सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३०७)
दशमस्कन्ध १०


तरिवन सधर अधर नकवेसरि चिबुक चारि रुचिकारी। कंठसरी दुलरी तिलरी पर नहिं उपमा कहुँचारी॥ सुरंग गुलाब माल कुच मंडल निरखत तन मन वारि। मानों दिशिनिर्धूम अग्निके तप। वैठो त्रिपुरारि। जो मेरो कृतमानहु मोहन करिल्याऊं मनुहारि। सूर रसिक तबहीपै वदिहौं मुरली सकी न सँभरि॥ मलार ॥ लाल उनि सुनी मनोहर वंसी। नहिं संभार अजहुँ युवतिनि बल मदन भुवंगम डंसी॥ कैसे ल्याउँ संगीत सरोवर मगन भई गति हंसी। अंकेउटरिचलहु आपु नपै मेलि भौंह दृढ फंसी॥ वृंदावनकी माल कलेवर लता माधुरी गंसी। सूरदास प्रभु सब सुख दाता लै भुज वीच प्रशंसी॥ धनाश्री ॥ मनसिज माधवे मानिनिहि मारिहै। त्रोटि परलव अरत तपरमौअरनिरखिनिमुखको तारिहै॥ किसलय कुसुम कुंतसम सायक पायक पवन विचारिहै। द्रुम वल्ली एह दीप युग बनी जनति अनल त्रिय जारिहै॥ भवँर जु एक चकृत चमरकर भरि बंडुपखगडारिहै॥ पुनि पुनि वाज साज सुनि सुंदरि त्रसित तिनहि देखे मारिहै॥ विरह विभूति वढी वनितावपु शीशजटा बनवारिहै। मुखशशि शेपरह्यो सित मानोभई तभों उनहारिहै॥ जौ न इतेपर चलहु कृपानिधि तौ वह निज करसारिहै। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि तुमतजि काहि पुकारिहै॥ सारंग ॥ शिव न अवध सुंदरी वधोजिन। मुकुता मांग अनंग गगनहिमे नवसत साजे अर्थ श्यामघन॥ भाल तिलक उडुपति नहोय इह कवरी ग्रथित अहिपति न सहसफन। नहिंविभूति दधिसुत नकंठ जड इह मृगमद चंदन चरचित तन॥ निहिंगजचर्म से असित कंचुकी देखि विचारि कहां नंदीगन। सूर सुहरि अब मिलहु कृपाकरि वरवश सरम करत हठ हमसन॥ सारंग ॥ नैक कुंज कृपाकरि आइये। अति रिस कृषह्वैरही किसोरी करि मनुहारि मनाइये॥ कर कपोल अंतर नहिं पावत अति उसास तनताइये। छूटे चिहुर वदन कुँमिलानो सुहथ सँवारि बनाइये॥ इतनो कहा गांठिको लागत जो बातनि यशपाइये। रूठेहि आदर देत सयाने इहै सूरज सगाइये॥ धनाश्री ॥ प्रियमुख देखो श्याम निहारि। कहि नजाइ आननकी सोभा रही विचार विचारि॥ क्षीरोदक घूंघट हातो करि सन्मुख दियो उघारि। मानो सुधाकर दुग्ध सिंधुते काढ्यो कलंक पखारि॥ मुक्तामांग शीश पर सोभित राजत डुहि आकारि। मानो उडगन जानि नवल शशि आये करन जुहारि॥ भाल लाल सेंदूर विंद पर मृगमद दियो सुधारि। मनों बंधूक कुसुम ऊपर अलि बैठो पंख पसारि॥ चंचलनैन चहूंदिश चितवत युगखंजन अनुहारि। मनहुँ परस्पर करत लराई कीर बचाई रारि॥ वेसरिके मुकुतामें झाई चरन विराजित चारि। मानो सुरगुरु शुक्र भौम शनि चमकत चंद्र मझारि॥ अधर बिंब दशननकी सोभा दुति दामिनि चमकारि। चिवुक बिंदु बिच दियो विधाता रूपसीव निरुवारि॥ ज्योति पुंज पटतर देवेको दीजे कहा अनुहारि। जनु युग भानु दुहुँ दिशि उगए तम दुरिगयो पतारि॥ लाल सुमाल हार हीरावलि सखियन गुही सुढारि। मनहु धुई निर्धूम अग्नि पर तप बैठे त्रिपुरारि॥ सन्मुख दृष्टि परे मन मोहन लजित भई सुकुमारि। लीन्हीं उमाँगे उठाइ अंक भरि सूरदास बलिहारि॥ नट ॥ भुज भार लई हृदय लाय। विरह व्याकुल देखि वाला नयन दोउ भरि आय॥ रैनि वासर बीचही में दोउ गए मुरुझाइ। मनो वृक्ष तमाल वेली कनक सुधा सिचाइ॥ हरष डहडह मुसुकि फूले प्रेमफलनि लगाइ। काम मुरछनि वेलि तरुकी तुरतही विसराइ॥ देखि ललिता मिलनि वह आनंद नहीं समाइ। सूरके प्रभु श्याम श्यामा त्रिविध ताप नशाइ॥ रामकली ॥ ललिता प्रेमविवस भई भारी। वह चितवनि वह मिलान परस्पर अति सोभा वरनारी॥ एकटक अंग अंग अवलोकति उत वश भए विहारी। वह आतुर छबि लेति देत वै