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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३०२

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दशमस्कन्ध-१०


मुख हेरी॥ + ॥ जानदै श्यामसुंदरलौं आजु। सुनिहो कंत लोकलाजते विगरतुहै सब काजु॥ राखो रोकि पाँइ बंधनके रोको अरु जलनाजु॥ हाँ तो रोके मिलोंगी हरिको तू घर बैठे गाजु॥ चितवत हुती झरोखे ठाढी किये मिलनको साजु। सूरदास तनु त्यागि छिनकमें तज्यो कंतको राजु॥ अध्याय॥२४॥ गोवर्धनपूजा॥विलावल ॥ नंदमहरसों कहति यशोदा सुरपतिकी पूजा विसराई। जाकी कृपा वसत ब्रज भीतर जाकी दीनी भई बड़ाई॥ जाकी कृपा दूध दही पूरन सहसमथानी मथति सदाई। जाकी कृपा अन्न धन मेरे जाकी कृपा नवौनिधि आई॥ जिनकी कृपा पुत्र भयो मेरे कुशलरहौ बलराम कन्हाई। सूर नंदसों कहति यशोदा दिन आए अब करहु चडाई॥३२॥ गौरी ॥ एईहैं कुलदेव हमारे। काहू नहीं और हम जानति गोधन हैं ब्रजके रखवारे॥ दीपमालिकाके दिन पाँचेक गोपन कहौ बुलाई। बलि सामग्री करैं चडाई अब हीं कहो सुनाई॥ लई बुलाइ महरि महरानी सुनतहि आई धाई। नंदघरनि तब कहति सखिनसों कतहौ रही भुलाई। भूली कहा कहौ सो हमसों कहति कहा डरपाइ। सूरदास सुरपतिकी पूजा तुम सबही विसराइ॥३३॥ चौंकि परीं सब गोकुल नारि। भली कही सबही सुधि भूली तुमहि करी सुधि भारि॥ कह्यो महरिसों करौ चडाई हम अपने घर जाति। तुमहूं करौ भोग सामग्री कुलदेवता अमाति॥ यशुमति कह्यो अकेली हौं मैं तुमहुं संग मुहिदीजी। सूर हँसति ब्रजनारि महरिसों अहैं साँचु पतीजौ॥३४॥ कल्याण ॥ कही मोहिं भली कीनी महरि। राजकाजहि रहत डोलत लोभहीकी लहरि॥ क्षमा कीजौ मोहिंहौं प्रभु तुमहिं गयो भुलाइ। ग्वालसों कहि तुरत पठयो ल्याउ महरि बुलाइ॥ नंदकह्यो उपनंद ब्रजके अरु महर वृषभान। अवहिं जाइ बुलाइ आनौ करत दिन अनुमान॥ आइगए दिन अबहिं नेरे करत मन इह ज्ञान। सूरनंद विनय करत करजोरि सुरपति ध्यान॥३९॥ विलावल ॥ नंदमहर उपनंद बुलाए। आदर करि बैठनको दीनो महर महर मिलि शीशनवाए॥ मनही मन सब सोच करतहैं कंस नृपति कछु मांगि पठाय। राज अंशधन जो कछु उनको विनुमाँगे सो हमदै आए॥ वृझत महर बात नंद महरहि कौन काज हम सबनि बुलाए। सूर नंद यह कहि गोपनसों सुरपति पूजाके दिन आए॥३६॥ हँसत गोप कहि नंदमहरसौ भली भई यह बात सुनाई। हमाहिं सबनि तुम बोलि पठाए अपने जिय सब गए डराई। काहेको डरपे हम बोलत हँसत कहत बातैं नँदराई। बडो सदेहु कियो हम तुमको ब्रजवासी हम तुम सब भाई॥ करो विचार इन्द्र पूजाको जो चाहो सो लेहु मँगाई। वरष दिवसको दिवस हमारो घर घर नेवज करौ चँडाई॥ अन्नकूट विधि करत लोग सब नेम सहित करि करि पकवान्ह। महरि जोरि कर विनय इन्द्रसों सूर अमर करि कीजै कान्ह॥३७॥ गावत मंगलचार महर घर। यशुमति भोजन करति चँडाई नेवज करि करि धरति श्यामडर॥ देखेरहौ नछुवै कन्हैया कहजानै वह देवकाजपर। और नहीं कुलदेव हमारे कैं गोधन के वै सुरपतिवर॥ करति विनय करजोरि यशोदा कान्हहि कृपा करौ करुणाकर। और देव तुम सरि कोउ नाहीं सूर करौं सेवा चरणनतर॥३८॥ मूही ॥ वाजति नंद अवास बधाई। बैठे खेलत द्वार आपने सात वरषके कुँवर कन्हाई॥ बेठे नंद सहित वृषभानुहि और गोप बैठे सब आई। थापे देत घरनके द्वारे गावति मंगल नारि सुहाई॥ पूजा करत इन्द्रकी जानी आए श्याम तहां अतुराई। बूझत बार बार हरि नंदहिं कौन देवकी करत पुजाई॥ इन्द्र बड़े कुल देव हमारे उनते सब यह होत बड़ाई। सूरश्याम तुमरे हित कारण यह पूजा हम करत सदाई॥३९॥ आसावरी ॥ नंद कह्यो घर जाहु कन्हाई। ऐसे में तुम जैहो जिनि कहु अहो महरि

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