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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३४१

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सूरसागर।


युवतिन तनु विसरायो॥३१॥ सुही ॥ ब्रज युवती सुनि मगन भई। यह वानी सुनि नंदसुवन मुखमन व्याकुल तन शुधीगई॥ को हम कहां रहति कहां आई युवतिनके यह सोच परयो। लागी काम नृपतिकी सांटी जोबन रूपहि आनि अरयो॥ तृषितभई तरुणी अनंगडर सकुचि रूप जोबनहिं दियो। सूरश्याम अब शरन तुम्हारे हृदय सबनि यह ध्यान कियो॥३२॥ जयतश्री ॥ मन यह कहति देह विसरायो। यह धन तुमहीको सचि राख्यो तेहि लीजै सुखपायो॥ जोबनरूप नहीं तुम लायक तुमको देत लजाति। ज्यों बारिध आगे जल किनिका विनय करति एहि भांति॥ अमृत रस आगे मधुरचक मनहिं करत अनुमान। सूरश्याम सोभाकी सीवा को पटतर को आन॥३३॥ अंतर्यामी जानिलई। मनमें मिले सबनि सुख दीन्हों तब तनुको कछु सुरति भई॥ तब जान्यो बनमें हम ठाढी तनु निरख्यो मन सकुचि गई।कहति परस्पर आपुसमें सब कहा रही हम काहि रई॥ श्याम बिना ये चरित करै को यह कहिकै तनु सौंपदई। सूरदास प्रभु अंतर्यामी गुप्तहि जोबनदान लई॥३४॥ रामकली ॥ यह कहि उठे नंदकुमार। कहा ठगीसी रही बाला परयो कौन विचार॥ दानको कछु कियो लेखो रही जहां तहां सोचि। प्रगट करि हमको सुनावहु मेटि निहिदै दौचि॥ बहुरि यहि मग जाहु आवहु राति सांझ सकार। सूर ऐसो कौन जो पुनि तुमहि रोक नहार॥३५॥गूजरी ॥ हमहि और सो रोकै कौन। रोकनहारो नंदमहर सुत कान्ह नाम जाकोहै तौन॥ जाके बलहै काम नृपतिको ठगत फिरत युवतिनको जौन। टोना डरि देत शिर ऊपर आपुरहत ठाढो ह्वै मौन॥ सुनहु श्याम ऐसी न बूझिए बानि परी तुमको यह कौन। सूरदास प्रभु कृपाकरहु अब कै सेहु जाहि आपने भौन॥३६॥ सुही ॥ दान मानि घरको सब जाहु। लेखो मैं कहुँ कहुँ जानतहौं तुम समुझे सब होत निवाहु॥ पछिलो देहु निवारि आज सब पुनि दीजो जब जानौ कालि। अब मैं कहत भलीहौं तुमसों जो तुम मोको मानौ ग्वालि॥ वृंदावन तुम आवत डरपति मैं दैहों तुमको पहुँचाइ। सुनहु सूर त्रिभुवन बश जाके सो प्रभु युवतिनके वशआइ॥३७॥ को जानै हरि चरित तुम्हारे। जब हूं दान नहीं तुम पायो मन हरिलिये हमारे॥ लेखो करि लीजै मनमोहन दूधदह्यो कछु खाहु। सदमाखन तुम्हरेहि मुख लायक लीजै दान उगाहु॥ तुम खैहौ माखन दधि मोहन हम सब देखि देखि मुख पावैं। सुरश्याम तुम अब दधि दानी कहि कहि प्रगट सुनावैं॥३८॥ गुंड ॥कान्ह माखन खाहु हम सब देखैं। सद्द दधि दूध ल्याई अवटि अबहि हम खाहु तुम सफल करि जन्म लेखौं॥ सखा सब बोलि बैठारि हरि मंडली वनहिंके पात दोना लगाये। देत दधि परुसि ब्रजनारि जेवत कान्ह ग्वाल सँग बैठि अति रुचि चढ़ाये। धन्यदधि धन्य माखन धन्य गोपिका धन्य राधा वश्यहै मुरारी। सूर प्रभुके चरित देखि सुर गन थकित कृष्ण संग सुख करति घोषनारी॥३९॥ जैतश्री ॥ माखन दधि हरि खात ग्वाल सँग। पातनिके दोना सबके कर लेत पतोखनि मुख मेलत रंँग॥ मटुकिनते लैलै परुसतिहैं हर्ष भरी ब्रजनारी। यह सुख तिहूं भुवन कहुँ नाहींं दधि जेंवत बनवारि॥ गोपी धन्य कहति आपुनको धन्य दूध दधि माखन। जाको कान्ह लेत मुख मेलत कियो सबनि संभाषन॥ जो हम साध करति अपने मन सो सुख पायो नीके। सूरश्याम पर तन मन वारति आनँद जी सबहीके॥४०॥ देवगंधार ॥ गोपिका अति आनँदभरी। माखन दधि हरिखात प्रेमसों निरखति नारि खरी॥ कर लैलै मुख परस करावत उपमा बढी सुभाइ। मानहु कंज मिलतहूं शशिको लिये सुधा करौ करआइ॥ जाकारण शिव ध्यान लगावत शेष सहसमुख गावत। सोई सूर प्रगट ब्रजभीतर राधा मनहि चुरावत॥४१॥ रामकली ॥ राधासों माखन हरि माँगत। औरनिकी