पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३६

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दशमस्कन्ध-२० नाशिका ललित वेसरि बनी अधर तट सुभग ताटंक छवि कहि न जाई । धरणि पग पटकि कर | झटकि भौहनि मटकि अकि मन तहां रीझे कन्हाई । तब चलत हरि मटकि रही युवती भटकि लटकि लटकन खटकि छवि विचारै । कहति प्रभु सूर बहुरौ चलौ वैसही हमहु वैसे चलें जो निहारै ॥२७॥ निरखि व्रजनारि छवि श्यामलाजै । विविधवेनी) रची मांग पाटी सुभग भाल वेंदीविंदु इंदु लाजै ॥ श्रवण ताटक लोचन चारु नासिका हंस खंजन कीर कोटि लाजै । अधर विद्यम दशन नहीं छवि दामिनी सुभगवेसरि निरखि काम लाजै ॥ चिबुक तर कंठ श्रीमाल मोतीन छवि कुच उचनि हेम गिरि अतिहि लाजै । सूरकी स्वामिनी नारि ब्रजभामिनी निरखि पिय प्रेम सोभा सुलाजै ॥ २८ ॥ विहागरो ॥ बनी वजनारि सोभा भारि । पगनि जेहरि लाल लहँगा अंग पचरंग सारि ॥ किंकिणी कटि कुनित कंकन करचुरी झनकार । हृदय चौकी चमकि वैठी सुभग मोतिनहार ।। कंठश्री दुलरी विराजत चिवुक श्यामल विंदासुभग वेदी ललित नासा रीझिरहे नँदगंद ॥ श्रवणपर ताटककी छवि गोर ललित कपोल । सूर प्रभु वश अति भएहैं निरखि लोचनलोल ॥२९॥ जैतश्री ॥ सुर गण चढि विमान नभ देखत । ललना सहित सुमन गण वरपत जन्म धन्य ब्रजहीको लेखत ॥ धनि उनलोग धन्य बजवाला विहरत रास गोपाल । धनि वंसीवट धनि यमुनातट धनि धनि लता तमाल ॥ सवते धन्य धन्य वृंदावन नहीं कृष्णको वास। धनि धनि सूरदासके स्वामी अद्धत राच्यो रास ॥३०॥ विलावल ॥ नैन सफल अव भए हमारे । देवलोक नीसान बजाए वरपत सुमन सुधारे । जनैध्वनि किन्नर मुनि गावत निरखत योग विसारे। शिव शारद नारद यह भापत धनि धनि नंददुलारे ॥ सुरललना पतिगति विसराए रही निहारि निहारिरी जात न बने देखि सुख हरिको आई लोक विसायिह छवितिहं भुवनकङ नाही जो वृंदावन धाम । सुंदर त्रयगुण रसकी सीवां सूर राधिका श्याम ॥ ३१ ॥ आसावरी ॥ हमको विधि ब्रज वधून कीन्हीं कहा अमर पुर वास भए । बार बार पछितात यहै कहि सुख हो तो हरि संग रए ॥ कहा जन्म जो नहीं हमारो फिरि फिरि व्रज अवतार भलो । वृंदावन द्रुमलता हाजिए कर तासों मांगिए चलो ॥ यह वांछना होइ क्यों पूरण दासी है वरु बजरहिए। सूरदास प्रभु अंतर्यामीतिनहि विना कासों कहिए ॥३२॥ विहागरो ॥धन्य नंद यशु दाके नंदन । धान श्रीखंड पिंड शिर लटकान धान कुंडल पनि मृगमद.चंदन ॥धनि राधिका धन्य सुंदरता धनि मोहनकी जोरी । ज्यों वनमध्य दामिनीकी छवि यह उपमा कहौं थोरी ॥ धनि मंडली जुरी गोपिनकी ताविच नंदकुमार । राधा श्याम सब गोपकुमारी क्रीडत रास विहार ॥ पट दश सहस गोपकीनारी पट दश सहस गुपाल । काहूसों कहुँ अंतर नाही करत परस्पर ख्याल ॥ धनि व्रजवास आश यह पूरण कैसे होति हमारी । सूर अमर ललना गण अंमर विथकी लोक विसारी ॥३३॥ मलार ॥ मानो माई घन घन अंतर दामिनि । घन दामिनि दामिनि.घन अंतर सोभित हरि व्रज भामिनि ॥ यमुना पुलिन मल्लिका मनोहर शरद सुहाई यामिनि । सुंदर शशि गुण रूप राग निधि अंग अंग अभिरामिनि ॥ रच्यो रास मिलि रसिकराइ सों मुदित भई ब्रज भामिनि । रूपनिधान श्यामसुंदर घन आनंद मन विश्रामिनि। खंजन मीन मराल हरन छवि भान भेद गज़गामिनि । को गति गुनही सूरश्याम सँग काम विमोझो कामिनि ॥ ३४ ॥ मलार ॥ देखो माई रूप सरोवर साज्यो । ब्रजवनिता वरवारि वृंद में श्री ब्रजराज विराज्यो ॥ लोचन जलज ॥ मधुप अलकावलि कुंडल मीन सलोल । कुच चक्रवाक विलोकि वदन विधु विछुरि, रहे. अन. |