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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४२१

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सूरसागर।


लाज न आवत। अबतो रहत निषसई कीन्हें यद्यपि रूप न जानत। दुख सुख विरह संयोग समेत जनु सूरदास यह गानत॥ रामकली ॥ नैना मान पमान सह्यो। अति अकुलाइ मिलेरी बरजत यद्यपि कोटि कह्यो॥ जाकी बानि परी सखी जैसी तेही टेक रह्यो। ज्यों मर्कट मूठी नहिं छांडत नलनी सुवा गह्यो। जैसे नीर प्रवाह समुद्रहि बह्यो सुबह्यो सुबह्यो। सूरदास इनि तैसिय कीन्ही फिरि मोतन न चह्यो। सोरठ ॥ यह नैननिकी टेवपरी। जैसे लुवधति कमलकोशमें भ्रमरा की भ्रमरी॥ ज्यों चातक स्वातिहि रटलावै तैसिय धरनि धरी। निमिष नहीं मिलवत पल एकौ आपु दशा बिसरी॥ जैसे नारि भजै पर पुरुषहि ताके रंगढरी। लोक वेद आरजपथकी सुधि मारगहू न डरी॥ ज्यों कंचुकी त्यागि वोहि मारग अहि घरनी न फिरी। सूरदास तैसेहि ए लोचन काधौं परनि परी॥ विहागरो ॥ नैना गये न फिरेरी माई। ज्यों मर्यादा जाति सुपतकी बहुरंयो फेरि न आई॥ जैसे बाला दशा बितावै फिरै नहीं तरुनाई। ज्यों जल टरत फिरत नहिं पाछे आगेहि आगे जाई॥ ज्यों कुलवधू वाहिरी परिकै कुलमें फिरि न समाई। तैसी दशा भई इनहूंकी सूरश्याम शरनाई॥ सूही ॥ जबते नैन गये मोहिं त्यागि। इंद्री गई गयो तनुते मन उनहि बिना अवसेरी लागि॥ वे निर्दयी मोह मेरे जिय कहा क मैं भई बेहाल । गुरुजन तेउ इहां इनि त्यागी मेरे बाटे परयो जंजाल॥ इतकी भई न उतकी सजनी भ्रमत भ्रमत मैं भई अनाथ। सूरश्याम को मिले जाइ सब दरशन करि वे भये सनाथ॥ बिलावल ॥ नैना मेरे मिलि चले इंद्री मन संग। मोको व्याकुल छांडिकै आपुन करै रंग॥ अपनो यह कबहुँ न करै अधमनिके काम। जनम गमायो साथही अब भई निकाम॥ धृगजन ऐसे जगत में यह कहि कहि पछिताति। धर्म हृदय जिनके नहीं धृग धृग तिनकी जाति॥ मनसा वाचा कर्मना मोहिं गए विसारा। सूर सुमिरि गुन नैनके विलपति ब्रजनारि॥ बिलावल ॥ नैननिसों झगरो करिहौंरी। कहा भयो जो श्याम संगहैं वांह पकरि सन्मुख लरिहौंरी॥ जनमहिते प्रति पालि बडे किए दिनदिनको लेखो करिहौंरी। रूप लूटि कीन्हो तुम काहे अपने वाटेको धरिहौंरी॥ एक मात पितु भवन एकरहै मैं काहे उनको डरिहौंरी। सूर अंश जो नहीं देहिगे उनके रंग मैं हूं ढरिहौंरी॥ आसावरी ॥ मोहूते वे ढीठ कहावत। जबहीं लौं मैं मौन धरेहौं तबलौं वे कामना पुरावत॥ मैं उनको पहिलेहि करि राख्यो वे मोको काहे बिसरावत। आपकाज को उनहिं चले मिलबाट देत रोई अब आवत॥ बहुतै कानि करी मैं सजनी अब देखो मर्याद घटावत। जो जैसो तैसो त्यों चलिए हार आगे गढ़ि बात बनावत॥ मिले रहैं नहिं उनको चाहति मेरो लेखो क्यों न बुझावत। सूरश्याम संग गर्व बढायो उनहीके बल वैर लगावत ॥ धनाश्री ॥ नैना नरहैंरी मेरे अटके। कछु पढि दिये सखी एहि ढोटा घुंघरवारी लटकै॥ कजल कुलुफ मेलि मंदिरमें पलक संदूक पट अटके। निगम नेति कुललाज टूटि सब मन गयंदके उढके॥ मोहनलाल करो वश अपनेहो निमेषके मटके। सुर नर नारिन सूर पुरत सँग संग लगाये नटके॥ काफी ॥ नैना अटके रूप में पलरहत विसारे। निशि वासर नहिं संगतजैं भरि भरि जल ढारे॥ अरुन अधर दुति चमकही चपला चकचौंधाने। कुटिल अलक छबि घुंघरे सुमनासुत शोधनि॥ चंपकलीसी नासिकारंग श्यामहि लीन्हें। नैनविसाल समुद्रसों कुंडल श्रुति दीन्हें॥ तहँ ए रहे भुलाइकै कछु समुझि नजाई। सूर श्याम वे वश किए मोहनी लगाई॥ जैतश्री ॥ लोचन भूलि रहे तहां जाई। अंग अंग छवबि निरखि माधुरी इकटक पल बिसराई। अति लोभी अचवत अघातहैं तापर पुनि ललचात। देत नहीं काहूको नेकहु आपुहि डारत खात॥ ओछे हाथ परी अपारनिधि काहू काम न आवै। सूर सबै