पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३०

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दशमस्कन्ध-१० (३३७) मुरली अति प्यारी वह वैरनि यह सौति । सूर परस्पर:कहत गोपिका-यह उपजी उदभौति॥सारंगा अधररस मुरली लूटन लागी । जा रसको पटऋतु तनु गारयो.सो रस पिवत सभागी। कहां रही कह ते इह आई कोने याहि बुलाई। चकृत कहा भई ब्रजवासिनि यह तो भलीन. आई ॥ साव धान क्यों होत नहीं तुम उपजी बुरी बलाइ । सूरदास प्रभु हमपर याको कीन्हीं सौति बजाइ 'सारंग ॥ आवतही याके ये ढंग । मन मोहन वश भए तुरतही हैगए अंग त्रिभंग ॥ मैं जानी यह टोना जानति करिहै नाना रंग । देखो चरित भजै हरि कैसे या मुरलीके संग ॥ वातनमें कह ध्वनि उपजावति सुरते तान तरंग । सूरदाससे दूर सदन में पैठो बडो भुजंग ॥ अध्याय २९ वंसी ध्वनि सुरगोपीमोह ॥ रासलीलापंचाऽध्यायी ॥ राग टोडी ॥ मुरली सुनत भई सब वौरी। मानहुँ परि शिरमांझ उगोरी ॥ जो जैसे सो तैसे सोरी। तनु व्याकुल सब भई किसोरी। कोउ धरणी कोउ गगन निहारे। कोउ कर करते वासन डारै । कोउ मनही मन बुद्धि विचारै । कोउ बालक नहिं गोद सँभारै। घर घर तरुनी सब विततानी। मन मन कहति कौन यह वानी॥छुटि सव लाज गई कुलकानी। सुत पति आरजपंथ भुलानी ॥ लैलै नाम सवानिको टेरे । मुरली ध्वनि घरहीके नेरे॥ कोउ जेवत पतिहीतन है। कोउ दधिमें जावनपय फेरै ॥ कोउ उठि चली जैसही तैसे । फिरि आवहि घरहीमें पैसे ॥ घर पाछे मुरली ध्वनि ऐसे । आँगनगए नहीं वह जैसे ॥ गृह गुरुजन तिनहूं सुधि नाहीं। कोउ कतहं कोउ कतहं जाहीं॥ कोउ निरखत कोउ काहू माहीं । मुरछयो मदन तरुणि सब डाहीं ॥ व्याकुल भई सबै व्रजनारी । मुरली सों बोली गिरिधारी॥ चली सबै जहँ तहँ सुकुमारी। उपजी प्रीति हृदय हरिभारी ॥ मुरलीश्याम अनूप बजाई । विधि मर्यादा सवनि भुलाई ॥ निशि वनको युवती सव धाई । उलटे अंग अभूपण ठाई । कोउ चलि चरणहार लपटाई । काहू चौकी भुजनि वनाई ॥ अगिया कटि लहँगा उरलाई । यह सोभा वरणी नहिं जाईकोउ उठि चली जातिहै कोऊ । कोउ मग गई, मिली मग कोऊ ॥ सूरदास प्रभु कुंजविहारी । शरदरास रसरीति विचारी ॥ गुंडमलार ॥शरदनिशि देखि हरि हरप पायो। विपिन वृंदावन सुभग फूले सुमन रास रुचि श्यामके मनहि आयो ॥ परम उज्ज्वलरैनि छिटकि रही भूमि पर सद्यफल तरुन प्रति लटकि लागे। तैसोई परम रमणीक यमुना पुलिन त्रिविध वहै पवन आनंद जागे ॥ राधिका वन वन भवन सुख देखिकै अधर धरि वेनु सुरललित वजाई । नाम लैलै सकल गोपकन्यानके सवनके श्रवन वह ध्वनि सुनाई ॥ सुनत उपज्यो मैन परत काहुन चैन शब्द सुनि श्रवन भई विकल भारी । सूर प्रभु ध्यान धरिकै चली उठि सबै भवन जन नेह तजि घोपनारी ॥ ८० ॥ विहागरो॥ सुनहु हरि मुरली मधुर वजाई । मोहे सुर नर नाग निरंतर ब्रजवनिता मिलि धाई ॥ यमुना नीर प्रवाह थकित भयो पवन रह्यो मुरझाई । खग मृग मीन अधीन भए सव अपनी गति विसराई ॥ द्रुमवल्ली अनुराग पुलकतनु शशिथक्यो निशि न घटाई । सूरश्याम वृंदावन विहरत चलहु सखी. सुधिपाई ॥८१ ॥ विहागरो ॥ मुरली सुनत उपजी वाइ । श्यामसों अतिभाव वाढो . चलीं सब अकुलाइ . ॥ .गुरुजननसों भेद काहू.. कह्यो नहीं उघारि । अर्थ रौनि चली परनिते यूथ यूथनि नारि ॥ नंदनंदन तरुनि वोली शरद निशिके हेत । रुचि सहित वनको चली वै सूर भई अचेत ॥ ८२॥ गुंडमलार ।। सुनत सुरली भवन डर न कीन्हों। श्यामपै चित्त पहुँचाइ पहिले दियो आप उठि चली सुधि मदन दीन्हों ॥ कहत मनका मना आज पूरण करैं नंदनंदन सवान बन बुलाई । जानि लायकः भजी तरुनि सुत पति तजी