सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२०१)
दशमस्कन्ध-१०


होतहै जाड़ न मारे॥ आजुहिते हम दासि तुम्हारी। कैसे अंग देखावैं उघारी॥ अंग देखायहि अंबर पैहौ। नातरु वैसेहि दिवस गवैहौ। मेरे कहे निकसि सब आवहु। थोरेहि हमको भलो मनावहु। मुहां चही तरुनी मुसुकानी। यह आपुन थोरी कीर जानी॥ जोइ जोइ कहो सो तुमको सोहै। आज तुम्हारे पटतर कोहै हमरी पति सब तुम्हरे हाथा। तुमहि कहौ ऐसी व्रजनाथा॥ तपतनु गारि कियो जेहि कारण। सो फल लग्यो नीपतरु डारन। आवहु निकसि लेहु पट भूषन। यह लामै हमको सब दूषन॥ अब अंतर कत राखत हमसों। वारंवार कहतहौं तुमसों ॥ गोपिन मिलि यह बात विचारी। अबतौ टेक परे वनवारी॥ चलहु न जाइ चीर अबलेहु। लाज छांड़ि उनको सुखदेहु॥ जलते निकसि तीर सब आई। बारबार हरि हर्ष बुलाई। वैठिगई तरुणी सकुचानी। देहु श्याम हम अतिहि लजानी॥ छाँड़िदेहु यह बात सयानी। वैसेहि करौ कही जो बानी॥ करकुच अंग ढाँकि भई ठाढ़ी॥ वदन नवाइ लाज अति बाढ़ी॥ देहु श्याम अंबर अब डारी। हाहा दासी सबै तुम्हारी॥ ऐसे नहीं वसन तुम पावहु। बांह उठाइ अंग देखरावहु । कह्यो मानि युवतिनि करजोरे। पुनि पुनि युवतीं करति निहोरे॥ धन्य धन्य कहि श्री गोपाला। निहचै व्रत कीन्हो ब्रजवाला॥ आयहु निकट लेहु सब अंबर। चोली हार सुरंग पटंबर॥ निकट गई सुनिकै यह बानी। तरुनी नग्न अंग अकुलानी॥ भूषन बसन सबनको दीन्हों। तियके हेतु कृपा हरि कीन्हो॥ चीर अभूषण पहिरे नारी। कह्यो ताहि ऐसे वनवारी॥ तब हाँसे बोले कृष्ण मुरारी। मैं पति तुम मेरी सब प्यारी॥ तुमहि हेतु यह वपु ब्रजधारयो। तुम कारण वैकुंठ बिसारयो॥ अब व्रतकरि तुम तनुहि नगारौ। मैं तुमवे कहुँ होत न न्यारो॥ मोहिं कारण तुम अति तप साध्यो। मन मनकै मोको अवराध्यो॥ जाहु सदन अब सब ब्रजवाला। अंगपरसि मेटे जंजाला॥ युवतिन बिदा दई गिरिधारी। गई घरनि सब घोषकुमारी वस्त्रहरनलीला प्रभु कीन्हो। व्रजतरुणी व्रतको फल दीन्हो॥ यह लीला श्रवणनिसुनि भावै। औरनि सिखवै आपुन गावै॥ सूरश्याम जनके सुखदाई । दृढ़ताईमें प्रगट कन्हाई॥६४॥ अथ पनघटको प्रस्तावअडानो ॥ हौं गईही यमुनजल लेनमाई हो सांवरेसे मोही । सुरंग केसरि खौरि कुसुमकीदाम अभिराम कंठकनककी दुलरी झलकत पीतांबरकी खोही॥ नान्ही नान्ही बूंदनमें ठाढोरी बजावै गावै मलारकी मीठीतान मैं तो लालाकी छवि नेकहु न जोही। सूरश्याम मुरि मुसकानि छबिरी अँखियनमें रही तब न जानोहो कोही॥६५॥ चटकीलो पट लपटानो कटि वंसीवट यमुनाके तट नागरनट। मुकुट लटकि अरु भ्रकुटी मटक देखौ कुंडलकी चटकसों अटकि परी दृगनि लपट॥ आछी चरणनि कंचनलकुट ठटकीली बनमाल करटेके द्रुमडार टेड़े ठाढ़े नंदलाल छविछाइ घट घट। सूरदास प्रभुकी वानक देखे गोपी ग्वाल टारे न टरत निपट आवै सोंधेकी लपट॥॥६६॥ मुघराई ॥बजावै मुरलीकी तान सुनावै यहिविधि कान्ह रिझावै। नटवर वेप बनाये चटक सों ठगढ़ो रहे यमुनाके तीर नित नव मृग निकट बोलावै॥ ऐसोको जो जाइ यमुनते जल भरि ल्यावै। मोरमुकुट कुंडल बनमाला पीतांबर फहरावै। एक अंग सोभा अवलोकत लोचन जल भरि आवै॥ सूरश्यामके अंग अंगप्रति कोटिकाम छबिछावै॥६७॥ पूरवी ॥ पनघट रोकेहि रहत कन्हाई। यमुनाजल कोउ भरन न पावत देखतही फिरिजाई। तबहिं श्याम इक बुद्धि उपाई आपुन रहे छपाइ। तब ठाढ़े जे सखा संगके तिनको लिये बोलाइ॥ बैठारे ग्वालनको द्रुमतर आपुन फिरि फिरि देखत। बड़ी धारभई कोऊ न आई सुरश्याम मन लेखत॥६८॥ देवगंधार ॥ युवति इक आवत देखी श्याम। द्रुमके ओट रहे हरि आपुन यमुनातटगई वाम॥ जल हलोरि गागरि भरि नागरि जबही