नंदकी ऐसे देउँ नजान॥१३॥ नंद दोहाई देत कहा तुम कंस दोहाई। काहेको अठिलात कान्ह छाँडौ लरिकाई। पहिली परिपाटी चलौ नहीं चलौ क्यों आजु। नृपति जानि जो पावै पुनिपै होइ अकाजु॥१४॥ लरिका मोको कहति नाहिं देखी लारकाई। पय पीवत संहारि पूतना स्वर्ग पठाई॥ अघा बका शकटा तृणा केशी मुखकर नाई। गिरि गोवर्धन करधरयो यह मेरी लरिकाई॥१५॥ सबै भली तुम करी हमैं अब कहत कहाहो। ऐसी बात करतहौ मोहन तैसी सोइ लहाहो॥ हँसी पलक द्वैचारिकी वीतन लागे याम। बनमें राखी रोकिकै नारि पराई श्याम॥१६॥
हँसी करतहौ तुमहि भली गई मति ब्रजनारी। तुम हमको हम तुमहि दई विनकाजहिगारी॥ बात कहौ कछु जानिकै वृथा बढावत सोर। सदा जाहु चोरटी भई आजु परी फँग मोर॥१७॥ माँगि लेहु दधि देहि दानको नाउँ मिटावहु। देत दुहाई नंदराइकी दान न सदा लगावहु॥ हमहिं कहतहौ चोरटी आपु भयेहौ साहु। चोरी करत बडेभए मही छाक लै खाहु॥१८॥ दही लेतहौ छीनि दान अंगनिको लेहौं। लेहौं रूपहि दान दान यौवनपै कैहौं॥ तुम सब कंचन भारलै मेरे मारग जाहु। मही दही दिखरावहू कैसे होत निबाहु॥१९॥ जाहु भलेहो कान्ह दान अंग
अंग को मांगत। हमरो योवन रूप आंखि इनके गडि लागता॥ सबै चली झहराइकै मटुकी शीश उठाइ। रिसकरि कसि कटि पीतपट ग्वारि गही हरिधाइ ॥२०॥ मटुकी लई छिड़ाइ हार चोली बंद तोरयो। भुजभरि धरि अंकवारि बांह गहिकै झकझोरयो। माखन दधि लियो छीनिकै कह्यो ग्वाल सब प्याहु। मुख झगरति आनंद उर घिरवतहै घरजाहु॥२१॥ देखो हरिको काम झटकि चोली बंद तोरयो। हमको भरि अँकवारि वांहधार धरि झकझोरयो॥ यशुमतिसों कहिये चलौ
अब प्रगटी तरुनाइ। दधि माखन सब छीनिलै ग्वालनि दए खवाइ॥२२॥ जाइ कहौ जू भली बात मैयाके आगे। तुमको जोवन रूप दान देती नहिं मांगे॥ तुम जो केहौ जाइकै जननी नहीं पत्याइ। सूर सुनहरी ग्वालिनी आवहुगी पछिताइ॥ २३॥१००६॥ काफी ॥ ऐसो दान नमांगिये जोहमपै
दियो नजाइ। वनमें पाइ अकेली युवतिनि मारग रोकत धाइ॥ घाट वाट अवघट यमुना तट बातें कहत बनाइ। कोऊ ऐसा दानलेतहै कौने सिखै पठाइ॥ हमनाहिं जानति तुमयों नाहीं रैहौ गारी खाइ। जोरस चाहौ सो रस नाहीं गोरस पियहु अघाइ॥ औरनसों लैलीजिये गिरिधर तब हमदेहिं बोलाइ। सूरश्याम कत करत अचगरी हमसों कुँवरकन्हाइ॥७॥ नट ॥ दानलेहु देहु जान काहेको कान्ह देतहौ गारी। जो कोऊ कह्यो करैरी हठि याही मारग आवै ब्रजमारी॥ भली करी दधि माखन खायो चोली हार तोरि सब डारी। जोबन दान कहूं कोउ माँगत यह सुनि लाजन मारी॥ होत अवार दूरि घर जैवे पैयां लागैं डरतिहैं भारी। हमहि तुमहि कैसो झगरो सूर सुजान हम गँवारी॥८॥ भैरव ॥ भोरहिते कान्ह करत मोसों झगरो। औरन छांडि परे हठ
हमसों दिनप्रति कलह करत गहि डगरो॥ आन वोहनी तनक नहिंदैहौँ ऐसेहि छीनि लेहु वरु सगरो। सब कोऊ जात मधुपुरी वेचन कौने दियोदिखावहुकगरो॥ अंचल ऐंचि ऐंचि राखतहौ जान अब देहु होतहै दगरो। मुख चूमति हँसि कंठलगावति आपुहि कहति न लाल अचगरो॥ सूरसनेह ग्वारि मन अटक्यो छांडहुदियो परत नहिं पगरो। परममगनह्वै रही चितै मुख सबहीते भाग याहीको अगरो॥९॥ कान्हरो ॥ दान लेहौं सब अंगनिको। अति मद गलित तालफलते गुरु इनि युग उरोज उतंगनिको॥ खंजन कंज मीन मृग सावक भवँर जवर भुवभंगनिको। कुंदकली बंधूप विंबफल वर ताटंक तरंगनिको॥ कोकिल कीर कपोत किसलता हाटक हंस
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सूरसागर।
