पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४६९

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(३७६) । सिराने । सांझ आय इक दरशन दीन्हों की अवहोत विहाने ॥ कवके द्वार भए पिय ठाढे भोरे || बडे कन्हाई । सूरश्याम हां सुराति करत वह ह्यो तुम झेर लगाई ॥ ७४॥ सौंह करनको भोरही तुम मेरे आए।रेनि करत सुख अनतही ताके मन भाए|अंग अंग भूषण औरसे मांगें कह पाएं। देखि थकित यह रूपको लोचन अरुनाए । मानकियो वोहि मानिनी धनि पाइ पराए । यह चतुराई कह पढी उनहीं समुझाए॥ सूरदास प्रभु सांचिले उपमा कविगाए॥७९॥ गौरी ॥ तुमको कमल नैन कवि गावत । वदन कमल उपमा यह सांचीतागुनको प्रगटावता|सुंदर कर कमलनकी सोभा चरण कमल कहवावत। और अंग कहि कहा वखानो इतनेहिको गुण गावत ।। श्याम. नाम अद्भुत यह वाणी श्रवण सुनत सुख पावत । सूरदास प्रभु ग्वाल सँगाती जानी जाति जना वत ॥ ७६॥ तुम न्याय कहावत कमलनैन । कमल चरण करकमल वदन छवि अरज सुनावत मधुर बैन ॥ प्रात प्रगट रति रविहि जनावत हुलसत आवत अंक दैन । निशिदै हार कपाट मदि लवधु मधुपति प्यावत परमचैन ॥ मिलेहु मांझ उदास. अनत चित वसत सदा जल एक ऐन। सूर कपट फल तबहिं पाइही अपनी अरप जब देह मैन ॥ ७७ ॥ भैरव ॥ धीर धरौ फल पावहुगे। अपनेही पियके सुख चांडे कवहूँ तो वश आवहुगे॥ हमसों कहत औरकी औरै इन बातन मन भावहुगे। कबहुँ राधिका मान करैगी अंतर विरह जनावहुगे ॥ तव चरित्र हमही देखेंगी जैसे नाच नचावहुगे। सूरश्याम अति चतुर कहावत चतुराई विसरावहुगे. ॥ ७८॥ देवगंधार ॥ यह कहि प्यारी भवन गई । रीझे श्याम देखि वा छवि पर रिस मुख सुंदरई ॥ द्वारकपाट दियो गाढे कार कर आपने वनाई । नैक नहीं कहुँ संधि बचाई पौढि रही तब जाई । यहि अंतर हरि. अंतर्यामी जो कछु करे सुहोई । जहाँ नारि मुख मंदि पौढि रही तहां संग रहे सोई॥ जो देखे. ह्यां संगविराजत चली त्रिया झहराई । एक श्याम आंगनही देखे इक गृह रहे समाई ॥ उतको वै । अति विनय करतहैं इत अंकम भरिलीनी। मुरझ्याम.मनहरन कहावह मनहरिकै. वश कीनी॥ ॥७९॥ कल्याण ॥ तब नागरि.रिस भूलि गई.। पुलकि अंक अँगिया उर दरकी अंग अनंग जई॥ अंकम भार पिय प्यारी लीन्ही निशि सुख वासर दीन्हो । मान ॐडाइ हुलास बढायो सुफल मनो रथ कीन्हो ॥ तब निजधाम श्याम पगधारे तहां सहचरी आई । सुरज. प्रभु रसभरी नागरी देखि रही मनलाई ॥८० ॥ आसावरी ॥:चंद्रावली हरषसों बैठी तहां सहचरी आईहो । और बदन और अंग सोभा देखि रही चखलाईहो ॥ कहा आज आति हरषित बैठी कहा लूटिसी. पाईहो । क्यों अंग सिथिल मरगजी सारी यहछवि कही नजाईहो। मोसों कहा दुराव.करतिहैं कहा रही शिरनाईहो। मैं जानी तोहि मिले सूरप्रभु यशुमति कुँवर कन्हाईहो ॥ ८॥ भासावरी ॥ चंद्रावली करति चतुराई. सुनत वचन मुख मंदि रही। ज्वाब नहीं कछु देत सखी क्यों हाँ नाही कछु:वैन कही। गुंगे गुरकी ।। दशा भई कै पूरण श्याम सोहाग सही। आये श्याम.सदन सुखभारी दुखनिवारि आनंद करी । वहै ध्यान हरिके अनुरागी वह लीला चितते नटरी। तब बोली मोसो कछु बूझति कहा कहीं मुख वनै नहीं। सूरश्याम युवती मनमोहन तिनको गुण नहिं परत कही. ॥ ८२ ॥ विलावल ॥ हाहा कहि चंद्रावलि मोसों हरिके गुणमैंहूं सुनि लेउ.। श्रवणत मग सुनि हृदय प्रकाशो पुनि पुनि उत्तर देउँ॥ की तोहिं मिले तीर यमुनाके की तोहिँ मिले भवनही माँझ। कहाँ तोहि मेरे गृह आए मानो अस्त होत रवि साँझ ॥ कहूं वामके , धाम वसे निाश भोर सदन गए मेरे आई। सूरश्याम जो चरित उपायो कहन चहौं मुख को न जाई॥८३॥ गौरी ॥ अबतो कहे बनेगी।