोहिं देखाई॥पुरुष जाति तुम यह काजानौ। हाहा यह मुखमें जान आनौ। तौ तुम बैठि रहौ जलही सब। बसन अभूषन नाहि चाहति अब॥ तबहि देउ जल बाहिर आवहु॥ बाँह उठाइ अंग देखरावहु॥ कतहो शीत सहति सुकुवारी। सकुचदेहु जलहीमें डारी॥ फरयो कदम व्रत फरनि तुम्हारो। अब कहा लज्या कराति हमारो॥ लेहु नआइ आपुने व्रतको। मैं जानत या व्रतके धनको॥ नीके व्रत कीन्हो तनु गारी। व्रतल्यायो धरिमैं गिरिधारी॥ तुम मनकामन पूरण करिहौं। राससंग रचिरति सुख भरिहौं॥ यह सुनिकै मन हर्ष बढ़ायो। व्रतिको पूरण फल हम पायो॥ छांडहु तुम यह टेक कन्हाई। नीर माहँ बहु गई जडाई॥ आभूषण सब आपुहि लेहु। चीर कृपाकै हमको देहु॥ हाहा लागे पाँइ तुम्हारे॥ पाप