हरि पै जाइ। जिनकी यह सब सौज राधिका तेरे तनु सब लई छँडाइ॥ इंदु कहै हो बदन बिगोयो अलकन अलि समुदाइ। नैनन मृग वचनन पिक लूटे बिलपत हरिहि सुनाइ॥ कमल करि केहरि कपोत गज कनक कदलि दुखपाइ। विद्रुम कुंद भुजंग संग मिलि शरन गए अकुलाइ॥ अति अनीति जिय जानि सूर प्रभु पठई मोहिं रिसाइ। बोलीहै ब्रजनारि बेगि चलि अब उत्तर दे आइ॥८६॥ कल्याण ॥ चलराधे हरि रसिक बुलाई। कमलनयन कछु मर्म कह्यो नहिं मोहन बदन करन पुट लाई॥ अँग अँग सर्वसु हरन लगीरी राच विरंचि तुब वनक बनाई। अब जो पुकार करत तेरे तनु जितजी वनकी सब सोभा चुराई॥ मांग उरग नव तरनि तरौना तिलकभाल शशिकी ससकाई भ्रुकुटी शरधनु सांधि वचन वर सुरपुर परिहै मदन दोहाई॥ दाडिमवज्र पंगति पंकज दल दामिनि घन दुतिरदन दोहाई। कंचुकपोत कंठ निशि वासर बाहुबली कटि कंज लताई॥ उरभय भेष शेष अधर नपट यमुन मानो छबि कटि मृगराज सुहाई। हंस पुकार करत सूरज प्रभु दीनबंधु हौं लेन पठाई॥८७॥ कान्हरो ॥ मान करो तुम और सवाई। कोटि करौ एकै पनि ह्वैहौ तुम अरु वे मनमोहन माई॥ मोहनसों सुनि नाम श्रवणही मगन भई सुकुमारी। मान गयो रिसगई तुरतही लज्जित भई मन भारी॥ धाइ मिली दूतिका कंठ सों धन्य धन्य कहि वानी। सूरश्याम वनधाम जानिकै दरशनको अतुरानी॥८८॥ बिलावल ॥ हँसिकै कह्यो दूतिका आगे श्यामहि सुख देरी तू जाई। करि स्नान अभूषण अँगभरि मैं आवति तो पाछे धाई॥ यह सुनि हर्ष भई अतिही सखि गई तहां जहँ श्याम। अति व्याकुल तनुकी सुधि नाहीं विह्वल कीन्हो काम॥ की वनमें की घरही बैठे की वासर की याम। सूरश्याम रसना रट लागी राधा राधा नाम॥८९॥ रामकली ॥ श्याम नारिके विरह भरे। कबहुँक बैठत कुंज द्रुमनतर कबहुँक रहत खरे॥ कबहुँक तनुको सुरति विसारत कबहुँक तनु सुधि आवत। तब नागरिके गुणहि विचारत तेइ गुण गुनि गुनि गावत॥ कहूं मुकुट कहुँ मुरलि रही गिरि कहुँ कटि पीत पिछौरी। सूरश्याम ऐसी गति भीतर आई दूतिका दौरी॥९०॥ ॥ बिलावल ॥ श्याम भुजागहि दूतिका कहि आतुर बानी। काहेको कदरातहौं मैं राधा आनी॥ विरह दूरि करि डारिए सुख करौ कन्हाई। त्रिया नाम श्रवणनि सुन्यो चितए अकुलाई॥ मिले दूति कहि अंक दै लोचन भरि आए। प्यारी प्यारी बोलिकै युवती उरलाए॥ तब बोली हँसि दूतिका पिय आवति नारी। सूरश्याम सुनि बोल वै हरषे बनवारी॥९१॥ गूजरी ॥ धीर धरौ प्यारी अब आवति। मैं जुगई परतिज्ञा कारकै सो कहिबात जनावति॥ मनचिंता अब दूरि करौ जू कहौ न कह मोहिं देहौ। बनि आवति वृषभानुनंदिनी भुजभार अंकम लेहौ॥ यह सुंदरता और नहीं कहुँ बड़भागी सो पावै। सूरश्याम दूतिका वचन सुनि करयुग काम मनावै॥९२॥ जैतश्री ॥ यह सुनिकै मन श्याम सिहात। पुलकित अंग रहै नहिं धीरज पुनि पुनि पंथ निहारत जात॥ कुंजभवन कुसुमनकी सेज्या अपने हाथ निवारत पात। जे द्रुम लता लटकि तनु लागत ते ऊंचे धरि पुलकित गात॥ प्यारी अँग अतिकोमल जानत सेजकली चुनि डारत। सूरश्याम रीझत मनहीं मन सुधि करि
छबिहि निहारत॥९३॥ कल्याण ॥ दूतिका हँसति हरि चरित हेरै। कबहुँ कर अपने रचत सुमन नसेज कबहुँ मग निरखि कहूँ भयो झेरै॥ काम आतुर भरे कबहुँ बैठत खरे कबहुँ आगे जाइ रहत ठाढे। चतुर सखि देखि पुनि राधिका पैगई झेरक्यों करति धनकंत चाढे॥ सुनत प्यारी हँसी पियाके मनबसी रूप गुण कर यशी प्रेमरासी। सूर प्रभु नाम सुनि मदन तन बल भयो अंग प्रति छबि उपरमा दासी॥९४॥ धनाश्री ॥धनि वृषभानुसुता बड़भागिनि। कहा निहारति अंग
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४५९
दिखावट
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३६६)
सूरसागर।
