ओद नके काज देहधरि आए छोटा॥ गढि गढि मिलवत लाडिले भली नहीं यहश्यामा। या धोखे जिनि भूलहू हम समरथकी बाम॥ कहत नंद लाडिले॥१५॥ तुम समरथकी वाम कहा काहूको करिहौ। चोरी जाती वेचि दान सब दिनको भरिहौ॥ जो प्रभु देह नधरे दीन खल कौन उधारे कसकेशको गहै विघ्न ब्रजको को टारै॥१६॥ कहा निगम कहि ध्यावतो कहा मुनीजन धरते ध्यान। दरशपरस विननाम गुन को पावै पद निर्वान॥ कहत ब्रजनागरी॥१६॥ जोपै दरशन परस
नाम गुण केलि कन्हाई। तुम निर्भयपद हेत वेदविधि इहै बताई॥ योग युक्ति तप ध्यावही तिनगति कौन दयाल। जलतरंग ज्यों मीनगति विधे कर्मके जाल॥ कहत नँदलाडिले॥१७॥ जटाभस्म तनुदहै वृथा करि कर्म बंधावै। पुहुमि दाहिनी देहि गुफा बसि मोहिं नपावै॥ तनिअभिमान जोगा वहीं गदगदसुरहि प्रकाश। तासु मगनहौ ग्वालिनी ता घट मेरो वास॥ कहत ब्रजनागरी॥१८॥ जूपै चाहिलै श्याम करत उपहास घनेरो। हम अहीरि गृह नारि लोक लज्जाके जेरो॥ तादिन
हमभई बावरी दियो कंठते हार। तबते घर घेरा चल्यो श्याम तुम्हारो जार॥ कहत नंदलाडिले॥१९॥ सखा सबनि मिलि कह्यो ग्वारि एक बात सुनावै। तो तनु ज्योति सुभाउ रूप उपमाको पावै॥ गुप्त प्रीति विधना करी रसिक साँवरेयोग। यह विचार सुनि ग्वारिनी न्याउ हँसैगो लोग। कहत ब्रजनागरी॥२०॥ऐसी बातैं कान्ह कहत हमसों काहेते। चोरी खाते छांछि नयन भरिलेत गहेते॥ देत उरहनो रावरे बछरा दावरि जोरा। जननी ऊखल बांधती हमही देती छोरि॥ कहत नंदलाडिल॥२१॥ बालकरूप अंजान कहा काहू पहिचानै। अनउत्तर कोउकहै भली अनभली नमानै॥ वह दिन सुमिरौ आपनो न्हानि यमुनके पानि। सब मिलि मो हाहा करी वस्त्र हरयो मैं जानि॥ कहत ब्रजनागरी॥२२॥ बहुत भएहौ ढीठ देत मुख ऊपर गारी। जेहि छाजै तेहि केहौ इहां कोउ दासि
तुम्हारी॥ तुमसों अब दधिकारने कौन बढ़ावै रारि। काहेको इतरातहौ रोकि पराई॥ नारि कहत नंदलाडिले॥२३॥ लियो उपरना छीनि दूरि डारनि अटकायो। दियो सखनि दधि वांटि माट पुहुमी ढरकायो॥ फेंट पीतपट साँवरे करपलाशके पात। हँसत परस्पर ग्वाल सब विमल विमल दधि खात॥ कहत ब्रजनागरी॥२४॥ कान्ह बहाँरि न देहु दही काहेको माते। वसिये येकहि गाउँ कानि राखतिहैं ताते॥ तब नकछू बनिआईहै जब विरचैं सब नारि। लरिकनिके वर करत
यह पुनि धरिहैं लाड उतारि॥ कहत नँदलाडिले॥२५॥ गहि अंचल झकझोरि तोरि हारावलि डारी। मटुकी लई उतारि मोरि भुज कंचुकि फारी॥ लैलै ठाढे ग्वार सब दोना एक एक हाथ। खात जात दधि दूध लै हँसत मिलै इक साथ॥ कहत ब्रजनागरी॥२६॥ झीनी कामरि कान कान्ह ऐसी नहिं कीजै। काच पोत गिर जाइ नंदघर गयौ नपूजै॥ विनही लीने आपियै सो कामारको तोल। लाख मुँदरिया जाइगी कान्ह तुम्हारो मोल॥ कहत नंदलाडिले॥२७॥ शिव विरंचि सनकादि आदितिनहूं नहिं जानी शेश सहसफन थक्यो निगमकी रति न बखानी॥ तेरी सों सुनि ग्वालिनी इहै मेरे मन माह। भुवन चतुर्दश देखिए वा कामरि की छांह। शेष नपायो अंत पुहुमि जाकी फनवारी॥ पवन बुहारत द्वार सदा शंकर कुतवारी॥ धर्मराज जाकी पवरि सनकादिक प्रतिहार। मेघ छयान वैकोटि सब जल ढोवहिं प्रतिवार॥ कहत ब्रजनागरी॥२८॥ जिनहि इतो परताप गाइ सो कतहि चरावै। परद्वाराके जाइ आपु कत लज्जापावै॥ घरके वाढे रावरे बातें कहत बनाइ। ग्वारनिपै लै खातहैं जूठी छाक छिनाइ॥ कहत नंदलाडिले॥२९॥ धेनु रूपमम देह करत कौतूहल न्यारे। गोकुल गुप्त विलास जानि को सकै हमारे॥ यावृंदावन वारिनी जित सित अमृत वेलिहूता। लोकमें गाइये
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सूरसागर।
