पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४१२

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दशमस्कन्ध-१० (३१९). घुघरारी उर वनमाल कहौं जो वै छवि ॥ तनु धन श्याम पीत पट सोभित हृदय पदिककी पांति दिपत दुति । वन तनु धात विचित्र विराजित वंसी अधरनि धरे ललित गति ॥ करज मुद्रिका कर कंकन छवि कटि किंकिणि नूपुर पगं भाजत । नख शिख कांति विलोकि सखीरी शशि औ भान मगन तनुलाजत॥ नखशिख रूप अनूप विलोकात नटवर भेष धरे जुललित अति। रूपराशि यशुमतिको ढोटा वरणि सकै नहिं सूर अलपमाति ।। सोरठा ॥ लोचन हरत अंबुज मान चकित मन्मथ शरन चाहत धनुप तजि निज वान ॥ चिकुर कोमल कुटिल राजत रुचिर विमल कपोल । नील नलिन सुगंध ज्यों रस थकित मधुकर लोल ॥ श्याम उर पर परमसुंदर सजल मोतिनहार । मना मर्कत शैलते पहिचली सुरसार धार ॥ सूर कटि पटपीत राजत सुभग छवि नंदलाल । मनो कनकलता अवलि विच तरल विटप तमाल ॥ ॥ रागरामकली ॥ मोहन माईरी हठ करि मनाहि हरत । अंग अंग प्रति और और गति अतिही छवि जुधरत ॥ सुंदर सुभग श्याम कर दोऊ तिनसों मुरली अधर धरत । राजत ललित नील कर पल्लव उभै उरग मनो सुभट लरत ॥ कुंडल मुकुट भाल भ्रुव लोचन मनों शरद शशि उदै करत । सूरदास प्रभु तनु अवलोकत नैनथके इत उत नटरत ॥ रामकली ॥ मनतो हरिही हाथ विकानो। निकस्यो मान गुमान सहित वह मैं यह होत न जानो। नैनानि साँटि करी मिलि नैननि उनहींसो रुचि मानो । बहुत जतन करिहौं पचिहारी इतको नहीं फिरानो । सहज सुभाइ ठगोरी डारी शीश फिरत अरगानो । सूरदास प्रभु रसवश गोपी विसरि गयो तनु मानो ॥ सोरठ ॥ मनतो गयो नैन हैं मेरे । अब इनसों वहि भेद कियो कछु एउ भए हरिके चेरे ॥ तनिक सहाय रहेहैं मोको येऊ दिन मिलि घेरे । क्रम कम गए कह्यो नहिं काहू श्याम संग अरुझेरे ॥ ज्यों दीवाल गिले परकाकर डारतही युग डेरे । सूर लटकि लागे अंग छवि पर निठुर न जात उखेरे ॥ विहागरो॥ सजनी मनहि अकाज कियो । आपुन जाइ भेद करि हमसों इंद्रिन्ह बोलि लियो ॥ मैं उनकी कर नी नहिं जानौं मोसों वैर कियो ॥ जैसे करि अनाथ मोहि त्यागी ज्यों त्यों मानि लियो । अब देखो उनकी निठुराई सो गुनि मरति हियो । सूरदास ए नैन रहेहैं तिनहूं कियो वियो । विहागरो॥ मेरे जिय इहई सोच परचो । मनके ढंग सुनोरी सजनी जैसे मोहि निदरयो । आपुन गयो गंच संग लीन्हें प्रथमहि इहै करयो । मोसों वैर प्रीतिकरि हरिसों ऐसी लरनि लरयो । ज्योत्यों नैन रहे लपटाने तिनहू भेद भरयो । सुनहु सूर अपनाइ इनहुँको अवलौं रह्यो डरयो ।गौरीमन विगरयो ए नैन विगारे । ऐसो निठुर भयो देखौरी तव ए मोते टरत नटारे ॥ इंद्री लई नैन अब लीन्हे श्यामहि गीधे भारे । एसब कहौ कौनहैं मेरे खानाजाद विचारे । इतनते इतनेमैं कीन्हे कैसे आजु विसारे । सुनहु सूर जे आप स्वारथी ते आपुनही मारे ॥ गौरी ॥ आपु स्वारथी की गति नाहीं। वि धिना ह्यां काहे अवतारे युवती गुनि पछिताहीं॥जनमें संग संग प्रतिपाले संगहि बड़े भए। जव उनको आसरो कियो जिय तवहीं छोडि गए।। ऐसहैं एस्वामि कारजी तिनको मानत श्याम ।सुनहु सूर अब परगट कहिये ऐसे उनके काम।।कान्ह।।हमते गए उनहुते खो। हाते खेदि देहि वै हम तन हम उन तन नहिं जोवेजैिसी दशा हमारी कीन्ही तैसे उनहि विगोवें। भटके फिरे द्वार द्वारनि सब हम देखेवै रोवेंआवहु इहै मतोरी करिए निधरक वै सुख सौ। सूरझ्यामको मिले जाइकै कैसे उनको धो॥ ॥धनाश्री ॥ मनके भेदनैन गए माई । लुब्धे जाइ श्यामसुंदर रस करी नकछू भलाई ॥ जवहीं श्याम अचानक आए इकटक रहे लगाइ । लोक सकुच मर्यादा कुलकी छिनहीमें विसराइ ॥ व्याकुल ||