पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४४६

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.. .. -- दर्शमस्कन्ध-१० सुंदरी जो जहां तहारी ॥ तनकी तनकहु सुधि नहीं व्याकुल भई चाला । यहती अति बेहाल है कहां गए गोपाला ॥ वारवार बूझति सवै नहिं बोलति वानी । सूरझ्याम काहे तजी कहि सब पछितानी ॥९८॥ सारंगाराधे कत निकुंज ठाढी रोवति । इंदु ज्योति मुखाविंदकी चकित चहाँदेशि जोवति ॥ द्वमशाखा अवलंब वेलि गहि नखसों भूमि खनोवति । मुकुलित कच तन वनकि ओटद्वै अँसुवंनि चीर निचोवति ॥ सूरदास प्रभु तजी गर्वते भये प्रेम गति गोवति ॥ ९९ ॥ भैरव ॥ क्यों राधा नाहं बोलतिहै । काहे धरणि परी व्याकुलदै काहे नैनन खोलतिहै ॥ कनकवेलिसी क्यों मुरझानी क्यों वनमांझ अकेलीहै । कहांगए मनमोहन तजिकै काहे विरह दहेलीहै ।। श्याम नाम श्रवणनि ध्वनि सुनिकै सखियन कंठ लगावतिहै । सूरश्याम आए यह कहि कहि ऐसे मन हरपावति ।।१८००॥विहागरोकहां रहे अवलौं तुम श्याम । नैन उघारि निहारि रहा तहां जो देखें ब्रजवाम ॥ लागी करन विलाप सबनसों श्याम गए मोहि त्यागि। तुमको नहीं मिले नँदनंदन बूझतिहै तब जागि ॥ निरखि वदन वृपभानु कुँवारको मनो सुधा विन चंद । राधा विरह देखि विरहानी यह गति बिन नँदनंद ॥ या वनमें कैसे तुम आई श्यामसंगहें नाहीं । कछु जानति कहां गए कन्हाई तहाँ तोहि लैजाहीं।। मैं हठ कियो वृथारी माई जिय उपज्यो अभिमान । सूरश्याम ऊपर मोहिं आनी द्वैगए अंतर्ध्यान ॥ १॥ विहागरो ॥ मैं अपने मन गर्व बढ़ायो । इहै कयो पिय कंध चढोंगी तब मैं भेद न पायो। यह वाणी सनि हँसे कंठभरि भुजनि उछंगि लई। तब मैं कह्यो कोनहै मोसी अंतर जानि लई ।। कहाँगए गिरिधर मोको तजि ह्या कैसे मैं आई। सूरझ्याम अंतर भए मोते अपनी चूक सुनाई ॥२॥ विहागरो ॥ रुदन करति वृपभानुकुमारी । बार वार सखियन उर लावंति कहांगए गिरिधारी ॥ कवहूं गिरति धरणि. पर व्याकुल देखि दशा ब्रजनारी । भरि अंकवारि धरति मुख पोछति देति नेन जल ढारी। त्रिया पुरुपसों भाव करतिहै जाने निठुर मुरारी। सूरश्याम कुलधर्म आपनो लये रहत वनवारी ॥३॥ गौरी ॥ नंदनंदन उनको हम जानति। ग्वालन संग रहत जे माई यह कहि कहि गुण गानति ॥ वन वन धेनु चरावत वासर त्रिया वधत डर नाहीं ॥ देखिदशावृपभानुसुताकी बजतरुणी पछिताहीं ॥ कहा भयो त्रिय जो हठ कीन्हों यह न वृझिए श्यामहि ।सूरदास प्रभु मिलहु कृपाकरिद्वारे करहु मनतामहि॥४॥कल्याणाराधिकासों कह्योधीरमन धरिरी । मिलेंगेश्याम व्याकुल दशा जिनि करै हरप जिय करौ दुख दूरि करिरी॥ आपुजहँ तहँ गई विरह सब पगिरई कुवरि सों कहि गई श्याम ल्यावे। फिरति वन वन विकल सहस सोरह सकल ब्रह्मपूरन अकल नहीं पावै ॥ कहां गए यह कहति सबै मग जोवहीं कामतनु दहति वजनारि भारी । सूर प्रभु श्याम दुरि चरित देखहि सकल गर्व अंतर हृदय हेत नारी॥६॥बिलावल।। श्याम सवनिको देखहीं वै देखात नाहीं। जहां तहां व्याकुल फिर तनु धीरज नाहीं ॥ कोउ वंसीवटको चली कोउ वन घन जाही। देखि भूमि वह रासकी जहँ तहँ पगछाहीं ॥ सदा हठीली लाडिली कहि कहि पछिताहीं । नैन सजल जल ढारिकै व्याकुल मनमाहीं ॥ एक एक ढूंढहीं तरुनी विकलाही । सूरज प्रभु कहुँ नहिं मिले ढूंढति द्रुम पाहीं ॥ ६॥ रामकली ॥ कहिधौंरी वन वेलि कहूं तुम देखे नँदनंदन । बूझह धौं मालती कहूं तैं पाए, तनुचंदन । कहिधौं कुंद कदम बकुल वट चंपक लता तमाल । कहिधों कमल कहां कमलापति सुंदर नैन विसाल ॥ श्याम श्याम कहि कहति फिरति यह ध्वनि वृंदावन छायोरी । गर्व जानि पिय अंतरदै रहे सो मैं वृथा वढ़ायोरी। अब विन देखे कल न परत छिनश्याम सुंदर गुण गारोरी । मृग मृगंनी तुम