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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३६

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दशमस्कन्ध-१०


नाशिका ललित वेसरि बनी अधर तट सुभग ताटंक छबि कहि न जाई। धरणि पग पटकि कर झटकि भौंहनि मटकि अटकि मन तहां रीझे कन्हाई॥ तब चलत हरि मटकि रही युवती भटकि लटकि लटकन खटकि छबि विचारै। कहति प्रभु सूर बहुरौ चलौ वैसही हमहु वैसे चलैं जो निहारै॥२७॥ निरखि ब्रजनारि छबि श्यामलाजै। विविधवेनी रची मांग पाटी सुभग भाल वेंदीबिंदु इंदु लाजै॥ श्रवण ताटंक लोचन चारु नासिका हंस खंजन करि कोटि लाजै। अधर विद्रुम दशन नहीं छबि दामिनी सुभगवेसरि निरखि काम लाजै॥ चिबुक तर कंठ श्रीमाल मोतीन छबि कुच उचनि हेम गिरि अतिहि लाजै। सूरकी स्वामिनी नारि ब्रजभामिनी निरखि पिय प्रेम सोभा सुलाजै॥२८॥ विहागरो ॥ बनी ब्रजनारि सोभा भारि। पगनि जेहरि लाल लहँगा अंग पचरँग सारि॥ किंकिणी कटि कुनित कंकन करचुरी झनकार। हृदय चौकी चमकि बैठी सुभग मोतिनहार॥ कंठश्री दुलरी बिराजत चिबुक श्यामल विंद। सुभग वेदी ललित नासा रीझिरहे नँदगंद॥ श्रवणपर ताटंककी छबि गोर ललित कपोल। सूर प्रभु वश अति भएहैं निरखि लोचनलोल॥२९॥ जैतश्री ॥ सुर गण चढि विमान नभ देखत। ललना सहित सुमन गण बरषत जन्म धन्य ब्रजहीको लेखत॥ धनि ब्रजलोग धन्य ब्रजवाला विहरत रास गोपाल। धनि बंसीबट धनि यमुनातट धनि धनि लता तमाल॥ सबते धन्य धन्य वृंदावन नहीं कृष्णको वास। धनि धनि सूरदासके स्वामी अद्भुत राच्यो रास ॥३०॥ बिलावल ॥ नैन सफल अब भए हमारे। षदेवलोक नीसान बजाए बरषत सुमन सुधारे॥ जैजैध्वनि किन्नर मुनि गावत निरखत योग विसारे। शिव शारद नारद यह भात धनि धनि नंददुलारे॥ सुरललना पतिगति विसराए रही निहारि निहारि। जात न बने देखि सुख हरिको आई लोक विसारि॥ यह छबितिहूं भुवनकहुँ नाहीं जो वृंदावन धाम। सुंदर त्रयगुण रसकी सीवां सूर राधिका श्याम॥३१॥ आसावरी ॥ हमको विधि ब्रज बधू न कीन्हीं कहा अमर पुर वास भए। बार बार पछितात यहै कहि सुख हो तो हरि संग रए॥ कहा जन्म जो नहीं हमारो फिरि फिरि ब्रज अवतार भलो। वृंदावन द्रुम लता हूजिए कर तासों मांगिए चलो॥ यह वांछना होइ क्यों पूरण दासी है वरु ब्रज रहिए। सूरदास प्रभु अंतर्यामी तिनहि बिना कासों कहिए॥३२॥ विहागरो ॥धन्य नंद यशुदाके नंदन। धनि श्रीखंड पिंड शिर लटकनि धनि कुंडल धनि मृगमद चंदन॥ धनि राधिका धन्य सुंदरता धनि मोहनकी जोरी। ज्यों घनमध्य दामिनीकी छबि यह उपमा कहौं थोरी॥ धनि मंडली जुरी गोपिनकी ताविच नंदकुमार। राधा श्याम सब गोपकुमारी क्रीडत रास विहार॥ षट दश सहस गोपकीनारी षट दश सहस गुपाल। काहूसों कहुँ अंतर नाहीं करत परस्पर ख्याल॥ धनि ब्रजबास आश यह पूरण कैसे होति हमारी। सूर अमर ललना गण अंमर विथकी लोक बिसारी॥३३॥ मलार ॥ मानो माई घन घन अंतर दामिनि। घन दामिनि दामिनि घन अंतर सोभित हरि ब्रज भामिनि॥ यमुना पुलिन मल्लिका मनोहर शरद सुहाई यामिनि। सुंदर शशि गुण रूप राग निधि अंग अंग अभिरामिनि॥ रच्यो रास मिलि रसिकराइ सों मुदित भई ब्रज भामिनि। रूपनिधान श्यामसुंदर घन आनंद मन विश्रामिनि॥ खंजन मीन मराल हरन छबि भान भेद गज़गामिनि। को गति गुनही सूरश्याम सँग काम विमोह्यो कामिनि॥३४॥ मलार ॥ देखो माई रूप सरोवर साज्यो। ब्रजवनिता वरवारि वृंद में श्री ब्रजराज विराज्यो॥ लोचन जलज मधुप अलकावलि कुंडल मीन सलोल। कुच चक्रवाक विलोकि वदन विधु विछुरि रहे अन