पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४६६

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दशमस्कन्ध-१० (३७३) जनु पानी। वारंवार श्याम रति रसकी कही प्रगट करि वानी ॥ वासर कल्प समान न बीतत कैसे हुँ नि तुलानी । सूर देखि गति गत पतंगकी अवधि जानि हरपानी ॥ ४५ ॥ फल्याण ॥ राधिका गेह हरि देह वासी । और त्रिय घरन घर तनु प्रकासी।ब्रह्मपूरण एक द्वितीय नहिं कोजाराधिका सबै हरि सवे कोऊ ॥ दीप सों दीप जैसे उजारी । तैसेही ब्रह्म घर घर विहारी ॥ खंडिता वचन हित यह उपाई । कबहुँ कहुँ जात कहुँ नहिं कन्हाईजन्मको सफल हरि इहै पावनारि रस वचन श्रवणन सुनावै ॥ सूर प्रभु अनतही गमन कीन्हों। तहां नहिं गए जहां वचन दीन्हों ॥१६॥ टोडी ॥ श्याम गए सुखमाके धाम। देखत हर्प भई मनवाम ॥ आतुर मंदिर गए समाइ। प्यारी प्रेम उठी झहराइ ॥ श्याम भामिनी परम उदार । कोककला रस करत विचार ॥ बोलत पिय नहिं आवति पास । गद्गद वानी कहति उदास ॥धाइ जाइ पति अंकम लाहाहाहा कहि कहि लेत चलाइ ॥ आति आतुर पतिके गति काम । कहा प्रकृति पाई यह वाम ॥ वाह गहत कीन्हों धन मान । तव हरिकीन्हे एक सयानातिव प्यारी चरणन शिरधारी । काम व्यथा जान्यो सुकुमारी॥ अल्प हँसी मुख हेरि लजानी । सूरज प्रभु त्रिय मनकी जानी ॥ १७॥ गुंडमळार ॥ श्याम कर भामिनी मुख सवारयो । वसन तनु दूरि करि सवल भुज अंकभार कामरिस वाम परि निदार धारयो । अधर दशनन भरे कठिन कुच उरलरे परे सुख सेन मन मुरछि दोऊ ।मनो कुँभिलाइ | रहे मन से मल्लदोउ कोक परवीन घटि नहीं कोऊ। अंग विह्वल भए नैन नैनन नए लाज राति अंत त्रिय कंत भारी । सूर धनि धन्य सुखमा नारि वश श्याम याम युग भई पतिते नन्यारी ॥ १८॥ विहागरो ॥ चंद्रावली श्याम मग जोवति । कबहुँ सेज करझारि सँवारति कबहुँ मलयरज भोवति ।। कबहुँ नैन अलसात जानिक जल लै लै पुनि धोवति । कबहुँ भवन कचहूं आँगन ह्वे ऐसे रैनि विगोवति ॥ कबहुँक विरह जरति अति व्याकुल आकुलता मनमो अति। सुरश्याम बहु खन रवन पिय यह कहि तब गुण तोमदि ॥ ४९ ॥ ललित ॥ ऐसेहि ऐसेहि रैनि विहानी । चंद्रमलीन चिरैया बोलीं सुनी कागकी वानी ॥ वे लुब्धे अनतहि काहूके मनको आश भुलानी।कपटी कुटिल कर कहा जाने श्याम नाम जिय आनीकोकिल श्याम श्याम अलि देखो श्याम रंगहे पानीश्याम जलद आदि श्याम कहावत सूरश्याम सों पानी ॥५०॥ गुंडमलारावाम संग श्याम त्रययाम जागे । कोक विद्या निपुण सकल गुण मेप पुन सुरति संग्राम जरि नहीं भागे।अंग आलस भरे नेन निद्रा ढरे नेक सेज्यापरे निशावीती। सूर प्रभु नंदसुत चले अकुलाइके गए ता धाम रसकाम जीती ॥५१॥ विभास ॥ चंद्रावलि धाम श्याम भोर भए आएजू । इत रिस करि रही वाम रनि जागी चारि याम देख्यो जो द्वार कान्ह ठाढे सुखदायेजू ॥ मंदिरते रही निहारि मनही मन देत गारि ऐसे कपटी कठोर आए निशि वीतारिस नहिं सकी सँभारि बैठी चढि द्वार नारि ठाडे गिरिधारि निरखि छवि नख शिखहीते ॥ विनु गुनवनी हृदय माल ता विच नख छत रसाल लोचन दोउ दरशिलाल जैसी रिस गादी । जावक रंग लग्यो भाल पदन भुज पर विसाल पीक पलक अघर झलक वाम प्रीति गाठी।क्यों आए कोन काज नाना करि अंग साज उलटे आभूपण शृंगार निरखतही जाने । ताहीके जाहु श्याम जाके निशि वसे धाम मेरे गृह कहा काम सूर दास गाने ॥५२॥ विलावल ॥ तही जाहु जहि रेनि वसेहो । काहेको दाहन हो आए अंग अंग देसति चिह्न जैसेहो । अरगजे अंग मरगजी माला वसन सुगंध भरेसेहो। काजर अधर कपोलन वंदन सोचन अरुन धरेसहो ॥ पलकनि पीक मुकुर ले देखो एकोनही अनहो। सूरदास प्रभु