सूरश्याम जानत एगासा। कहां पाणि कहां करै हुतासा॥२॥ मेघवर्त मेघनि समुझावत। बार बार गिरितनहि बतावत॥ पर्वत पर बरषहु तुम जाई। इहै कही हमको सुरराई॥ ऐसे देहु पहार बहाइ। नाउ रहै नहिं ठौर जनाइ॥ सुरपतिकी बलि ये सब खाई। ताके फल पावै गिरिराई। जेंवत कालि अधिक रुचिपाई। सलिल देहु जेहि तृषा बुझाई॥ दिनाचारि रहते जग ऊपर॥ अब न रहन पावहु या भूपर॥ सूर मेघ सुरपतिहि पठाये। ब्रजके लोगन तुमहि बहाये॥५३॥ वर्षतहैं घन गिारिके ऊपर। देखि देखि ब्रजलोग करत डर॥ ब्रजवासी सब कान्ह बतावत। महाप्रलय जल गिरिहि ढहावत॥ झरहरात झारत झर लावत। गिरिहि धोइ ब्रज ऊपर आवत॥ बिकल देखि गोकुलके बासी। दरशदियो सबको अविनाशी॥ अविनाशीको दरशन पाये। तब सब मन परतीति बढाये॥ नंद यशोदा सुतहित जानै। और सबै मुख स्तुतिगानै। बर्षत गिरि झरपत ब्रज उपर। सो जल अँह तहँ पूरन भूपर॥ सूरदास प्रभु राखि लेहु अब। जैसे राखे अघा वदन तब॥५४॥ राखिलेहु अब नंदकुमार। गोसुत गाइ फिरत विकरार। वर्षतबूंद लगै जनु सायक। राखि लेहु अब गोकुलनायक॥ तुमविनु कौन सहाय हमारे। नंदसुवन अब शरण तुम्हारे॥ शरण शरण जब ब्रजजन बोले। धीरवचन देदै दुख मोले॥ यह बोले हँसि कृष्ण मुरारी। गिरि कर धर राखौं नर नारी॥ सूरश्याम चितए गिरिवर तन। विकल देखिकै गोसुत ब्रजजन॥५५॥ गोवर्धन लीन्हो उचकाई
देखिविकल नर नारि कन्हाई॥ अपने सुख ब्रजजन वितताये। बूंद कयुक ब्रजपर वरषाये॥ वै डरपत आपुन हरषत मन। राखेरहैं जहाँ तहाँ ब्रजजन॥ घरिक देखि मनही सुख दीन्हों। वामभुजा धरि गिरिवर लीन्हों॥ सूरश्याम गिरिकर गहि राख्यो। धीर धीर सबसों कहि भाख्यो॥५६॥ श्यामधरयो गिरि गोवर्धन कर। राखिलिए ब्रजके नारी नर॥ गोकुल ब्रजराख्यो सब घर घर। आनँद करत सबै ताही तर॥ वरषत मुसलधार मघववावर। बूंद नआवत नेकहु भूपर॥ धार अखंडित वरपत झरझर॥ कहत मेघ धौं वहु ब्रज गिरिवर॥ सलिल प्रलयको ढूंढत तरतर। बाजत शब्द नीरको धरधर॥ वै जानत जलजातहै दरदर। वचिहि जरत जात जल अंबर॥ सूरदास प्रभु कान्ह गर्वहर। वरषत कहत गयो गिरिको जर॥५७॥ वोलि लिए सब ग्वाल कन्हाई। टेकहु गिरि गोवर्धनराई॥ आज सबै मिलि होहु सहाई। हँसतदेखि बलराम कन्हाई॥ लकुट लिए कर टेकत जाई। कहत परस्पर लेहु उठाई। वरषत इंद्र महाझर लाई। अतिजल देखि सखा
डरपाई॥ नँदनंदन विन को गिरिधारै। ऐसे बल विन कौन सँभारै॥ नखते गिरै कौन गिरि राखै बारबार कहि कहि यह भाषै। सूरश्याम गिरिवर कर लीन्हों। वर्षत मेष चकृत मन कीन्हों॥५८॥ बात कहत आपुसमें वादर। इंद्र पठाए करि हम आदर॥ अब देखत कछु होत निरादर। वरषि बरषि घन भए मन कादर॥ खीजत कहत मेघ सबहिनसों। वरषि कहा कीन्हो तबहीसों॥ महाप्रलयको जल कहँ राखत। डारिदेहु ब्रजपर कहा ताकत॥ क्रोध सहित फिरि वर्षन लागे।ब्रजवासी आनंद अनुरागे॥ग्वाल कहत तुम धन्य कन्हैया। वामभुजा गिरि लिए
उठैया॥ सूरश्याम तुम सरि कोउ नाहीं। वर्षत घन गिरि देखि खिसाहीं॥५९॥ प्रलयमेघ आए लैवाने। आपुसहीमें सबै रिसाने॥ सातदिवस जल वरषि बुढाने। चकृत भए तन सुरति भुलाने॥ फिरि देखत जल कहां टराने। झुरिझुरि सबवादर वितताने॥ बूंदनहीं घन नैक वचाने। जलद अपु नको धृगकरि माने॥ फिरि सब चले अतिहि विकलाने। मनमें हार मानि सकुचाने॥ सूरश्याम गोवर्धन राने
मूरख सुरपति अजहुँ नजाने॥६०॥ मेघ चले मुख फेरि अमरपुर। करी पुकार जाइ आगे सुर॥
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सूरसागर।
