सँग रैहै॥ ऐसी सुंदरि नारि को जबहीं वै पै है। दोउ भुज भार अँकवारि कै हँसि कंठ लगैहै॥ यह वैरिनि मोको भई धौं कहँते आई। मोतन एकटक हेरई मैं रही लजाई॥ श्यामहि वश करि लेइगी मैं जानी माई। देखि दशा यह वामकी प्रतिबिंब भुलाई॥ इकटक नैन टरै नहीं छबिकी अधिकाई। पिय हरषै आनँद भरै सोभा यह पाई॥ कबहुँ चलत त्रिय पासको फिरि रहत लुभाई। सूरश्याम तृणतोरही मन मन मुसुकाई॥ विहागरो ॥ नागरि रही मुकुर निहारि। आनि औचक नैन मूंदे कमल कर गिरिधारि॥ चौंकि चकृत भई मनमें श्यामको जिय जानि। मैं डरतिही अबहिं जाको मिले ताको आनि॥ तबहिं तनुकी सुरति आई लख्यो तनु प्रतिछाहिं॥ सकुचि मनही मन दुरावति परस्पर मुसुकाहिं ॥ समुझि चितमें कहति सखिअनि विपुल लैलै नाम। सूरप्रभु उर शीश परसे बीच बेनी श्याम॥ विहागरो ॥ मूंदिरहे पिय प्यारी लोचन। अति हित बेनी उर परसाए वेष्टित भुजा अमोचन॥ कंचन मणि सुमेर अंग दोऊ सोभा कही नजाइ। मनों पन्नगी निकसि ताविच रही हाटक गिरि लपटाइ॥ चपल नैन दीरघ अति सुंदर खंजन ते अधिकाई। अति आतुर भषकारण धाई धरती फनन समाई॥ मनहरपति मुख खिझति सखिन कहि चतुर चतुरई भाव। सूरश्याम मनकामनके फल लूटतहै एहिदाव॥ रामकली ॥ करत मन काम फल लूटि दोउ॥ रहे दोउ नैन पिय मूंदि कोमलकरनि वरनि नहिं सकत वह उपमा कोऊ॥ हृदय भरि वाम सुखधाम मोहन काम मनो घन दामिनि झकोर लीन्हें॥ महाआनंद सुखसिंधु उछलत दोऊ सूर प्रभु नागरी तुरत चीन्हें॥ कान्हरो ॥ बैठी रही कुँवरि राधा हरि आँखिया मूंदी आइ। अतिहि विशाल चपल अनियारे नहिं पिय पानि समाइ॥ खन खोलत खन ढांकत नागरि मुख रिस मन मुसुकाइ। ज्यों मणि धर मणि छांडि बहुरि फिरि फन तर धरत छपाइ॥ श्याम अंगुरिअनि अंतर राजत आतुर दुरि दरशाइ। मानो मरकत मणि पिंजरनिमें विवि खंजन अकुलाइ॥ करकपोल विच सुभग तरौना सोभा बढ़ी सुभाइ। मनो सरोजद्वै मिलत सुधानिधि
विवि रवि संग सहाइ॥ अपने पानि पकरि मोहनके करधरि लिए छिड़ाइ। कमल चकोर चंचार जनु द्वै शशि दिनकर जुरति सगाइ॥ उपमा काहि देऊँ को लायक देखा बहुत बनाइ। सूरदास प्रभु दंपति देखत रतिसों काम लजाइ॥ गुंडमलार ॥ श्याम भुज वाम गहि सन्मुख आने। भले जुभले मैं सखी धोखें रही रहे लोचन मूंदि अति पिराने॥ दौरि पौढै भवन कहि कबहिं कीन्हो गवन नारि मन रवन तुमहौ कन्हाई। सूर प्रभु हरषि प्यारी अंक भरिलई मुकुरकी कथा तब कहि सुनाई॥ गूजरी ॥ नागरि यह सुनिकै मुसकानी। को जानै पिय महिमा तुम्हरी नैननि चितै लजानी॥ मैं बैठी प्रतिबिंब विलोकति अपने सहज सुहाइ। आपुन कहा अचानक आये तुवगति लखी नजाइ॥ इक सुंदर दूजे अति नागर तीजे कोक प्रवीन। सूरदास
प्रभु अवहींतौ तुम यशुमति सुवन नवीन॥ बिलावल ॥ हँसत चले तर कुँवर कन्हाई। मनके करे मनोरथ पूरण राधाके सुखदाई॥ उत हरषत हरि भवन सिधारे नागरि हरष बढ़ाई। जब आवत सुधि मुकुर बिलोकनि तब तब रहति लजाई॥ यहि अंतर सखियन संग लीन्हें चंद्रावलि तहँ आई। सूर तुरत राधिका सबनिको आदर करि बैठाई॥ रामकली ॥ अति आदर सों बैठक दीन्हों। मेरे गृह चंद्रावलि आई अतिही आनँद कीन्हों॥ श्याम संग सुख प्रगट्यो चाहति पुनि धीर जधरि राखति। जोइ जोइ कहति वचन गदगदुसो बार बार मुख भाषति॥ सखी संगकी कहति राधिका आजु कहा तैं पायो। सुनहु सूर इतने आदर सों कबहूं नहीं बोलायो॥ आसावरी ॥ हम
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दशमस्कन्ध-१०
