पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३८०

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दशमस्कन्ध-१० (२८७) प्रगट बताइ देउ कहि झेरो ॥ अरुणश्वेत सित सुंदर तारे। पीतरंग पीतांवर धारे॥ नानारंग श्याम गुणकारी। सूरझ्याम रंग घोपकुमारी ॥८४॥ विहागरो ॥ श्यामसलोनरूपमें अरी मन अग्यो। ऐसेढ लटक्यों तहां ते फिरि नहिं मटक्यो बहुत जतन में करयो॥ज्यों ज्यों खैचति त्यों त्यों मगनहोत ऐसी धरनि धरयोमोसों वैर करत उनकी ह्यां देख्योजाइ ढरयो। ज्यों शिवछत दरशन रविपाये जेही गरनिगरयो । सूरदास प्रभुरूपथक्यो मन कुंजल पंक परयो । ८५ ॥ देसाप निशि दिना इनि नेननिकोरी नंदलालकी लागीरहे लालसाई। मुरलीरसतानभरी श्रवननरी जवतेरी परी कैसेहु टरति नहीं हृदयते विहारी यदुराई ।। कहाकहों तोसों यह सजनी मनमेरो लैगयो चोराई।। सुरश्यामको नाम धरों पुनि धरयो नजाइ सुधि नरहै तनुमाई ॥ ८६ ॥ देख सखी मेरोमन नरहै श्यामविना । अतिहि चतुर जान जाननि मनि वह छवि परमें भईलीना ।। अपनी दशा कहौंमें कासों वन वन डोलति रेनिंदिना । मनतो चोरि लियो पहिलेही झुरिझरिहै रही छीना॥वै मोहन मनहरत सहजही हरिले ताको करत हीना । सूरदास प्रभु रसिक रसीले बहुनायकहें नाउँजीना ॥८७॥ सारंग ॥ नैननि नीदी गईरी निशिदिन पल पल छतियां लाग्यो रहे धरको । उत मोहन मुख मुरली सुनत सुध्यो नरही इत घेरा घरको ॥ ननदी तीन दिये विनुगारी नैकह रहति सासु सपनेहू में आनि गोउति काननिमें लये रहे मेरे पाइनको खरको। निकसनहूं ना पाइयेरी कासों दुख काहिये देखहू नपाइयेरी सूरदास प्रभुके तन मेरो ज्यों ऐसो भयो जैसो हाथ पाथर तरको।।८८॥ मुघराई ।। मोहन मुरली वजाइहो रिझाई । तिनही मोहरीि हो मोहीरी सांझ समै देखे कन्हाईआनि निकसे मेरे आंगनबै तबते चितवत यह पीर भईरी । काकी देह गेह सुधि काके हेहरि कैसे मैं होरी ॥ तेरे कहे कहतिहीं वानी में हरिहाथ विकानी तबते एक टक जोइरहीरी । मिलत नहीं नहिं संगते त्यागत कहाक बूझो तोहीरी । सुरश्याम तबते नहिं आये मन जयते हरिलीन्हो वेतो ऐसेहें द्रोहीरी ॥ अडानी ॥८९॥ ब्रजकी खोरि ठाडो साँवरो टोटोना तवही मोहीरी ही मोहीरी। जवते में देखे श्यामसुंदररी चलि नसकत पगदइहै काम नृप द्रोहीरी ॥ कोलआइ कौने चरन चलाइ कोने वहियां गही सोपों कोहीरी। सूरदास प्रभु देखे सुधि रही नहिं अति विदेह भई अब में बूझति तोहीरी । मुथराई ॥ आँखिन में वस जियरे में बसे हियरे में बसत निशि दिन प्या रो। मनमें बसे तनमें बसे रसनामें बस अंग अंग में वसत नंदवारो ॥ सुधिमें वसे युधि हमें वसे पुरजनमें वसत पिय प्रेम दुलारो । सूरश्याम वनह मे वसत घरहूमें वसत संगजयों जलरंगन होत न्यारो ॥ ९० ॥ सोरट ॥ नँदनंदन विन कल नपरै । अति अनुराग भरी युवती सब जहां इया म तहां चित्तं ढरे ।। भवन गई मन तहाँ न लागै गुरु गुरुजन अति वास करै। वैकछु कहे करे कछ और सासु ननद तिनपर झहरे।। इहे तुमहि पितु मात सिखायो बोल करति नहिं रिसन जरै। सूरदास प्रभुसे चित अरुझ्यो यह समझो जिय ज्ञान धेरै॥९॥नेतश्री सासु ननद घर त्रास देखावै। तुम कुलवधू लाज नहिं आवति वार वार यह कहि समुझावे ॥ कवही गई न्हान तुम यमुना यह कहि कहि रिसपा । राधाको तुम संग करंतिहीं व्रज उपहास उडावै।। हैं बडे महरकी वेटी तो ऐ सी कहवा । सुनहुं सूर यह उनही फावै येसी कहति डरावे ।। ९२ ॥ सारंग ।। हम अहीर ब्रजवा सी लोग। ऐसे चली इसे नहिं कोऊ घरमे बैठि करो सुख भोग ॥ दही मही लवनी.घृत बचो सबै करो अपने उपयोग । शिरपर कंस मधुपुरी बैठो छिन कहिम करि डारो सोगा। पूंकि पूंकि धरणी । पग धारी अव लागी तुम करन अयोग । सुनहु सूर अब जानोगी तब जब देखै राधा संयोगा।९।।