पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३२१

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(२२८) सूरसागर। सरश्याम जानत एगासा। कहां पाणि कहां करै हुतासा ॥२॥ मेघवर्त मेपनि समुझावत । वार बार गिरितनहि बतावत। पर्वत पर बरषहु तुम जाई । इहै कही हमको सुरराई ॥ ऐसे देहु पहार बहाइ । नाउ रहै नहिं और जनाइ ॥ सुरपतिकी बलि ये सब खाई। ताके फल पावै गिरि राई । जेंवत कालि अधिक रुचिपाई। सलिल देहु जेहि तृषा बुझाई दिनाचारिरहते जग ऊपर॥ अब न रहन पावहु या भूपर ॥ सूर मेघ सुरपतिहि पठाये। ब्रजके लोगन तुमहि बहाये ॥५३॥ वर्षत, घन गिारिके ऊपर । देखि देखि ब्रजलोग करत डर ॥ ब्रजवासी सब कान्ह बतावत । महा प्रलय जल गिरिहि ढहावत ।। झरहरात झारत झर लावता गिरिहि धोइ ब्रज ऊपर आवत ॥ विकल देखि गोकुलके बासी । दरशदियो सबको अविनाशी ॥ अविनाशीको दरशन पाये। तब सब मन परतीति बढाये ॥ नंद यशोदा सुतहित जानै । और सबै मुख स्तुतिगाने । वर्पत गिरि झरपत ब्रज उपरासो जल अँह तहँ पूरन भूपर ॥ सूरदास प्रभु राखि लेहु अाजैसे राखे अघा वदन तव५४॥ राखिलेहु अव नंदकुमार । गोसुत गाइ फिरत विकरार । वर्षतबूंद लगै जनु सायक। राखि लेहु अब गोकुलनायक ॥ तुमविनु कौन सहाय हमारे। नंदसुवन अव शरण तुम्हारे ॥ शरण शरण जब ब्रजजन बोले। धीरवचन देदै दुख मोले।यह बोले हँसि कृष्ण मुरारी गिरि कर धर राखौं नर नारी।। सूरश्याम चितए गिरिवर तन । विकल देखिकै गोसुत ब्रजजन ॥६६॥ गोवर्धन लीन्हो उचकाई देखिविकल नर नारि कन्हाई ॥अपने सुख ब्रजजन वितताये । बूंद कयुक ब्रजपर वरषाये ॥ वै डरपत आपुन हरषत मन । राखेरहैं जहाँ तहाँ ब्रजजन ॥ परिक देखि मनही सुख दीन्हों। वामभुजा धरि गिरिवर लीन्हों । सूरश्याम गिरिकर गहि राख्यो। धीर धीर सबसों कहि भाख्यो ॥६६॥ श्यामधरयो गिरि गोवर्धन कर । राखिलिए व्रजके नारी नर ॥ गोकुल बजराख्यो सब घर घर । आनँद करत सबै ताही तर ॥ वरषत मुसलधारमघववावर । बूंद नआवत नेकहु भूपर॥ धार अखंडित वरपत झरझर ॥ कहत मेघ धौ वहु ब्रज गिरिवर ।। सलिल प्रलयको ढूंढत तरतर। बाजत शब्द नीरको धरधरवि जानत जलजातहै दरदरावांचाहि जरत जात जल अंबर ॥ सूरदास प्रभु कान्ह गर्वहर । वरषत कहत गयो गिरिको जर॥१७॥वोलि लिए सब ग्वाल कन्हाई । टेकह गिरि गोवर्धनराई। आज सबै मिलि होहु सहाई। हँसतदेखि बलराम कन्हाई ।। लकुट लिए कर टेकत जाई। कहत परस्पर लेहु उठाई। वरपत इंद्र महाझर लाई । अतिजल देखि सखा डरपाई ॥ नँदनंदन विन को गिरिधारै । ऐसे वल विन कौन सँभारै ।। नसते गिरै कौन गिरि राखे वारवार कहि कहि यह भाषै। सूरश्याम गिरिवर कर लीन्हों। वर्षत मेष चकृत मन कीन्हों ॥९८ ॥ वात कहत आपुसमें वादर । इंद्र पठाए करि हम आदर ॥ अब देखत कछु होत निरा दर। वरपि बरषि घन भए मन कादर ॥ खीजत कहत मेघ सबहिनसों। वरपि कहा कीन्हो तवहीसों ॥ महाप्रलयको जल कहँ राखत । डारिदेहु ब्रजपर कहा ताकत ॥ क्रोध सहित फिरि वर्षन लागे।ब्रजवासी आनंद अनुरागे॥ग्वाल कहत तुम धन्य कन्हैया । वामभुजा गिरि लिए उठेया ॥ सूरश्याम तुम सरि कोउ नाहीं। वर्षत घन गिरि देखि खिसाहीं ॥१९॥ प्रलयमेघ आए लैवाने । आपुसहीमें सवै रिसान।सातदिवस जलं वरपि बुढानचिकृत भए तन सुरात भुलाने।।फिरि देखत जल कहां टरानोझुरिझुरि सबवादर वितताने।बूंदनहीं धन नैक वचानोजलद अपु नको धृग करि माने।फिरि सब चले अतिहि विकलानोमनमें हार मानि सकुचाने.॥ सूरश्याम गोवर्धन राने मूरख सुरपति अजहुँ नजाने ॥६॥ मेघ चले मुख फेरि अमरपुराकरी पुकार जाइ आगे सुर.॥