पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३४२

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दशमस्कन्ध-१० (२४९) मटुकीको खायो तुम्हरो कैसे लागत ॥ लैआई वृपभानुसुता हँसि सदलोनी है मेरो। लै दीन्हों अपने कर हरिमुख खात अल्प हँसि हेरो। सवहिनते मीठो दधिहे यह मधुरे कह्यो सुनाइ। सूरदास प्रभु सुख उपजायो ब्रज़ललना मनभाइरामकली|| मेरेदधिको हरिस्वाद नपायो।जानत इन गुजरिनिको सोलयो छिडाइ मिलि ग्वालनि खायों। धौरी धेनु दुहाइ छानिपय मधुर आंच मैं अवटिसिरायो॥ नई दोहनी पोंछ पखारी धरि निर्धूम खीरनि परतायो। तामें मिाले मिश्रित मिश्रीकरि देकपूर पुट जावन नायो। सुभग ढकनिया ढापि वांधि पट जतन राखि छीके समदायो । हौं तुम कारणं मैं आई गृह मारगमें नकहूं दरशायो । सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि कियो कान्ह ग्वालनि मन भायो॥ ४२ ॥ नट | गोपिन हेतु माखन खात । प्रेमके वश नंदनंदन नेक नहीं अघात । सबै मटुकी भरी वैसेहि प्रेम नहीं सिरात । भाव हृदये जान मोहन खात माखन जात ॥ एकनिकर दधि दूध लीने एकनि करि दधिजात । सूर प्रभुको निरखि गोपी मनहि मनहि सिहात॥ १३ ॥ विहागरो। गोपी कहति धन्य हम नारि धन्य दूध धनि दधिधनि माखन हम परुसति जेंवत गिरिधारि।। धन्य घोप धनि निशि धनि वह धनि धनि गोकुल प्रगटे वनवारि । धन्य सुकृत पाछिलो धन्य धानेधन्य नंद यशुमति महतारि ॥ धनि धनि ग्वाल धन्य वृंदावन धन्य भूमि यह अति सुखकारि । धन्य दान धनि कान्ह मॅगया धन्य सूर तृण दुम वन डारि ॥ ४४ ॥ नट ॥ गण गंधर्व देखि सिहात धन्य बनललनानि करते ब्रह्म माखन खात ॥ नहीं रेख नरूप नहिं तनु वरन नहिं अनुहारि । मात पितु दोऊ न जाके हरतमरत नजारि॥ आपु करता आपु हरता आपु त्रिभुवन नाथ । आपुही सव घटके व्यापी निगम गावत गाथ।।अंगप्रति प्रति रोम जाके कोटि कोटे ब्रह्मडाकीटब्रह्म प्रयंत जल थल इनहिते यह मंड ॥ विश्व विश्वंभरन एई ग्वालसंग विलास । सोइ प्रभु दघि दान मांगत धन्य सूरजदास ॥४५॥ रामकली ॥ कसहेतु हरि जन्म लियो । पापहि पाप धरा भई भारी तब हम सवनि पुकारकियो ।शेपसैन जहँ रमा संग मिलि तहां अकाश भई यह वानी । असुर मारि भुवभार उतारौं गोकुल प्रगौं आनी | गर्भदेवकीके तनु धरिहौं यशुमतिको पय पीहौं । पूरव तप बहु कियो कप्टकार इनिको बहुतऋनीहौं।यह वानी कहि सूरसुरनको अब कृष्णा अवतार।कह्यो सबनिबनज न्म लेहु सँग हमरे करहु विहारगौरी ॥ ब्रह्म जिनिहि यह आयसु दीन्हो तिन तिन संग जन्म लियो ब्रज में सखी सखा करि परगट कीन्हों।गोपी ग्वाल कान्ह दोइ नाहीं ये कहनेक नन्यारे।जहां जहाँ अवतार धरत हरिये नहिं नेक विसारे॥येकै देह विहार करि राखे गोपीग्वाल मुरारि । यह सुख देखि सूरके प्रभु कोथकित अमर सँगनारि॥४७॥गौरीअमरनारिस्तुति कर भारी।एकनिमिप वनवासिन को सुख नहिं तिहुँ भुवन विचारी ॥ धन्य कान्ह नटवर वपु काछे धन्य गोपिका नारी । एक एकते गुण रूप उजागरि श्याम भावती प्यारी ॥ परुसति ग्वारि ग्वार सब जेंवत मध्य कृष्ण सुखकारी । सूरझ्याम दधि दानी कहि कहि आनंद घोपकुमारी ॥ ४८ ॥ बिलावल ॥ धन्य कृष्ण अवतार ब्रह्म लियो । रेख नरूप प्रगट दरशन दियो । जल थलों कोउ और नहीं वियो । दुष्टन वधि संत निको सुख दियो ॥१॥ जो प्रभु नरदेही नहिं धरते । देवै गर्भ नहीं अवतरते ॥ कंससोक कैसे उर टरते । मात पिता दुरितक्यों हरते॥२॥जो प्रभु ब्रजभीतर नहिं आवै। नंद यशोदा क्यों सुख पावे।। पूरवतप कैसे प्रगटावे । वेदवचन कैसे ठहरा।।३।। जो प्रभु भेप धेरै नहि बालक । कैसे होइ पूतना पालक ।। अंगुठा पिवंत शकट संहारक । तृणा अकास शिलापर डारक ॥ ४ ॥ जो प्रभु ब्रजमाख