पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(२६०) सूरसागर। - नंदग्रामको मारग वूझै है कोऊ दधि बेचनहारी । सुनहू श्याम कठिन तनुगारै विधुवदनी अरु हाट कठारी ॥ अब याको सुत ताहि विरंचै जाहि विरंचि शीशपर धारी । कमल कुरंग चलत वरुना भप राख्यो निकट निखंग सँवारी ॥ गति मराल शावक तापाछे जावक मुक्ता सुनत विसारी। सूरदास प्रभु कहत बनै नहिं सुख संपति वृषभानु दुलारी ॥ ११ ॥ विलावल शिरमटकी मुखमौन गही। भ्रमि भ्रमि विवसभई नवग्वारिन नवल कान्हके रस उमही।। तनुकीसुधि आवति जव मनही तबहि कहति को लेत दही । द्वारेआइ नंदके बोलति कान्ह लेहु किन सरस मही ॥ इतउत हैआवति फिरि इहँई महरि तहां लांग द्वाररही । अवर बोलावत ताहि नहेरत बोलति आनि नंद दरही ॥ अंग अंग यशमति तेहि चरची कहा करति यह ग्वारि वही । सुनहु सुर यह ग्वारि भ्रमानी कबकी एही ढंग रही ॥ १२ ॥ रामकली ॥ कबकी मह्यो लिये शिरडोले ॥ झूठेही इत उत फिरि आवै इहां आनि पै बोलै ॥ मुँहसो भरी मथनियां तेरी तोहि रटत भई सांझ। जानतिहौ गोरसको लेवो याही वाखरि मांझ ॥ इतधौं आइ बात सुनि मेरी कहे विलग जिनि माने । तेरे घरमे तूही सयानी और वेचि नाहिं जाने ॥ भ्रमतहि भ्रमत भ्रमिगई ग्वालिनि विकलभई वेहाल । सूरदास प्रभु अंतर्यामी आइ मिले गोपाल ॥ १३॥ भयो मन माधवकी अवसेर । मौनधरे मुख चितवति ठाढी ज्वाव नआवे फेर ॥ तव अकुलाइ चली उठि वनको बोले सुनत नटेर। विरह विवस चहुंधा भरमति है श्याम कहाकियो झेर॥अवहूं वेगि मिलो नंदनंदन दान करो निरवेर । सूरश्याम अंकम भरिलीन्ही दूरि कियो दुख ढेर॥१४॥विलावल ॥सांची प्रीति जानि हरिआए। पूरन नेह प्रगट दरशाए।लई उठाइ अंक भरि प्यारी ।भ्रमिभ्रमि श्रम कीन्हों तनुभारी।मुख मुख जोरि अलिंगन दीन्होंवार बारभुज भरि भरि लीन्हों।वृंदावन धनकुंज लतातर। श्यामाश्याम नवल नवला वर ॥ मनमोहन मोहनी सुखकारी । कोककला गुण प्रगटे भारी॥ छूटेबंद अलक शिरछूटे। मोतिनहार टूटि सुख लूटे ॥ सूरझ्याम विपरीत बढाइ । नागरि सकुचि रही लपटाइ ॥ १५॥ रामकली ॥ यह कहि मौन साध्यो ग्वारि । श्याम रस घट पूरि उछलित बहुरि धन्यो सँभारि ॥ वैसेही ढंग बहार आई देह दशाविसारि । लेहुरी कोऊ नंदनंदन कहै पुकारि पुकारि सखीसों तब कहति तूरी को कहांकी नारि । नंदके गृह जाँउ कित है जहां वै वनवारि॥ दोख वाको चकृत भई सखि विकल भ्रम गई मारि । सूरश्यामहि कहि सुनाऊं गए शिरकहा डारि ॥१६॥ नट ॥ श्यामाश्याम करत विहार । कुंजगृह रचि कुसुम शैया छवि वरनिको पार ॥ सुरति सुख करि अंग आलस सकुचि बसन सँभारि । परस पद भुज कंठ दीन्हे बैठेहैं वरनारि ॥ पीत कंचन वरन भामिनि श्याम तनु अनुहारि । सूर घन अरु दामिनी मिलि प्रगट सुख विस्तारि॥ १७ ॥ कान्हरो ॥ राधा वसन श्याम तनु चीन्ही । सारंग वदन विलास विलोचन हरि सारंग जानि रति कीन्ही ॥सारंग वचन कहत सारंगसों सारंगरिपुहै राखति झीनी । सारंगपानि कहत रिपु सारंग सारंग कहा कहति लियो छीनी॥सुधापान कर कुचनिकी विधि रह्यो शेष फिरि मुद्रा दीन्ही । सूरसुदेश आहि रतिनागर भुज आकर्षि नाम कर लीन्ही ॥ १६॥ तुमसों कहा कहौं सुंदरपन । या ब्रजमें उपहास चलतहै सुनि सुनि श्रवन रहति मनही मन ॥ जादिन सवनि वछरु नोईकरि मो दुहिदई धेनु वंसीवन । तुम गही वाह सुभाइ आपने हों चितई हसि नेक बदनतन। तादिनते घर मारग जित तित करत चवाउ सकल गोपी जन । सूरश्यामसों सांच पारिहौं यह पतिवरत सुनहु नँदनंदन ॥ १९॥ भैरव ॥ कहा कहौं सुंदर घन तुमसों घेराइहै।