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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४४८

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दशमस्कन्ध-१०


अंतर भए हैं जाते तुमसों कहति बातैं मैंहीं कियो द्वंदन। सूरदास प्रभु बिनु भईहौं विकल आली कहां रहे बनमाली सुर नर मुनि जन वंदन॥१८॥ बिलावल ॥ मिलहु श्याम मोहिं चूक परी। तेहि अंतर तनुकी सुधि नाहीं रसना रट लागी न टरी॥ धरणि परी व्याकुल भई बोलति लोचन धारा अंसुझरी। कबहूँ मगन कबहुँ सुधि आवति शरन शरन कहि विरह जरी॥ कृष्ण कृष्ण करि टेरि उठति है युगसम बीतत पलक घरी। सूर निरखि ब्रजनारि दशा यह चकित भई जहँ तहां खरी॥१९॥ देखि दशा सुकुमारिकी युवती सबधाई। तरु तमाल बूझति फिरैं कहि कहि मुरझाई॥ नँदनंदन देखे कहूं मुरली कर धारी। कुंडल मुकुट बिराजई तनु कुंडल भारी॥ लोचन चारु विलास हैं नासा अतिलोनी। अरुन अधर दशनावली छबि वरणै कोनी॥ बिंब पँवारे लाजहीं दामिनि दुति थोरी। ऐसे हरि हमको कहौ कहुँ देखे हौरी। अंग अंग छबि कहा कहै देखे बनि आवै। सुरश्याम पावै नहीं को काहि बतावै॥२०॥ बिलावल ॥ अति व्याकुल भई गोपिका ढूंढति गिरिधारी। बूझति है बन बेलि सों देखे बनवारी॥ जाही जूही सेवती करनाकनिआरी। बेलि चमेली मालती बूझति द्रुमडारी॥ बूझा मरुआ कुंदसों कहै गोद पसारी। वकुल बहुलि बट कदमपै ठाढीं ब्रजनारी॥ बार २ हाहा करैं कहुँ हौ गिरिधारी। सूरश्यामको नाम लै लोचन जल ढारी॥२१॥ कहूं न पावैं श्यामको बूझत बन बेली। सबै भई व्याकुल फिरैं तन मदन दहेली॥ मृगनारीसों बूझहीं बूझैं सुकुमारी। कमल सरोवर बूझहीं बिरहा तनु भारी॥ कनक वेलिसी सुंदरी द्रुमके तर डारी। मानों दामिनि धरणि परी की सुधा पनारी॥ इत उतते फिरि आवहीं जहँ राधा प्यारी। सूरश्याम अजहूं नहीं करि मिलत कृपारी॥२२॥ विहागरो ॥ करति हैं हरि चरित्र ब्रजनारि। देखि अतिही विकल राधा इहै बुद्धि विचारि॥ एक भई गोपालको वपु एकभई बनवारि। एकभई गिरिधरन समरथ एक भई दैत्यारि॥ एकभई वे धेनु बछरा एकभई नँदलाल। एकभई जमला उधारन इक त्रिभंग रसाल॥ एक भई छबि राशि मोहन कहत राधा नारि। एक कहति उठि मिलहु भुजभरि सूर प्रभुरी प्यारि॥२३॥ जैतश्री ॥ सुनत ध्वनि श्रवण उठी अकुलाइ। जो देखै नँदनंदनही वै सखियन भेष बनाइ॥ कहा कपट करि मोहिं देखावति कहां श्याम सुखदाइ। कृष्ण कृष्ण शरणागत कहि के बहुरि गिरी भहराइ॥ पुनि दौरी जहँ तहँ ब्रजवाला बन द्रुम सोर लगाइ। सूरदास प्रभु अंतर्यामी विरहिनि लेहु जिवाइ॥२४॥ कान्हरो ॥ कृपासिंधु हरि क्षमा करौ हो। अनजाने मन गर्व बढ़ायो सो अपने जिनि हृदय धरौ हो॥ सोरहसहस पीर तन एकै राधा जिव सब देह। ऐसी दशा देखि करुणा मै प्रगट्यो हृदय सनेह॥ गर्व हत्यो तनु विरह प्रकाश्यो प्यारी व्याकुल जानि। सुनहु सूर अब दरशन दीजै चूक लई इनि मानि॥२६॥ केदारो ॥ अहो तुम आनि मिलौ नंदलाल। दुर्बल मलिन फिरत हम वन वन तुम बिनु मदन गोपाल॥ द्रुम वेली पूंछति सब उझकति देखति ताल तमाल। खेलत रास रंग भरि छांडी ले जु गये ककवाल॥ सूरदास सब गोपी पछिली क्रीडा करति रसाल। गोपीवृंदमध्य जगजीवन प्रगट भए तेहिकाल॥ ॥२६॥ हरिबिनु लागतहै बन सूनो। ढूंढति फिरति सकल ब्रजयुवती दहत काम दुखदूनो। तजिसुत पति सुनि श्रवणनिधाई मुरलिनादमृदु कीनों॥ व्यापत मकर मीन अति आतुर मनहुँ मीन जल हीनो। चितवति चकित दिशनदिश हेरति मनमोहन हरलीनो। द्रुम वेली पूछे सब सुंदरि नवल जात कहुँ चीनों॥ कदली वोट निचोरत अंचल अधर सुधारस पीनो। सूरश्यामप्रिय प्रेम