सुंदरी जो जहां तहारी॥ तनकी तनकहु सुधि नहीं व्याकुल भई बाला। यहतौ अति बेहाल है कहां गए गोपाला॥ बांरबार बूझति सबै नहिं बोलति वानी। सूरश्याम काहे तजी कहि सब पछितानी॥९८॥ सारंग ॥ राधे कत निकुंज ठाढी रोवति। इंदु ज्योति मुखार्विंदकी चकित चहूँदिशि जोवति ॥ द्रुमशाखा अवलंब बेलि गहि नखसों भूमि खनोवति। मुकुलित कच तन घनकि ओटह्वै अँसुवनि चीर निचोवति॥ सूरदास प्रभु तजी गर्वते भये प्रेम गति गोवति॥९९॥ भैरव ॥ क्यों राधा नहिं बोलतिहै। काहे धरणि परी व्याकुलह्वै काहे नैनन खोलतिहै॥ कनकवेलिसी क्यों मुरझानी क्यों बनमांझ अकेलीहै। कहांगए मनमोहन तजिकै काहे विरह दहेलीहै॥ श्याम नाम
श्रवणनि ध्वनि सुनिकै सखियन कंठ लगावतिहै। सूरश्याम आए यह कहि कहि ऐसे मन हरपावतिहै॥१८००॥ विहागरो ॥ कहां रहे अबलौं तुम श्याम। नैन उघारि निहारि रहा तहां जो देखै ब्रजवाम॥ लागी करन विलाप सबनसों श्याम गए मोहि त्यागि। तुमको नहीं मिले नँदनंदन बूझतिहै तब जागि॥ निरखि बदन वृषभानु कुँवरिको मनो सुधा विन चंद। राधा विरह देखि
विरहानी यह गति बिन नँदनंद॥ या वनमें कैसे तुम आई श्यामसंगहैं नाहीं। कछु जानति कहां गए कन्हाई तहाँ तोहिं लैजाहीं॥ मैं हठ कियो वृथारी माई जिय उपज्यो अभिमान। सूरश्याम ऊपर मोहिं आनी ह्वैगए अंतर्ध्यान॥१॥ विहागरो ॥ मैं अपने मन गर्व बढ़ायो। इहै कह्यो पिय कंध चढौंगी तब मैं भेद न पायो॥ यह वाणी सनि हँसे कंठभरि भुजनि उछंगि लई। तब मैं कह्यो कोनहै मोसी अंतर जानि लई॥ कहाँगए गिरिधर मोको तजि ह्या कैसे मैं आई। सूरश्याम अंतर भए मोते अपनी चूक सुनाई॥२॥ विहागरो ॥ रुदन करति वृषभानुकुमारी। बार बार सखियन उर लावति कहांगए गिरिधारी॥ कबहूं गिरति धरणि पर व्याकुल देखि दशा ब्रजनारी। भरि
अँकवारि धरति मुख पोंछति देति नैन जल ढारी। त्रिया पुरुपसों भाव करतिहै जाने निठुर मुरारी। सूरश्याम कुलधर्म आपनो लये रहत बनवारी॥३॥ गौरी ॥ नँदनंदन उनको हम जानति। ग्वालन संग रहत जे माई यह कहि कहि गुण गानति ॥ वन वन धेनु चरावत वासर त्रिया वधत डर नाहीं॥ देखि दशा वृषभानुसुताकी ब्रजतरुणी पछिताहीं॥ कहा भयो त्रिय जो हठ कीन्हों यह न बूझिए श्यामहि। सूरदास प्रभु मिलहु कृपाकरि दूरि करहु मनतामहिं॥४॥ कल्याण ॥ राधिकासों कह्यो धीर मन धरिरी। मिलैंगे श्याम व्याकुल दशा जिनि करै हरष जिय करौ दुख दूरि करिरी॥
आपुजहँ तहँ गई विरह सब पगिरई कुँवरि सों कहि गई श्याम ल्यावै। फिरति वन वन विकल सहस सोरह सकल ब्रह्मपूरन अकल नहीं पावै॥ कहां गए यह कहति सबै मग जोवर्ही कामतनु दहति ब्रजनारि भारी। सूर प्रभु श्याम दुरि चरित देखहिं सकल गर्व अंतर हृदय हेत नारी॥५॥ बिलावल ॥ श्याम सबनिको देखहीं वै देखात नाहीं। जहां तहां व्याकुल फिरैं तनु धीरज नाहीं॥ कोउ बंसीवटको चली कोउ वन घन जाहीं। देखि भूमि वह रासकी जहँ तहँ पगछाहीं॥ सदा हठीली लाडिली कहि कहि पछिताहीं। नैन सजल जल ढारिकै व्याकुल मनमाहीं॥ एक एक ढूंढहीं तरुनी विकलाही। सूरज प्रभु कहुँ नहिं मिले ढूंढति द्रुम पाहीं॥६॥ रामकली ॥ कहिधौंरी बनवेलि कहूं तुम देखेहै नँदनंदन। बूझह धौं मालती कहूं तैं पाए हैं तनुचंदन। कहिधौं कुंद कदम बकुल वट चंपक लता तमाल। कहिधौं कमल कहां कमलापति सुंदर नैन विसाल॥ श्याम श्याम कहि कहति फिरति यह ध्वनि वृंदावन छायोरी॥ गर्व जानि पिय अंतरह्वै रहे सो मैं वृथा बढ़ायोरी। अब बिन देखे कल न परत छिन श्याम सुंदर गुण गारोरी। मृग मृगनी द्रुम
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दशमस्कन्ध-१०
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