मध्य श्यामल रुचि बिंद। देखि सबनि रीझे गोविंद॥ रास रसिक गुण गाइहो॥१८ ॥ सपन विमान गगन भरि रहे। कौतुक देखन अमर उमहे॥ नन सुफल सबके भए*बाजे देवलोकनीसान। बरषत सुमन करत सुरगान॥ मुनि किन्नर जय जय ध्वनि करैं*युवतिन बिसरे पति गति गेह। प्रेममगन सब सहित सनेह॥ यह सुख हमको हो कहां*सुंदरता सब सुखकी खानि। रसना एक नपरत बखानि॥ रास रसिक गुण गाइहो॥१९॥ नील कंचुकी मांडनिलास। भुजनि नवइ आभूषण माल॥ पीत पिछौरी श्यामतनु*अँगुरिन मुँदरी पहुँची पानि। कछि कटि कछिनी किंकिनि
वानि॥ उर नितंब बेनी तुरै*नारावंदन सूथन जंघन। पायँननूपुर बाजत संघन॥ नखन महावर खुलिरह्यो*श्रीराधा मोहन मंडल मांझ। मनहु विराजत चंदा साँझ॥ रास रसिक गुण गाइहो॥२०॥ पग पटकत लटकत लट वाहु। मटकत भौंहन हस्त उछाहु॥ अंचल चंचल झूमका*दुरि दुरि देखत नैनन सैन। मुखकी हँसी कहत मृदु वैन॥ मंडित गंड प्रस्वेदकन*चोरी डोरी विगलित केश। झुमत लटकत मुकुट सुदेश॥ फूल खसत शिरतेघने*कृष्णवधू पावन यश गाइ। रीझत मोहन कंठ लगाइ॥ रास रसिक गुण गाइहो॥२१॥ बाजत भूषण ताल मृदंग। अंग दिखावत सरस सुगंध॥ रंग रह्योन को परै*नूपुर किंकिनि कंकनचुरी। उपजत मिश्रित ध्वनि माधुरी। सुनत सिराने श्रवण मन*मुरली मुरज रवाव उपंग। उघटत
शब्द बिहारी संग। नागरि सब गुण आगरी*गोपमिंडल मंडित श्याम। कनक नीलमणि जनु अभिराम॥ रास रसिक गुण गाइहो॥२२॥ तिरपलोत सुंदर भामिनी। मनहु विराजत घनदामिनी। या छवबिकी उपमानहीं*राधाकी गति परत नलखी। रससागरकी सींवानखी॥ बलिहारी वा रूपकी*लेति सुघर औघरगति तान। दै चुंबन आकर्षति प्राण॥ भेटति मेटति दुख सबै*राखति पियहि कुचन बिच आनि। दै अधरामृत शिरपर पानि॥ रास रसिक गुण गाइहो॥२३॥ हरषित वेणु बजायो छैल। चंद्रहि बिसरी नभकी गैल॥ तारागण मनमें लज्यो*सुरली ध्वनि वैकुंठहि गई। नारायण सुनि प्रीति जु भई॥ कहत वचन कमला सुनौ*श्रीकुंजविहा
रीविहरत देखि। जीवन जन्म सफलकरि लेखि॥ इहसुख तिहुँपुरहै कहां*श्रीवृंदावन हमते दूरि। कैसे धौ उडिलागे धूरि। रासरसिक गुणगाइहो॥२४॥ कोलाहल ध्वनि दहदिशजाति। कल्पस मान भई सुखराति॥ जीवजंतु मैमँतसबै*उलटि वह्यो यमुनाको नीर। बालक बच्छ नपीवैंक्षीर॥ राधारवन ठगे सबै*गिरिवर तरुवर पुलकित गात। गोधन थनते दूध चुचात॥ सुनि खग मृग मुनि ब्रत धरयौ* महिफूली भूल्यो गति पौन। सोवत ग्वाल तजतनहिं भौन। रास रसिक गुण गाइहो॥२५॥ राग रागिनी मूरतिवंत। दूलह दुलहिनि सरस बसंत॥ कोक कला
संगीत गुर*सप्तसुरनकी जाति अनेक। नीके मिलवति राधा एक॥ मनमोह्यो पियको सुघर*छंद ध्रुवनिके भेद अपार। नाचति कुँवरि मिले झपतार॥ कह्योसबै संगीतमें*पिकनि रिझावति सुन्दर सुपद। सरस स्वल्प ध्वनि उघटत शबद॥ रास रसिक गुण गाइहो॥२६॥ चलति सुमोहति गति गज हंस। हँसतपरस्पर गावत गंस॥ तान मान मृगमथनके*गौरीचंदन चरचित वाहु॥ लेत सुवास पुलक तनु नाहु। दैचुंबन हरि सुख लियो*श्यामल गौर कपोल सुचारु। रीझि परस्पर लेत उगारु। एक प्राण द्वैदेहहैं*नाचत गावत गुणकी खानि। श्रमित भए टेकत पिय पानि॥ रास रसिक गुण गाइहो॥२७॥ पिक गावत आलिनादहि देत। मोर चकोर फिरत सँग हेत॥ सघन सुमनहारहैं मनों*कच कुच विंदरसे हँसिश्याम। चलत भौंह नैनन अभिराम॥ अंगन
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५४
दिखावट
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३६१)
दशमस्कन्ध-१०
४६