पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३२७

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(२३४) HDomerracom नंदकी ऐसे दे नजान ॥ १३॥ नंद दोहाई देत कहा तुम कंस दोहाई । काहेको अठिलात कान्ह छाँडौ लरिकाई । पहिली परिपाटी चलौ नहीं चलौ क्यों आजु । नृपति जानि जो पावै पुनि होइ अकाजु ॥ १४ ॥ लरिका मोको कहति नाहिं देखी लारकाई । पय पीवत संहारि पूतना स्वर्ग पठाई ॥ अघाबका शकटा तृणा केशी मुखकर नाई। गिरि गोवर्धन करधरयो यह मेरी लार काई ॥१५॥ सबै भली तुम करी हमैं अब कहत कहाहो। ऐसी बात करतही मोहन तैसी सोइ लहाहो । हँसी पलक द्वैचारिकी वीतन लागे याम । बनमें राखी रोकिकै नारि पराई श्याम ॥१६॥ हँसी करतही तुमहि भली गई मति ब्रजनारी । तुम हमको हम तुमहि दई विनकाजहि गारी॥ बात कही कछु जानिकै वृथा बढावत सोर। सदा जाहु.चोरटी भई आजु परी फँग मोर' ॥३७॥ माँगि लेहु दधि देहि दानको नाउँ मिटावहु । देत दुहाई नंदराइकी दान न सदा लगाव हु॥हमहिं कहतही चोरटी आपु भयेही साहु । चोरी करत पडेभए मही छाक लै खाहु ॥ १८॥ दही लेतही छीनि दान अंगनिको लेहौं । लेहौं रूपहि दान दान यौवनपै कैहौँ ।। तुम सब कंचन भारलै मेरे मारग जाहु । मही दही दिखरावहू कैसे होत निवाहु॥१९॥जाहु भलेहो कान्ह दान अंग अंगको मांगता हमरो योवन रूप आंखि इनके गडि लागता|सबै चली झहराइकैमटुकी शीश उठा इ।रिसकरि कसि कटि पीतपट ग्वारि गही हरिधाइ ॥२०॥ मटुकी लई छिड़ाइ हार चोली बंद तोरयो । भुजभार धार अंकवारि बांह गहिकै झकझोरयो । माखन दधि लियो छीनिकै कह्यो . ग्वाल सब प्याहु । मुख झगरति आनंद उर घिरवतहै घरजाहु ॥ २१ ॥ देखो हरिको काम झटकि चोली बंदतोरयो । हमको भार अंकवारि वाहधार धरि झकझोरयो॥ यशुमतिसों कहिये चलौ अब प्रगटी तरुनाइ। दधि माखन सब छीनिलै ग्वालनि दए खवाइ ॥ २२॥ जाइ कहौ जू भली बात मैयाके आगे। तुमको जोवन रूप दान देती नहिं मांगे।तुम जो केहौजाइकै जननी नहीं पत्याइ। सूर सुनहरी ग्वालिनी आवहुगी पछिताइ ॥ २३ ॥१००६॥ काफी ॥ ऐसो दान नांगिये जोहमपै दियो नजाइ । वनमें पाइ अकेली युवतिनि मारग रोकत धाइ ॥ घाट वाट अवघट यमुना तट वातें कहत वनाइ । कोऊ ऐसा दानलेतहै कौने सिखै पठाइहमनाहिं जानति तुमयों नाही रहोगारी खाइ । जोरस चाहौ सो रस नाहीं गोरस पियहु अघाइ॥ औरनसों लैलीजिये गिरिधर तब हमदेहि बोलाइ । सूरश्याम कत करत अचगरी हमसों कुँवरकन्हाइ॥७॥ नट ॥ दानलेहु देहु जान काहेको कान्ह देतहौ गारी । जो कोऊ कयो करैरी हठि याही मारग आवै ब्रजमारी॥ भली करी दधि माखन खायो चोली हार तोरि सब डारी । जोबन दान कहूं को माँगत यह सुनि लाजन मारी ॥ होत अवार दूरि घर जैवे पैयां लाग डरतिहैं भारी। हमहि तुमहि कैसो झगरो सूर सुजान. हम गँवारी॥८॥ भैरव ॥ भोरहिते कान्ह करत मोसों झगरो । औरन छाडि परे हठ हमसों दिनप्रति कलह करत गहि डगरो ॥ आन वोहनी तनक नहिंदैहौँ ऐसेहि छीनि लेहु वरु सगरो। सब कोऊ जात मधुपुरी वेचन कौने दियोदिखावहुकगरो॥ अंचल ऐंचि ऍचि राखतही जान अब देहु होतहै दगरो । मुख चूमति हँसि कंठलगावति आपुहि कहति न लाल अचगरो॥ सूरसनेह ग्वारि मन अटक्यो छांडहुदियो परत नहिं पगरो। परममगनढ रही.चितै मुख सवहीते. भाग याहीको अगरो॥९॥ कान्हरो ॥ दान लेहौं सब अंगनिको । अति मद गलित तालफलते. गुरु इनि युग उरोज़ उतंगनिको ॥ खंजन कंज मीन मृग सावक भवर जवर भुवभंगनिको। कुंदकली बंधूप विवफल वर ताटक तरंगनिको । कोकिल कीर कपोत किसलता हाटक हंस ॥