पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४१०

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दशमस्कन्ध-१० (३१७) सँग रहै ॥ ऐसी सुंदरि नारि को जवहीं वै पै.है । दोउ भुज भार अँकवारि कै हँसि कंठ लगैहै । यह वैरिनि मोको भई धौं कहते आई। मोतन एकटक हेरई मैं रही लजाई॥श्यामहि वश करि लेइगी मैं जानी माई। देखि दशा यह वामकी प्रतिक्वि भुलाई । इकटक नैन टरै नहीं छविकी अधिकाई । पिय हरपै आनंद भरै सोभा यह पाई ॥ कबहुँ चलत त्रिय पासको फिरि रहत लुभाई। सूरश्याम तृणतोरही मन मन मुसुकाई ॥ विहागरो॥ नागरि रही मुकुर निहारि । आनि औचक नैन मूंदे कमल कर गिरिधारि ॥ चौंकि चकृत भई मनमें श्यामको जिय जानि । मैं डरतिही अवहिं जाको मिले ताको आनि ॥ तपहिं तनुकी सुरति आई लख्यो तनु प्रतिछाह । सकुचि मनही मन दुरावति परस्पर मुसुकाहि ॥ समुझि चितमें कहति सखिअनि विपुल लैलै नाम । सूरप्रभु उर शीश परसे वीच वेनी श्याम ॥ विहागरो ॥ दिरहे पिय प्यारी लोचन । अति हित वेनी उर परसाए वेष्टित भुजा अमोचन ॥ कंचन माण सुमेर अंग दोऊ सोभा कही नजाइ.। मनों पन्नगी निकसि ताविच रही हाटक गिरि लपटाइ ॥ चपल नैन दीरव अति सुंदर खंजन ते अधिकाई । अति आतुर भपकारण धाई धरती फनन समाई॥ मनहरपति मुख खिझति सखिन कहि चतुर चतुरई भाव । सूरश्याम मनकामनके फल लूटतहै एहिदाव ॥ रामकली ॥ करत मन काम फल लूटि दोउ रहे दोउ नैन पिय मंदि कोमलकरनि वरनि नहिं सकत वह उपमा कोऊ॥ हृदय भरि वाम सुखधाम मोहन काम मनो घन दामिनि झकोर लीन्हें । महाआनंद सुखसिंधु उछलत दोऊ सूर प्रभु नागरी तुरत चीन्हें ॥ कान्हरो ॥ वैठी रही कुँवार राधा हरि आँखिया मूंदी आइ। अतिहि विशाल चपल अनियारे नहि पिय पानि समाइ ॥खन खोलत खन ढांकत नागरि मुख रिस मन मुसुकाइ । ज्यों माणे धर मणि छांडि बहुरि फिरि फन तर धरत छपाइ ॥ श्याम अंगुरिअनि अंतर राजत आतुर दुरि दरशाइ। मानो मरकत मणि पिंजरनिमें विवि खंजन अकु लाइ ॥ करकपोल विच सुभग तरौना सोभा बढ़ी सुभाइ । मनो सरोजदै मिलत सुधानिधि विवि रवि संग. सहाइ ॥ अपने पानि पकार मोहनके करधरि लिए छिड़ाइ । कमल चकोर चंचार जनु द्वै शशि दिनकर जुरति सगाइ ॥ उपमा काहि दे को लायक देखा बहुत वनाइ। सूरदास प्रभु दंपति देखत रतिसों काम लजाइ ॥ गुंहमलार ॥ श्याम भुज वाम गहि सन्मुख आने । भले जुभले मैं सखी धाखें रही रहे लोचन मंदि अति पिराने ॥दौरि पौठे भवन कहि कवहिं कीन्हो गवन नारि मन रखन तुमही कन्हाई।सूर प्रभु हरपि प्यारी अंक भरिलई मुकुरकी कथा तब कहि सुनाई ।। गूजरी॥ नागरि यह मुनिकै मुसकानी । को जानै पिय महिमा तुम्हरी नैननि चितै लजानी ॥ मैं बैठी प्रतिविव विलोकति अपने सहज सुहाइ । आपुन कहा अचानक आये तुवगति लखी नजाइ ॥ इक सुंदर दूजे अति नागर. तीजे कोक प्रवीन । सूरदास प्रभु अवहीती तुम यशुमति सुवन नवीन ॥ विलावल | हँसत चले तर कुँवर कन्हाई । मनके करे मनोरथ पूरण राधाके सुखदाई । उत हरपत हरि भवन सिधारे नागरि हरप बढ़ाई । जब आवत सुधि मुकुर पिलोकनि तब तब रहति लजाई ॥ यहि अंतर सखियन संग लीन्हें चंद्रावलि तहँ आई । सूर तुरत राधिका सवनिको आदर करि बैठाई ।। रामकली ॥ अति आदर सों बैठक दीन्हों । मेरे गृह चंद्रावलि आई अतिही आनंद कीन्हों॥ श्याम संग सुख प्रगट्यो चाहति पुनि धीर जधरि राखति । जोइ जोइ कहति वचन गदगदुसो बार बार मुख भापति ॥ सखी संगकी कहति राधिका आज कहा तैं पायो । सुनहु सूर इतने आदर सों कवहूं नहीं बोलायो । आसावरी ॥ हम