पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३९६

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दशमस्कन्ध-१० (३०३) तही उन चरच लियो। कासों कहौं मिलावै अब को नैक न धीरज धरत हियो । वै तो निठुर भये या बुद्धिते अहंकार फल इहै दियो।तब आपुनको निठुर करावाति प्रीति सुमारभार लेत हियो । सूर श्याम प्रभु वे वहुनायक मोसी उनके कोटि त्रियो ॥ १० ॥ विहागरो ॥ श्याम विरह वन मांझ हेरानी । संगी गये संग सव तजिकै आपुन भई देवानी ॥ श्याम धाम मैं गर्वहि राखति दुराचारि नी जानी । ताते त्यागि गये आपुहि सव अंग २ राति मानी ॥ अहंकार लंपट अपकानी संग न रह्यो निदानी। सूरश्याम विन नागरिराधा नागर चित्त भुलानी॥११॥ विहागरो।।महाविरह बन मांझपरी। चकृत भई ज्यों चित्र पूतरी हरि मारगहि विसारी ॥ संगवटपार गर्व जव देख्यो साथी छोड़ि पराने । श्याम सहज अंग अंग माधुरी तहां वै जाइ लुकाने ॥ यह बन मांझ अकेली व्याकुल संपति गर्व छंडाये। सूरझ्याम सुधि टरत न उरते यह मनो जीव बचाये ॥ ४२ ॥ मारू ॥ विरहवन मिलन सुधि त्रास भारी। नैन जल नदी पर्वत उरज येइ मनो सुभग वेनी भई अहि निकारी ॥ नैन मृग श्रवन बन कूप जहां तहां मिले भ्रम-गली सघन नहिं पार पावै । सिंह कटि व्याघ्र अंग अंग भूषन मनो दुसह भये भार अतिही डरावै॥ शरनकीर अत्रडार डर लहत कोउ नहीं अंग सुख श्याम विन भये ऐसे । सूर प्रभु नाम करुना धाम जाउ क्यों कृपा मारग वहार मिलै कैसे ॥ १३ ॥ टोडी ॥ राधा भवन सखी मिलि आई । अति व्याकुल सुधि बुधि कछु नाही देहदशा विसराई। बांह गही तेहि वूझन लागी कहा भयोरी माई । ऐसी विवस भई तुम काहे कहो न हमाहि सुनाई । कालिाह और वरन तोहि देखी आयु गई मुरझाई । सूरश्याम देखे की बहुरो उनहि ठगोरी लाई ॥४४॥ हमरि ॥श्याम नाम चकृत भई श्रवन सुनत जागी ॥ आये हरि यह कहि कहि सखिन कंठ लागी।मोते यह चूक परी मैं बडी अभागी॥अवकै अपराध क्षमह गये मोहि त्यागी ॥ चरण कमल शरन देहु वार वार मांगी। सूरदास प्रभुकेवश राधा अनु रागी।। १५॥ विहागरो॥ सखी रही राधा मुख हेरी। चकृत भई कछु कहत न आवै करन लगी अवसेरी॥वार वार जल परस वदनसों वचन सुनावत टेरी। आज भई कैसी गति तेरी ब्रजमें चतुर निवरी ॥ तव जान्यो यहतौ चंद्रावलि लाज सहित मुख फेरी। सूरतवाहि सुधि भई आपनी मेटी मोह अँधेरी ॥ ४६॥ रागनैतश्री ॥ कहा भयो तू आयु अयानी । अतिही चतुरप्रवीन राधिका सखियनमें तू बड़ी सयानी ॥ कहिधौ बात हृदय की मोसों ऐसी तू काहे विततानी। मुखमलीन तनुकी गति और बूझति वारवार सो वानी॥ कहा दुराव करोरी तोसों मैतौ हरिके हाथ विकानी॥ सूरझ्याम मोको परत्यागी जाकारण मैं भई देवानी ॥४७॥ अब मैं तोसा कहा दुराऊं। अपनी ॥ कथा श्यामकी करनी तो आगे कहि प्रगट सुनाऊँ ।। मैं बैठीही भवन आपने आपुन द्वार दियो दरशाऊँ । जानि लई मेरे जियकी उन गर्व प्रहारन उनको नाऊँातवहींते व्याकुलभई डोलात चित न रहै कितनो समुझाऊं । सुनहु सूर गृह वन भयो मोको अब कैसे हरि दरशन पाऊं ॥ १८॥ नटनारायण ॥. सखी मिलि करौ कछु उपाउ । मारन चढ्यो विहिनि निदरि पायो दाउ.॥ हुतासन धुजजात उन्नत वह्यो हरिदिशवाउ । कुसुमसर रिपुनंद वाहन हरपि हरपित गाउ ॥ वारि भव सुत तासु भावरि अब न करिहौं काउ । वार अबकी प्राण प्रीतम विजै सखी मिलाउ ॥ऋतुविचारि जुमान कीजै सोउ वहि किन जाउ । सूर सखी सुभाउ रहौं संग शिरोमणि राउ॥ १९ ॥ रागनट ॥ मिलवहुः पार्थ मित्रहि आनि । जलजसुतके सुतकी रुचि करे भई हितकी हानि ॥ दधिसुतासुत अवलि उरपर इंद्र आयुध जानि । गिरिसुता पति तिलक करकस हनत