पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३०८

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दशमस्कन्ध-१० (२१५) सुरति सम्हारि ॥ पूजि आए गिरि गोवर्धन देति पुरुषनि गारि । आफ्नो कुलदेव सुरपति धरयो ताहि विसार ॥ दियो फल यह गिरिगोवर्धन लेहु गोदपसारि । सूर कौन सम्हारि लैहै चढ्यो इंद्र प्रचारि ॥७८ । सोरठ ॥ ब्रजके लोग फिरत वितताने । गैयनि लै बन ग्वाल गए ते धाए आवत ब्रजहि पराने ॥ कोऊ चितवत नभतन चकृत लै कोउ गिरि परत धरनि अकुलाने । कोऊ लै ओट रहत वृक्षनकी अंधधुंध दिशि विदिशि भुलाने ॥ कोऊ पहुँचे जैसे तैसे गृह कोऊ ढूंढत गृह नहिं पहिचाने । सूरदास गोवर्धन पूजा कीने कर फल लेहु विहाने ॥ ७९ ॥ रागनट ॥ तरपत नभ डरपत व्रज लोग । सुरपतिकी पूजा विसराई लै दीनो पर्वत को भोग ॥ नंदसुवन यह बुधि उप जाई कौन देव कह्यो पर्वत योग । सूरदास गिरि बड़ो देवता प्रगट होइ ऐसे संयोग॥८॥ज नरना रि नंद यशुमतिसों कहत श्याम एकाजकरे । कुलदेवता हमारे सुरपति तिनको सवमिलि मेटिधरे। इंद्रहि मेटि गोवर्धन थाप्यो उनकी पूजा कहा सरै। सैंतत फिरत जहाँ तहाँ वासन लरिकनु लैलै गोदभरै ॥ को करि लेइ सहाय हमारो प्रलयकाजके मेघ अरे। सूरदास प्रभु कहत नारि नर क्यों सुरपति पूजा विसरे ॥ ८ ॥ विलावल ॥ राखिलेहु गोकुलके नायक । भीजत ग्वाल गाइ गोमुत सब विपम वूद लागत जनु सायक ॥वरपत मुसलधार सैनापति महामेघ मघवाके पायक । तुम विनु ऐसो कौन नदसुत यह दुखदुसह मिटावन लायक ॥ अथ मरदन वकवदन विदारन वकी विनाशन सब सुखदायक । सूरदास प्रभुताको यहगति जाके तुमसे सदा सहायक ॥ ८२ ॥ अध्याय ॥ २६ ॥ तथा ॥ २७ ॥ मलार ॥ शरण राखि लेहो नंदताता । घटा आई गरजि युक्ती गई मन लरजि वीज चमकति तरजि डरत गाता ॥ और कोऊ नहीं तुम त्रिभुवनधनी जहँ तहँ विकल ढके कही तुमहिं नाता । सूरप्रभु सुनि हँसत प्रीति उरमें वसत इंद्रको कसत हरि जगत धाता ॥८३ ॥ बिलावल ।। राखिलेहु अब नंदकिसोर । तुम जु इन्द्रकी मेटी पूजा वरपतहै अतिजोर ॥ ब्रजवासी सब तुम तन चितवतहैं ज्योंकरि चंद्र चकोर । जनि जिय डरो नैन जनि {दौं धरिहौं नसकी कोर ॥ करि अभिमान इंद्र झर लायो करत घटा घनघोर । सुरश्या म कहि तुमको राखौं बूंद नआवै छोर ॥ ८४ ॥ मलार ॥ माधवजू कांपत डरन हियो । दामिनि चाप बूंद सायक मनौ द्वै योधा लैसंग ॥ वै गयो सरस समीर दुहूं दिशि धनुप धुजा बहु रंग । सोभित सुभट प्रचारि पेजकार भिरत नमोरत अंग ॥ कहत तुम्हारे कियो नँदनंदन सुरपतिको व्रत भंग । वरपत प्रलय मेव धर अंवर डरपत गोकुल गाउँ। समरथ नाथ शरणही तुमविन और कौनपै जाउँ ॥जो तुम अनल व्याल मुख राखे श्रीपति सुहृद सुभाई । हमरै तौ तुमहीं चिंतामणि सब विधि दाइ उपाई ॥ जनि डर करहु सबै मिलि आवड यापर्वतकी छाँह । वर्पत में गोपाल बुलाए अभय किये देवाह ॥ एक हाथ गोवर्धन राख्यो सात दिवस बलवीर। सूरदास प्रभु ब्रजवासिनके एहरता सब पीर ॥ ८५॥ माधव मेघ परि कितौ आए । घरको गाय वहोरो मोहन ग्वालन टेर सुनाए । कारी घटा सधूम देखियति आत गति पवन चलायो । चारौ दिशा चितै किन देखौ दामिनि कौंधा लायो । अति घनश्याम सुदेश सूरप्रभु करगहि शैल उठायो । राखे सुखी सकल ब्रजवासी इंद्रको कोप नवायो॥८६॥ आज ब्रज महापटनु घट घेरो । अब ब्रजराख कान्ह इहि औसर सब चितवत मुखतरो। कोटि छयानवे मेघ बुलाए आनि कियो ब्रज डेरो । मूशल धार टूटे चहुँ दिशते बैगयो दिवस अँधेरो ॥ इतनी कहत यशोदा नंदन गोवर्धन तनहेरो। कियो उपाइ गिरिवर धरिवको माहते पकरि उखेरो ॥ सात दिवस जल वा सिराने हारि -