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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३७१

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सुरसागर।


अयानी काम परयो सब जोसों॥७॥ कान्हरो ॥ कहा काहूको दोष लगावै। निमिपौ कहा कहति कहो विधिसों कहा नैननि पछितावै॥ श्याम हितू कैसे करि जानति औरौ निठुर कहावे। क्षणमें और और अंग सोभा जो ए देखन पावे॥ जबहीं एकटक करि अवलोकत तबही वैझलकावै। सुरश्यामके चरित लखैको एई वैर बढ़ावै॥८॥ नट ॥ लहनी करम के पाछे। दियो आपनों लहै सोई मिलै नहिं पाछे। प्रगटहीहैं श्याम ठाढे कौन अंग केहि रूप। लह्यो काहू कहो मोसों श्यामहै ठगभूप॥ प्रेम जावक धनी हरिसे नैन पुट कह लेहि। अमृत सिंधु हिलोरि पूरण कृपा दरशन देहि॥ पाइ ऐसोई सखीरी लिखो जितनो भाल। सूर उत कछु कमी नाहीं छबि समुद्र गोपाल॥९॥ सुहीविलावल ॥ देख सखी अधरनकी लाली। मणि मरकतते सुभग कलेवर ऐसेहैं वनमाली॥ मनो प्रातकी घटा सांवरी तापर अरुन प्रकाश। ज्यों दामिनि विच चमकि रहतहै फहरत पीत सवास॥ कीधों तरुन तमाल वेलि चढि युग फलबिंब सुपाक्यो। नासा कीर आय मनों बैठो लेत वनत नहिं ताक्यो॥ हँसत दशन एक सोभा उपजत उपमा यदपि लजाइ। मनों नीलमणि पुट मुकुतागन वंदन भरि वगराइ॥ किधौं वज्रकन लाल नगनि खचि तापर विद्रुम पांति। किधौं सुभग वंधूप कुसुमपर झलकत जलकन कांति॥ किधौं अरुण अंवुज बिच बैठी सुंदरताई आई। सूर अरुण अधरनकी सोभा वर्णत वरनिनजाई॥१०॥ धनाश्री ॥ श्यामरूप देखनकी साध मेरी माई। कितनो पचिहारिरही देत नाहिं दिखाई॥ मनतौनि रखत सुअंग में रही भुलाई। मोसों यह भेद कहौ कैसे वहि पाई॥ आपुन अंग अंग विधो मोको बिसराई। बार बार कहत इहै तू क्यों नहिआई॥ अबहूं लैजात साध वाहि बोले लाई। सूरश्याम छबि आगाध निरखत भरमाई॥११॥ बिलावल ॥ सुनहु सखी मैं बूझति तुमको काहू हरिको देखेहै। कैसो तन कैसो रंग देखियत कैसी विधि करि भेषेहै॥ कैसो मुकुट कुटिल कच कैसे सुभग भाल भ्रुव नीकेहैं। कैसे नैन नाशिका कैसी श्रवणनि कुंडल पीकेहैं॥ कैसे अधर दशनदुति कैसी चुबुक चारु चित चोरतहै। कैसे निरखि हँसत काहू तन कैसे बदन सकोरतहैं। कैसो उरमालाहै सोभित कैसी भुजा विराजतहै। कैसे कर पहुँचीहै कैसी अँगुरिआराजतहै॥ कैसी रोमावली श्यामके नाभि चारु कटि सुनियतहै। कैंसी कनक मेखला कैसी कछनी यह मन गुनियतहै॥ कैसे जंघ जानु कैसे दोउ कैसे वदन खजानतिहै। सूरश्याम अंग अंगकी सोभा देखेको अनुमानतिहै॥१२॥ रामकली ॥ ऐसे सुने नंदकुमार। नख निरखि शशि कोटिवारत चरण कमल अपार॥ जानु जंघ निहारि रंभा करनि डारत वारि। काछनी पर प्राण वारत देखि सोभाभारि॥ कटि निराख तनु सिंह वारत किंकिनीजु मराल। नाभि पर हृद आपु वारत रोमावलि अलिमाल॥ हृदय मुकुतामाल निरखतवारिअवलि वलाक। करज कर पर कमलवारत चलति जहां तहां साक॥ भुजा पर वर नाग वारत गये भागि पताल। ग्रीवकी उपमा नहीं कहुँ लखति परम रसाल॥ चिवुकपर चित वारि हारत अधर अंबुज लाल। वंधूप विद्रुम विंब वारत तेभये वेहाल॥ वचन सुनि कोकिलावारत दशन दामिनि कांति। नाशिकापर कीर वारत चारु लोचन भांति॥ कंज खंजन मीन मृग सावकनिडारति वार। भ्रुकुटि पर सुर चाप वारत तरनि कुंडल हारि॥ अलक पर वारत अँध्यारी तिलक भाल सुदेस। सूर प्रभु शिर मुकुटधारे धरे नटवर भेष॥१३॥ सारंग ॥ ऐसी विधि नंदलाल कहत सुने माईरी। देखे जो नैन रोम रोम प्रति सुभाईरी॥ विधिनेद्वै नैन रचे अंग ठानि ठान्यो। लोचन नहिं बहुत दिये जानिकै भुलान्यो॥ चतुरता