पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३४१

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(२४८) सूरसागर। युवतिन तनु विसरायो॥३१॥ सुही ॥ ब्रज युवती सुनि मगन भई । यह वानी सुनि नंदसुवन मुख मन व्याकुल तन शुधीगई॥को हम कहां रहति कहां आई युवतिनके यह सोच परयो । लागी काम नृपतिकी सांटी जोवन रूपहि आनि अरयो॥ तृपितभई तरुणी अनंगडर सकुचि रूप जोव नहिं दियो । सूरश्याम अब शरन तुम्हारे हृदय सबनि यह ध्यान कियो॥३२॥जयतश्री ॥ मन यह कहात देह विसरायो। यह धन तुमहीको साचे राख्यो तेहि लीजै सुखपायो । जोवनरूप नहीं तुम लायक तुमको देत लजाति । ज्यों बारिध आगे जल किनिका विनय करति एहि भांति ॥ अमृत रस आगे मधुरचक मनहिं करत अनुमान । सूरश्याम सोभाकी सीवा को पटतर को आन ॥३३॥ अंतर्यामी जानिलई । मनमें मिले सवनि सुख दीन्हों तब तनुको कछु सुरति भई ॥ तब जान्यो बनमें हम ठाढी तनु निरख्यो मन सकुचि गई।कहति परस्पर आपुसमें सब कहा रही हम काहि रई ॥ श्याम विना ये चरित करै को यह कहिकै तनु सौंपदई । सूरदास प्रभु अंतर्यामी गुप्तहि जोवनदान लई ॥३४॥ रामकली ॥ यह कहि उठे नंदकुमार । कहा ठगीसी रही बाला परयो कौन विचार ॥दानको कछु कियो लेखो रही जहां तहां सोचि । प्रगट करि हमको सुनावहु मेटि निहिदै दौचि।।बहुरि यहि मग जाहु आवहु राति सांझ सकार। सूर ऐसो कौन जो पुनि तुमहि रोक नहार॥३५॥गूजरी॥हमहि और सो रोकै कौन । रोकनहारो नंदमहर सुत कान्ह नाम जाकोहै तौन॥ जाकेबलहै काम नृपतिको ठगत फिरतयुवतिनको जोन। टोनाडारदेत शिर ऊपर आपुरहत ठाढो वै मौन।।सुनहु श्याम ऐसी न बूझिए बानि परीतुमको यह कौन । सूरदास प्रभु कृपाकरहु अव के सेहु जाहि आपने भौन ॥३६॥ सुही ॥ दान मानि घरको सब जाहु। लेखो मैं कहुँ कहुँ जानतहीं तुम समुझे सब होत निवाहु॥ पछिलो देहु निवारि आज सब पुनि दीजो जब जानौ कालि । अब मैं कहत भलीहौं तुमसों जो तुम मोको मानौ ग्वालि ॥ वृंदावन तुम आवत डरपति मैं देहों तुमको पहुँचाइ । सुनहु सूर त्रिभुवन बश जाके सो प्रभु युवतिनके वशआइ ॥ ३७ ॥ को जानै हरि चरित तुम्हारे। जब हूं दान नहीं तुम पायो मन हरिलिये हमारे॥ लेखो करि लीजै मनमोहन दूधदह्यो कछु खाहु ।सदमाखन तुम्हरेहि मुख लायक लीजैदान उगाहु।तुम खैहौमाखन दधि मोहन हम सब देखि देखि मुख पावै । सुरश्याम तुम अब दधि दानी कहि कहि प्रगट सुनावै ॥ ३८॥ गुंड ॥कान्ह माखन खाहु हम सब देखें । सब दधि दूध ल्याई अवटि अबहि हम खाहु तुम सफल कार जन्म लेखौ। सखा सब बोलि बैगरि हरि मंडली वनहिके पात दोना लगाये । देत दधि परुसि ब्रजनारि जेवत कान्ह ग्वाल सँग बैठि अति रुचि चढ़ाये । धन्यदधि धन्य माखन धन्य गोपिका धन्य राधा वश्यहै मुरारी। सूर प्रभुके चरित देखि सुरगन थकित कृष्ण संगसुख करति घोषनारी३९॥जतश्री॥ माखन दधि हरि खात ग्वाल सँग । पातनिके दोना सबके कर लेत पतोखनि मुख मेलत रंग। महकिनते लैलै परुसतिहैं हर्ष भरी ब्रजनारा यह सुख तिहूं भुवन कहुँ नाही.दधि जेवत बनवारि॥ गोपी धन्य कहति आपुनको धन्य दूध दधि माखन । जाको कान्ह लेत मुख मेलत कियोसवान संभाषन ॥ जो हम साध करति अपने मन सो सुख पायो नीके । सूरश्याम पर तन मन वारति आनँद जी सबहीके ॥ ४० ॥ देवगंधार ॥ गोपिका अति आनँदभरी । माखन दधि हरिखात प्रेमसों निरखति नारि खरी ॥ कर लेले मुख परस करावत उपमा वढी सुभाइ । मानहु कंज मिलतहूं शशिको लिये सुधा करौकरआइ। जाकारण शिव ध्यान लगावत शेष सहसमुख गावत । सोई सूर प्रगट ब्रजभीतर राधा मनहि चुरावत ॥४१॥ रामकली ॥ राधासों माखन हरि माँगत । औरनिकी