पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५४

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(३६) दशमस्कन्ध-१० मध्य श्यामल रुचि विंद । देखि सपनि रीझे गोविंद ॥ रास रसिक गुण गाइहो ॥ १८॥ सपन विमान गगन भरि रहे । कौतुक देखन अमर उमहे ।। नन सुफल सबके भए वाजे देवलोकनीसा न । वरपत सुमन करत सुरगान।।मुनि किन्नर जय जय ध्वनि करें - युवतिन विसरे पति गति गेह। प्रेममगन सब सहित सनेह ।। यह सुख हमको हो कहां * सुंदरता सब सुखकी खानि । रसना एक नपरत वखानि ॥ रास रसिक गुण गाइहो ॥ १९॥ नील कंचुकी मांडनिलास । भुजान नवइ आभू पण माल | पीत पिछौरी श्यामतनु * अँगुरिन मुंदरी पहुँची पानि । काछ कटि कछिनी किंकिनि वानि ॥ उर नितंब वेनी तुरै * नारावंदन सूथन जंघन । पायननूपुर वाजत संघन ॥ नखन महा वर खुलिरह्यो श्रीराधा मोहन मंडल मांझ । मनहु विराजत चंदा साँझ ॥ रास रसिक गुण गाइहो ॥२०॥ पग पटकत लटकत लट वाहु । मटकत भौंहन हस्त उछाहु ।। अंचल चंचल झूमका * दुरि दुरि देखत नैनन सैन । मुखकी हँसी कहत मृदु वैन ॥ मंडित गंड प्रस्थ दकन * चोरी डोरी विगलित केश। झुमत लटकत मुकुट सुदेश ॥ फूल खसत शिरतेधने * कृष्णवधू पावन यश गाइ । रीझत मोहन कंठ लगाइ ॥ रास रसिक गुण गाइहो ॥२१॥ वाजत भूपण ताल मृदंग। अंग दिखापत सरस सुगंध ॥ रंग रह्योन को परे * नूपुर किकिनि कंक नचुरी उपजत मिश्रित ध्वनि माधुरी।सुनत सिराने श्रवण मन * मुरली सुरज खाव उपंगाउपटत शब्द विहारी संग । नागरि सब गुण आगरी * गोपमिंडल मंडित श्याम । कनक नीलमणि जनु अभिरामारास रसिक गुण गाइहो ॥२२॥ तिरपलोत सुंदर भामिनी । मनहु विराजत घनदा मिनी । या छविकी उपमानहीं * राधाकी गति परत नलखी । रससागरकी सीवानखी।बलिहारी वा रूपकी लेति सुघर औघरगति तान । दै चुंबन आकर्पति प्राण ॥ भेटति मेटति दुख सबै * राखति पियहि कुचन विच आनि । दै अधरामृत शिरपर पानि ॥ रास रसिक गुण गाइहो ॥२३॥ हरपित वेणु बजायो छैल । चंद्रहि विसरी नभकी गैल ॥ तारागण मनमें लज्यो * सुरली ध्वनि वैकुंठहि गई । नारायण सुनि प्रीति जु भई ॥ कहत वचन कमला सुनौ * श्रीकुंजविहा रीविहरत देखि । जीवन जन्म सफलकरि लेखि ॥ इहसुख तिहुपुरहै कहां * श्रीवृंदावन हमते दूरि। कैसे धौ उडिलागे धूरि । रासरसिक गुणगाइहो ॥२४॥ कोलाहल ध्वनि दहदिशजाति । कल्पस मान भई सुखराति ॥ जीवजंतु मैमँतसवै * उलटि वह्यो यमुनाको नीर । बालक वच्छ नपी क्षीर ॥ राधारवन ठगे सवै गिरिवर तरुवर पुलकित गात । गोधन थनते दूध चुचात ॥ सुनि खग मृग मुनि व्रत धरचौ ४ महिफूली भूल्यो गति पौन । सोवत ग्वाल तजतनहिं भौन । रास रसिक गुण गाइहो ॥ २५ ॥ राग रागिनी मूरतिवंत । दूलह दुलहिनि सरस वसंत ॥ कोक कला संगीत गुर * सप्तसुरनकी जाति अनेक । नाके मिलवति राधा एक ॥ मनमोह्यो पियको सुघर * छंद ध्रुवनिके भेद अपार । नाचति कुँवरि मिले झपतार ॥ कयोसवै संगीतमें * पिकनि रिझावति सुन्दर सुपद । सरस स्वल्प ध्वनि उघटत शवद ॥ रास रसिक गुण गाइहो।।२६।। चलति सुमोहति गति गज हंस । हँसतपरस्पर गावत गंस ॥ तान मान मृगमथनके * गौरीचंदन चरचित वाहालेत सुवास पुलक तनु नाहु । दैचुवन हरि सुख लियो * श्यामल गौर कपोल सुचारु । रीझि परस्पर लेत उगारु । एक प्राण द्वैदेहहैं * नाचत गावत गुणकी खानि । श्रमित भए टेकत पिय पानि॥ रास रसिक गुण गाइहो ॥२७॥ पिक गावत आलिनादहि देत । मोर चकोर फिरत सँग हेत ॥ सघन सुमनहार, मनों * कच कुच विदरसे हँसिश्याम । चलत भौंह नैनन अभिराम ॥ अंगन -