पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३४४

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दशमस्कन्ध-१० (२९१). | लेकरि तुमहि छपायो कहा कहति यह दोष तुम्हारो॥ अजहुँ कहाँ हैं हम अनतहि तुम अपनो मंन लेहु । अब पछितानी लोकलाज डर हमहिं छांडि तैं देहु । घटती होइ जाहिते अपनी ताको कीजै त्याग । धोखे कियो वास मनभीतर अब समुझे भई जाग ॥ मन दीन्हो मोको तब लीन्हों मन लैहों मैं जाउ।सूरश्याम ऐसी जनि कहिये हम यह कही सुभाउ॥१८॥तुमहि विना मनधृक अरु धृकघर । तुमहि विना धृक धृक माता पितु धृकधृक कुलकानि लाजडधिकसुत पतिधृक जीवन जगको धृक तुमविन संसार ॥धृक सो दिवस पहर घटिका पल धृक धृक यहकहि नंदकुमार ॥ धृक धृक श्रवन कथा विनु हरिके धृक लोचन विनरूप । सूरदास प्रभु तुम बिनु घर यौवन भीत रके कूप ॥ ५९॥ अथ दानलीला॥ राज्ञीहठीली ॥ सुनि तमचुरको सोर घोषकी वागरी । नवसत साजि शृंगारचली बननागरी 10 नवसतसाजिशृंगार अंग पाटवर सोहै । एकते एक विचित्ररूपत्रिभुव न मनमोहै ।। इंदा विंदा राधिका श्यामा कामा नारि । ललिता अरु चंद्रावली सखिनमध्य सुकु मारि॥२॥ कोउ दूध कोउ दह्योमह्यो लैचली सयानी । कोउ मटुकी कोउ माट भरी नवनीत म थानी ॥ गृह गृहते सव सुंदरी जुरि यमुना तटजाइ । सबनि हरप मनमें कियो उठी श्यामगुणगा इ॥३॥ यह सुनि नंदकुमार सैनदै सखा बोलाए।मन हरपित भए आपु जाइ सव ग्वाल जगाए। यह कहिकै तव साँवरे राखे द्रुमंनि चढ़ाइ । और सखा कछु संगलै रोकि रहे मगजाइ ॥ ४॥ येक सखी अवलोकतही सव सखी वोलाई । यहि वनमें इकवार लूटि हम लई कन्हाई ॥ तनक फेर फि रिआइए अपने सुखहि विलास । यह झगरो सुनि होइगो गोकुलमें उपहास ॥५॥ उलटि चली तव सखी तहां कोउ जान नपावै । रोकि रहे सब सखा और वातनि विरमावै । सुवल सखा तव यह कह्यो तुम ग्वालिनि हरियोग। कैसे वात दुरतिहै तुम उनके संयोग ॥६॥ किनह शृंग कोउ वेनु किनहु वनपत्र वजाये ॥ छांडि छांडि द्रुमडार कूदि धरनी सिधाये । सखिनमध्य इत राधिका सखामध्य बलवीर । झगरो ठान्यो दानको कालिंदीके तीर।कहत नंदलाडिलोदिनारिन दधिदान कान्ह ठगढे वृंदावन । और सखा हरि संगवच्छ चारत अरु गोधन। वै वडे नंदके लाडिले तुम वृषभानुकुमारिदियो मह्यो के कारने कतहि वढावति राशिकहत ब्रजनागरी॥८॥सूधे गोरस मागि कछू लै हमपैखाहू। ऐसे ढीठ गवार कान्ह वरजत नहिं काहू।एहि मग गोरसलै सवै दिन प्रति आवहि जाहि। हमहि छाप देखरावहू दान चहत केहि पाहिकहत नँदलाडिले॥९॥इते मान सतरात ग्वारि हम जान नदेहीअनउत्तर कहा कहति तुमहिवश कान्ह भयेहैं।अब तुम ऐसीजनिकरौ यांदा वन बीच । पुहुमि माहँ टरकाइहै मचिहै गोरस कीच ॥ कहत ब्रजनागरी ॥ १० ॥ कान्ह अचगरयो देत लेहु सब आंगनवारी । कापहि माँगत दान भए करते अधिकारी ॥ मात पिता जैसे चलें तैसे चलिये आपु । कठिन कंस मथुरा वसै कोकहि लेइ संतापु ॥ कहत नंदलाडिले ॥११॥ कहै नजाइ उताल जहां भूपाल तिहारो। हो वृंदावन चंद्र कहा कोउ करै हमारो ॥ शेपसहसफन नाथिज्यों सुरपति करे निरंस । अग्नि पान किये सांवरे केतिक वपुरो कंस ॥कहतव्रजनागरी।।१२॥जाके तुम सुकुमार ताहि हम नकि जाने । जो पूछौ सति भाउ आदि अद्यावलिभाने ॥ वातनि वडे नहूजिये सुनहु श्याम उतपाति । गर्भसाटि यशुदा लियो तव तुम आएराति।।कहत नंदलाडिले॥१॥अरी ग्वारि मैमंत वचन बोलत जोअनेरो। कब हरि बालक भए गर्भ कब लियो वसेरो। प्रबल असुर पहुमी वढे विधि कीन्हे ये ख्याल। कमलकोस अलिभोर ए त्यों तुम भुरयो गोपाल। कहत ब्रजनागरी॥१४॥तुमभुरए हौ नंद कहतहैं तुमसों ठोटा। दधि'