पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४२९

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काको कहियत है लोभ सदा जियमें जिनके ॥ ऐसी परनि परीरी जाके लाज कहा है है तिनके। सुंदरश्याम रूपमें भूले कहा वश्य इन नैननि के ॥ ऐसे लोगनको सव मानत जिनकी घर पर हैं। भनकै । लुब्धे जाइ सूरके प्रभुको सुनत रही श्रवणनि झनके ॥ अथ अँखियाँ समयके पद ॥ धनाश्री ॥ अँखिअनके इहई टेव परी। कहा करौं वारिज मुख ऊपर लागति ज्यों भ्रमरी | चितवति रहति चकोर चंद्र ज्यों विसराति नहिन घरी । यद्यपि हटकि हटकि राखतिहौं तद्यपि होति खरी ॥ गड़ि जुरही वा रूप जलधि में प्रेम पियूष भरी। सूर तहां नग अंग परसरस लूटति निधि सिगरी ॥ धनाश्री आँखियां निरखि श्याम मुख भूली । चकित भई मृदु हँसनि चमक पर इंदु कुमुद ज्यों फूली॥ | कुल लज्जा कुल धर्म नाम कुल मानत नाहिंन एको। ऐसे है ये भजी श्यामको वरजत सुनति नः नेको । लुब्धी हारके अंग माधुरी तनुकी दशा विसारी । सूरश्याम मोहनी लगाई कछु पटिकै शिरडारी । जैतश्री । अखियां हरिके हाथ विकानी । मृदु मुसुकानि मोल इन लीन्हीं यह सुनि सुनि पछितानी ।। कैसे रहत रहीं मेरे वश अब कछु और भांति । अब वै लाज मरति मोह देखत वैठी मिलि हरि पांति ॥ स्वपनेकीसी मिलनि करत हैं कव आवति का जाति । सूर मिली दार नंदनंदन को अनत नहीं पतियाति ॥ विहागरो ॥ अँखियनि ऐसी धरनि धरी। नंदनँदन देखे सचुपावै मोसों रहति डरी ॥ कबहूं रहति निरखि मुख सोभा कबहुँ देह सुधि नाही कवहूं कहति कौन हार को मैं यो तन मय है जाहीं ॥ आँखियाँ ऐसेहि भजी श्यामको नहीं रह्यो। कछु भेद । सूरश्यामके परम भावती पलक न होत विछेद ॥ रामकली ॥ अखिअन श्याम अपनी करी । जैसेही उन मुँह लगाई तैसेही ए ढरी।इनकिए हरि हाथ अपने दूरि हमते परी.। रहति वासर रैनि इकटक छाँह घामैं खरी ॥ लोकलजा निकास निदरी नहीं काहुहि डरी। ए महा अति चतुर. नागरि चतुर नागर हरी ॥ रहति डोलति संग लागी डटति ज्यों नाह डरी। सूर जब हम हदकि हटकति बहुत हमपरलरी॥ विहागरो। अँखिअनि तवते वैर धरयो । जब हम हटकति हरि दरशन । को सो रिसनहिं विसरयो। तवहीते उन हमहिं भुलाई गई उतहिको धाइ । अवतो तरकि तरकि ऐंठति हैं लेनी लेति बनाइ ।। भई जाइ वे श्याम सुहागिीन बड़भागिनि कहवावें । सूरदास वैसी प्रभुता तजि हमपै अब वे आवें ॥ जैतश्री ॥ धन्य धन्य अँखियाँ वडभागिनि । जिन विन श्याम रहत नहिं नेकहु कीन्हीं वनै सुहागिनि ॥ जिनको नहीं अंगते टारत निशि दिन दरशन पावें । तिनकी सरि कहि कैसे कोई जे हरिके मनभावें । हमहीते ए भई उजागरि अब हमपर रिसमाने । सूरश्याम अति विवस भए हैं कैसे रहत लुभाने ॥ विलावल ॥ए अखियां बड़भागिनी जिन रीझे. श्याम । अँगते नैक नटारहीं वासर अरु याम ॥ ए कैसी हैं लोभिनी छवि धरति चुराइ । और नः । ऐसी करिसकै मर्यादा जाइ ॥ यह पहिले मनही करी अब तो पछिताति । उनके गुण गुणि गुणिः || झुरै याहू न पत्याति।। इंद्रीवश न्यारी परी सुख लूटति आंखि ।सूरदासजे सँग रहैं तेऊ मरे झांखि ॥ बिलावल ।। आँखिअनि तेरी श्यामको प्यारी नहिं और । जिनको हरि अंग अंगमें करि दीन्हों ठौर ॥ ॥ जो सुख.पूरण इन लयो कहा जाने और । अंबुज हरि मुख जारको दोउ भौंरी जोर ॥ यहि अंतर श्रवणन परी मुरलीकी सोर । सूर चकित भई सुंदरी शिरपरी ठगोर ॥ विहागरो ॥ अँखिअनकी सुधि भूलि गई । श्याम अधर मृदु सुनत मुरलिका चकृत नारि भई । जो जैसे तैसेहि रहिगई सुख दुख कह्यो नजाइ । लिखी चित्रकीसी सब कै गई इक टक पल विसराइ ॥ काहू सुधि काहू सुधि । । नाही सहज मुरलिका गान । भवन रवनकी सुधि न रही तनु सुनत शब्द वह कान ।। अखिअनते।