पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३५७

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(२६) सूरसागर। कानिहि मानत तुमहिं न जानतहैं जगस्वामी।। तुम्हरो नाम लेत सकुचतहैं ऐसे ठौर रहीहौं आनी। गुरु परिजनकी कानि मानियो वारंवार कही मुख बानी ।। कैसे संग रहौं विमुखनके यह कहि कहि नागरि.पछितानी। सूरदास प्रभुको हृदय धरि गृहजन देखि देखि मुसकानी ॥५०॥धनाश्री ॥ जव प्यारी मन ध्यान धरयो । पुलकित र रोमांच प्रगट भए अंचर टरि मुख उपरि टरयो । जननी निरखि रही ता छविको कहन चहै कछु कहि नहिं आवै । चकृतभई अंग अंग विलोकत दुख सुख दोऊ मन उपजावै।पुनि मन कहति सुता काहूकी कीधौं यह मेरीहै जाई। राधा हरिके रंगहि राची जननी रही जियै भरमाई । तब जानी मेरी-यह बेटी जिय अपने तव ज्ञान कियो । सूरदास प्रभु प्यारीकी छवि देखि चहति कछु शीष दियो ॥ ५५ ॥ सोरठ ॥ राधा दधिसुत क्यों न दुरावति । हौंजू कहति वृषभानुनंदिनी काहेको तू जीव सतावति।।जलसुत दुखी दुखीहै मधुकर द्वै पंछी दुख पावत । सूरदास सारंग केहिकारण सारंग कुलीह लजावत ॥१२॥ विहागरो.। मेरी सिख श्रवन काहे न करति । अजहूं भोरी भई रैहै कहति तोसों डरति॥ शशिनिरखि मुख चलत नाहिंन नयन निरखि कुरंग । कमल खंजन मीन मधुकर होतहै चितभंग ॥ देखिनासा कार लज्जित अधर.दशन निहारि। विंव अरु वधूप बिद्रुम दामिनी डरभारि ॥उर निरखि चक्रवाक विथके कटि निरखि वन राज.। चाल.देखि मराल भूले चलत तब गजराज ॥ अंग अंग अवलोकि सोभा मनहि देखिविचा रि। सूरमुख पटदेति काहेन वरष दश युग भारि ॥५३॥ सूहा विलावल ॥अब राधा तू भई सयानी। मेरी शीष मानि हृदय धरि जहां तहां डोलति बुद्धि अयानी ॥ भई लाजकी सामा तनुमें सुनि यह बात कुँवरि मुसकानी। हँसति कहा मैं कहति भली तोहि सुनत नहीं लोगनकी बानी आजुहिते कहुँ जाननदैहाँ मा तेरी कछु अकथ कहानी।सूरश्याम के संग न ही जाकारण तू मोहिं सुगानी॥ ॥५४॥ टोडी ॥ भलीबात बाबा आवनदे। कान्ह लगाइ देति मोहिं गारी ऐसे बड़े भए कवते वे॥ कालि मोहिं मारगमें रोकी जातरही सखियनसँग दधिले ॥ कहन लगे मेरो देहु खिलौना तादि नलै भागी चुराइकै ॥ छठि आ मोहिं कान्ह कुअरसों तिनको कहति प्रीति सों सोहै। सर जननि सुनि सुनि यह वानी पुनि पुनि मुख निरखति विहँसतिहै ॥ ५५ ॥ गौरी ॥ बड़ीभई नहिं गई लार काई । वारेहीके ढंग आजुलों सदा आपनी टेक चलाई ॥ अवहीं मचलि जाइगी तब पुनि कैसे मोसों जाति बुझाई । मानी हारि न हरि मन अपने बोलिलई हँसिकै दुलराई ॥ कंठ लगाइ लई आत हितसों पुनि पुनि कहि मेरी रिसहाई । सूरदास अति चतुरराधिका राखिलई नीके चतुराई ॥५६॥ गुंडमलार॥ श्यामनग जानि हिरदै चुरायो । चतुर वर नागरी महामणि लखिलियो प्रियसखी संगनाहिन जनायो।कृपिनि ज्यों धरति धन ऐसे डिठ कियो मन जननि सुनिवातहास कंठ लायो। गांसदियो डारि कह्यो कुंवरि मेरी वारि सूर प्रभु नाम झूठे डरायो॥२७॥ कल्याण ॥ सखियन इहै । विचार परयो । राधा कान्ह एक भए दोऊ हमसों गोप करयो।। वृंदावनते अबहीं आई अति जिय हरष बढ़ाये। और भाव अंग छविऔर श्याम मिले मनभाये ॥ तब वह सखी कहति मैं बूझी मोतन फिरि हँसि हेरचो। जबाह कही सखि मिले तोहि हरि तब रिस कीर मुख फेरचो॥ औरे बात चलावन लागी मैं वाको पहिचानी । सूरश्यामके मिलत आजही ऐसी भई सयानी ।। ५८॥ सोरठ। सुनह सखी राधाकी बातोमोसों कहति श्याम, कैसे ऐसी मिलई घांतें।की गोरे की कारे रंग हरि की जोबनकी भोरेकी यहि गाउँ बसतकी अनतहि दिननि बहुत की थोरे की तू कहति | बात हँसि मोसों की बूझति सतिभाऊ । सपनेहूं उनको नहिं देखे वाके सुनहु उपाऊ॥ मोसों कही। A -