पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४२१

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(३२८ ) . . : . सूरसागर। .. लाज न आवत । अवतो रहत निषसई कीन्हें यद्यपि रूप न जानत । दुख सुख विरह संयोग समेत जनु सूरदास यह गानत ॥ रामकली | नैना मान पमान सह्यो । अति अकुलाइ मिलेरी. वरजतः यद्यपि कोटि कह्यो । जाकी बानि परी सखी जैसी तेही टेक रह्यो । ज्यों मर्कट मूठी नहिं छांडत नलनी सुवा गह्यो। जैसे नीर प्रवाह समुद्रहि वह्यो सुबह्यो सुवयो। सूरदास इनि तैसिय कीन्ही फिरि मोतन न चह्यो। सारठ ॥ यह नैननिकी टेवपरी। जैसे लुवधति कमलकोशमें भ्रमरा की भ्रमरी ॥ ज्योंचातकस्वातिहि रटलावै तैसिय धरनि धरी । निमिष नहीं मिलवत पल एको आपु दशा बिसरी ॥ जैसे नारि भजै पर पुरुषहि ताके रंगढरी । लोक वेद आरजपथकी सुधि मार गहू न डरी ॥ज्यों कंचुकी त्यागि वोहि मारग अहि घरनी न फिरी। सूरदास तैसेहि ए. लोचन काधौं परनि परी ॥ विहागरो ॥ नैना गये न फिरेरी माई । ज्यों मर्यादा जाति सुपतकी बहुरंयो. फेरि नआई। जैसे बाला दशा वितावै फिरै नहीं तरुनाई। ज्यों जल टरत फिरत नहिं पाछे आगेहि आगे जाई।ज्यों कुलवधू वाहिरी परिकै कुलमें फिरि न समाई । तैसी दशा भई इनहूँकी सूरश्याम शरनाई।।मूही।। जबते नैन गये मोहिं त्यागि। इंद्री गई गयो तनुते मन उनहि विना अवसेरी लागि॥. वे निर्दयी मोह मेरे जिय कहा क मैं भई बेहाल । गुरुजन तेउ इहां इनि त्यागी मेरे वाटे परयो जंजाल॥इतकी भई न उतकी सजनी भ्रमत भ्रमत मैं भई अनाथ । सूरश्याम को मिले जाइ सब दरशन करि वे भये सनाथाविलावलानैना मेरे मिलि चले इंद्री मन संगोमोको व्याकुल छांडिकै मा पुन करै रंग।अपनो यह कबहुँ न करै अधमनिके कामाजनम गमायो साथही अब भई निकामः।।। धृगजन ऐसे जगत में यह कहि कहि पछिताति। धर्म हृदय जिनके नहीं धृग धृग तिनकी जाति। मनसा वाचा कमना मोहिं गए विसारािसूर सुमिरि गुन नैनके विलपति ब्रजनारि॥विलावलानिननिसों झगरो करिहौंरी। कहा भयो जो श्याम संग, वांह पकरि सन्मुख लरिहौरी ॥ जनमहिते प्रति पालि वडे किए दिनदिनको लेखो करिहौं।रूप लूटि कीन्हो तुम काहे अपने वाटेको धरिहौंरी।। एक मात पितु भवन एकरहै मैं काहे उनको डरिहौंरी । सूर अंश जो नहीं देहिगे उनके रंग में हूं रिहौंरी ॥ आसावरी ॥ मोहते वे ढीठ कहावत । जवहीं लौं मैं मौन धरेहौं तवलौं वे कामना पुरा वत ॥ मैं उनको पहिलेहि करि राख्यो वे मोको काहे विसरावत । आपकाज को उनहिं चले मिल वाट देत रोई अव आवत ।। बहुतै कानि करी मैं सजनी अब देखो मर्याद घटावत । जो जैसो तैसो त्यों चलिए हार आगे गदि बात बनावत ॥ मिले हैं नहिं उनको चाहति मेरो लेखो क्यों न बुझावत। सूर श्याम संग गर्व बढायो उनहीके बल वैर लगावत ॥ धनाश्री|| नैना नरहरी मेरे अटके। कछु पढि दिये सखी-एहि ढोटा धुंधरवारी लटके। कजल कुलुफ मेलि मंदिरमें पलक संदूक पट अटके। निगम नेति कुललाज टूटि सब मन गयंदके उढके ॥ मोहनलाल करो वश अपनेहो निमेषके मटके । सुर नर नारिन सूर पुरत सँग संग लगाये नटके।।काफोनना अटके रूप में पलर हत विसारे। निशि वासर नहिं संगतनैं भार भरि जल ढारे ॥ अरुन अधर दुति चमकही चपला चकचौंधाने । कुटिल अलक छवि धुंधरे सुमनासुत शोधनि ।। चंपकलीसी नासिकारंग श्यामहि लीन्हें । नैनविसाल समुद्रसों कुंडल श्रुति दीन्हें ॥ तह ए रहे भुलाइकै कछु समुझि नजाई । सूर श्याम वे वश किए मोहनी लगाई ॥ नैतश्री ॥ लोचन भूलि रहे तहां जाई । अंग अंग छविः निरखि माधुरी इकटक पल विसराई । अति लोभी अचवत अघातहैं तापर पुनि ललचातः । देत नही । काहूंको नेकहु आपुहि डारत खात ॥ ओछे हाथ परी अपारनिधि काहू, काम न आवै । सूर सबै ।