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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३०

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दशमस्कन्ध-१०


मुरली अति प्यारी वह वैरनि यह सौति। सूर परस्पर कहत गोपिका यह उपजी उदभौति॥ सारंगा ॥ अधररस मुरली लूटन लागी। जा रसको षटऋतु तनु गारयो सो रस पिवत सभागी॥ कहां रही कहँ ते इह आई कौने याहि बुलाई। चकृत कहा भई ब्रजवासिनि यह तौ भलीन आई॥ सावधान क्यों होत नहीं तुम उपजी बुरी बलाइ। सूरदास प्रभु हमपर याको कीन्हीं सौति बजाइ॥ सारंग ॥ आवतही याके ये ढंग। मन मोहन बश भए तुरतही ह्वैगए अंग त्रिभंग॥ मैं जानी यह टोना जानति करिहै नाना रंग। देखो चरित भजै हरि कैसे या मुरलीके संग॥ बातनमें कह ध्वनि उपजावति सुरते तान तरंग। सूरदाससे दूर सदन में पैठो बडो भुजंग॥ अध्याय २९ वंसी ध्वनि सुरगोपीमोह ॥ रासलीलापंचाऽध्यायी ॥ राग टोडी ॥ मुरली सुनत भई सब वौरी। मानहुँ परि शिरमांझ ठगोरी॥ जो जैसे सो तैसे सोरी। तनु व्याकुल सब भई किसोरी॥ कोउ धरणी कोउ गगन निहारै। कोउ कर करते वासन डारै॥ कोउ मनही मन बुद्धि विचारै। कोउ बालक नहिं गोद सँभारै॥ घर घर तरुनी सब बिततानी। मन मन कहति कौन यह वानी॥ छुटि सब लाज गई कुलकानी। सुत पति आरजपंथ भुलानी॥ लैलै नाम सबनिको टेरे। मुरली ध्वनि घरहीके नेरे॥ कोउ जेवत पतिहीतन हैरै। कोउ दधिमें जावनपय फेरै॥ कोउ उठि चली जैसही तैसे। फिरि आवहि घरहीमें पैसे॥ घर पाछे मुरली ध्वनि ऐसे। आँगनगए नहीं वह जैसे॥ गृह गुरुजन तिनहूं सुधि नाहीं। कोउ कतहूं कोउ कतहूं जाहीं॥ कोउ निरखत कोउ काहू माहीं। मुरछयो मदन तरुणि सब डाहीं॥ व्याकुल भई सबै ब्रजनारी। मुरली सों बोली गिरिधारी॥ चली सबै जहँ तहँ सुकुमारी। उपजी प्रीति हृदय हरिभारी॥ मुरलीश्याम अनूप बजाई। विधि मर्यादा सबनि भुलाई॥ निशि वनको युवती सब धाई। उलटे अंग अभूषण ठाई॥ कोउ चलि चरणहार लपटाई। काहू चौकी भुजनि बनाई॥ अँगिया कटि लहँगा उरलाई। यह सोभा वरणी नहिं जाई॥ कोउ उठि चली जातिहै कोऊ। कोउ मग गई मिली मग कोऊ॥ सूरदास प्रभु कुंजविहारी। शरदरास रसरीति विचारी॥ गुंडमलार ॥ शरदनिशि देखि हरि हरष पायो। विपिन वृंदावन सुभग फूले सुमन रास रुचि श्यामके मनहि आयो॥ परम उज्ज्वलरैनि छिटकि रही भूमि पर सद्यफल तरुन प्रति लटकि लागे। तैसोई परम रमणीक यमुना पुलिन त्रिविध वहै पवन आनंद जागे॥ राधिका रवन वन भवन सुख देखिकै अधर धरि वेनु सुरललित बजाई। नाम लैलै सकल गोपकन्यानके सबनके श्रवन वह ध्वनि सुनाई॥ सुनत उपज्यो मैन परत काहुन चैन शब्द सुनि श्रवन भई विकल भारी। सूर प्रभु ध्यान धरिकै चलीं उठि सबै भवन जन नेह तजि घोषनारी॥८०॥ विहागरो ॥ सुनहु हरि मुरली मधुर बजाई। मोहे सुर नर नाग निरंतर ब्रजवनिता मिलि धाई॥ यमुना नीर प्रवाह थकित भयो पवन रह्यो मुरझाई। खग मृग मीन अधीन भए सब अपनी गति बिसराई॥ द्रुमवल्ली अनुराग पुलकतनु शशिथक्यो निशि न घटाई। सूरश्याम वृंदावन विहरत चलहु सखी सुधिपाई॥८१॥ विहागरो ॥ मुरली सुनत उपजी वाइ। श्यामसों अतिभाव बाढो चलीं सब अकुलाइ॥गुरुजननसों भेद काहू कह्यो नहीं उघारि। अर्ध रैनि चली घरनिते यूथ यूथनि नारि॥ नंदनंदन तरुनि बोलीं शरद निशिके हेत। रुचि सहित वनको चलीं वै सूर भई अचेत॥८२॥ गुंडमलार ॥ सुनत सुरली भवन डर न कीन्हों। श्यामपै चित्त पहुँचाइ पहिले दियो आप उठि चली सुधि मदन दीन्हों॥ कहत मनका मना आज पूरण करैं नंदनंदन सबनि बन बुलाई। जानि लायक भजी तरुनि सुत पति तजी

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