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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३०८

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दशमस्कन्ध-१०


सुरति सम्हारि॥ पूजि आए गिरि गोवर्धन देति पुरुषनि गारि। आपनो कुलदेव सुरपति धरयो ताहि विसारि॥ दियो फल यह गिरिगोवर्धन लेहु गोदपसारि। सूर कौन सम्हारि लैहै चढ्यो इंद्र प्रचारि॥७८॥ सोरठ ॥ ब्रजके लोग फिरत वितताने। गैयनि लै बन ग्वाल गए ते धाए आवत ब्रजहि पराने॥ कोऊ चितवत नभतन चकृत ह्वै कोउ गिरि परत धरनि अकुलाने। कोऊ लैओट रहत वृक्षनकी अंधधुंध दिशि विदिशि भुलाने॥ कोऊ पहुँचे जैसे तैसे गृह कोऊ ढूंढत गृह नहिं पहिचाने। सूरदास गोवर्धन पूजा कीने कर फल लेहु बिहाने॥७९॥ रागनट ॥ तरपत नभ डरपत ब्रज लोग। सुरपतिकी पूजा विसराई लै दीनो पर्वत को भोग॥ नंदसुवन यह बुधि उप जाई कौन देव कह्यो पर्वत योग। सूरदास गिरि बड़ो देवता प्रगट होइ ऐसे संयोग॥८०॥ ब्रज नरनारि नंद यशुमतिसों कहत श्याम एकाजकरे। कुलदेवता हमारे सुरपति तिनको सबमिलि मेटिधरे॥ इंद्रहि मेटि गोवर्धन थाप्यो उनकी पूजा कहा सरै। सैंतत फिरत जहाँ तहाँ वासन लरिकनु लैलै गोदभरै॥ को करि लेइ सहाय हमारो प्रलयकाजके मेघ अरे। सूरदास प्रभु कहत नारि नर क्यों सुरपति पूजा विसरे॥८१॥ विलावल ॥ राखिलेहु गोकुलके नायक। भीजत ग्वाल गाइ गोमुत सब विषम बूंद लागत जनु सायक॥ वरपत मुसलधार सैनापति महामेघ मघवाके पायक। तुम बिनु ऐसो कौन नदसुत यह दुखदुसह मिटावन लायक॥ अघ मरदन वकवदन विदारन वकी विनाशन सब सुखदायक। सूरदास प्रभुताकी यहगति जाके तुमसे सदा सहायक॥८२॥ अध्याय॥२६॥तथा॥२७॥मलार॥ शरण राखि लेहो नंदताता। घटा आई गरजि युक्ती गई मन लरजि वीजु चमकति तरजि डरत गाता॥ और कोऊ नहीं तुम त्रिभुवनधनी जहँ तहँ विकल ह्वैके कही तुमहिं नाता। सूरप्रभु सुनि हँसत प्रीति उरमें बसत इंद्रको कसत हरि जगत धाता॥८३॥ बिलावल ॥ राखिलेहु अब नंदकिसोर। तुम जु इन्द्रकी मेटी पूजा वरपतहै अतिजोर॥ ब्रजवासी सब तुम तन चितवतहैं ज्योंकरि चंद्र चकोर। जनि जिय डरो नैन जनि मूँदौं धरिहौं नसकी कोर॥ करि अभिमान इंद्र झर लायो करत घटा घनघोर। सुरश्याम कहि तुमको राखौं बूंद नआवै छोर॥८४॥ मलार ॥ माधवजू कांपत डरन हियो। दामिनि चाप बूंद सायक मनौ द्वै योधा लैसंग॥ ह्वै गयो सरस समीर दुहूं दिशि धनुप धुजा बहु रंग। सोभित सुभट प्रचारि पैजकार भिरत नमोरत अंग॥ कहत तुम्हारे कियो नँदनंदन सुरपतिको व्रत भंग। वरपत प्रलय मेघ धर अंबर डरपत गोकुल गाउँ। समरथ नाथ शरणहौं तुमविनु और कौनपै जाउँ॥ जो तुम अनल व्याल मुख राखे श्रीपति सुहृद सुभाई। हमरै तौ तुमहीं चिंतामणि सब विधि दाइ उपाई॥ जनि डर करहु सबै मिलि आवहु यापर्वतकी छाँह। वर्पत में गोपाल बुलाए अभय किये दैवाँह॥ एक हाथ गोवर्धन राख्यो सात दिवस बलवीर। सूरदास प्रभु ब्रजवासिनके एहरता सब पीर॥८५॥ माधव मेघ परि कितौ आए। घरको गाय वहोरो मोहन ग्वालन टेर सुनाए। कारी घटा सधूम देखियति आति गति पवन चलायो। चारौ दिशा चितै किन देखौ दामिनि कौंधा लायो। अति घनश्याम सुदेश सूरप्रभु करगहि शैल उठायो। राखे सुखी सकल ब्रजवासी इंद्रको कोप नवायो॥८६॥ आजु ब्रज महाघटनु घट घेरो। अब ब्रजराख कान्ह इहि औसर सब चितवत मुखतरो। कोटि छयानवे मेघ बुलाए आनि कियो ब्रज डेरो। मूशल धार टूटे चहुँ दिशते ह्वैगयो दिवस अँधेरो॥ इतनी कहत यशोदा नंदन गोवर्धन तनहेरो। कियो उपाइ गिरिवर धरिवेको माहते पकरि उखेरो॥ सात दिवस जल वर्पि सिराने हारि