सिराने। सांझ आय इक दरशन दीन्हों की अबहोत विहाने॥ कबके द्वार भए पिय ठाढे भोरे बडे कन्हाई। सूरश्याम ह्यां सुराति करत वह ह्यां तुम झेर लगाई ॥७४॥ सौंह करनको भोरही तुम मेरे आए। रैनि करत सुख अनतही ताके मन भाए॥ अँग अँग भूषण औरसे मांगें कहुँ पाए। देखि थकित यह रूपको लोचन अरुनाए। मानकियो वोहि मानिनी धनि पाइ पराए। यह चतुराई कँह पढी उनहीं समुझाए॥ सूरदास प्रभु सांचिले उपमा कबिगाए॥७५॥ गौरी ॥ तुमको कमल नैन कवि गावत। बदन कमल उपमा यह सांची ता गुनको प्रगटावता॥ सुंदर कर कमलनकी सोभा चरण कमल कहवावत। और अंग कहि कहा बखानो इतनेहिको गुण गावत॥ श्याम नाम अद्भुत यह वाणी श्रवण सुनत सुख पावत। सूरदास प्रभु ग्वाल सँगाती जानी जाति जनावत॥७६॥ तुम न्याय कहावत कमलनैन। कमल चरण करकमल बदन छबि अरज सुनावत
मधुर बैन॥ प्रात प्रगट रति रबिहि जनावत हुलसत आवत अंक दैन। निशिदै हार कपाट मदि लबधु मधुपति प्यावत परमचैन॥ मिलेहु मांझ उदास अनत चित बसत सदा जल एक ऐन। सूर कपट फल तबहिं पाइहौ अपनी अरप जब देहै मैन॥७७॥ भैरव ॥ धीर धरौ फल पावहुगे। अपनेही पियके सुख चांडे कबहूँ तो वश आवहुगे॥ हमसों कहत औरकी औरै इन बातन मन भावहुगे। कबहुँ राधिका मान करैगी अंतर बिरह जनावहुगे॥ तब चरित्र हमही देखैंगी जैसे नाच नचावहुगे। सूरश्याम अति चतुर कहावत चतुराई विसरावहुगे॥७८॥ देवगंधार ॥ यह कहि प्यारी भवन गई। रीझे श्याम देखि वा छबि पर रिस मुख सुंदरई॥ द्वारकपाट दियो गाढे कर करि आपने बनाई। नैक नहीं कहुँ संधि बचाई पौढि रही तब जाई॥ यहि अंतर हरि अंतर्यामी जो कछु करे सुहोई। जहाँ नारि मुख मूंदि पौढि रही तहां संग रहे सोई॥ जो देखे ह्यां संगविराजत चली त्रिया झहराई। एक श्याम आंगनही देखे इक गृह रहे समाई॥ उतको वै अति विनय करतहैं इत अंकम भरिलीनी। सूरश्याम मनहरन कहावहु मनहरिकै वश कीनी॥॥७९॥ कल्याण ॥ तब नागरि रिस भूलि गई। पुलकि अंक अँगिया उर दरकी अंग अनंग जई॥ अंकम भरि पिय प्यारी लीन्ही निशि सुख वासर दीन्हो। मान छँडाइ हुलास बढायो सुफल मनोरथ कीन्हो॥ तब निजधाम श्याम पगधारे तहां सहचरी आई। सूरज प्रभु रसभरी नागरी देखि रही मनलाई॥८०॥ आसावरी ॥ चंद्रावली हरषसों बैठी तहां सहचरी आईहो। और बदन और अँग सोभा देखि रही चखलाईहो॥ कहा आज आति हरषित बैठी कहा लूटिसी पाईहो। क्यों अंग सिथिल मरगजी सारी यहछबि कही नजाईहो॥ मोसों कहा दुराव करतिहैं कहा रही शिरनाईहो। मैं जानी तोहिं मिले सूरप्रभु यशुमति कुँवर कन्हाईहो॥८१॥ आसावरी ॥ चंद्रावली करति चतुराई सुनत वचन मुख मंदि रही। ज्वाब नहीं कछु देत सखी क्यों हाँ नाहीं कछु वैन कही॥ गुंगे गुरकी दशा भई ह्वै पूरण श्याम सोहाग सही। आये श्याम सदन सुखभारी दुखनिवारि आनंद करी। वहै ध्यान हरिके अनुरागी वह लीला चितते नटरी। तब बोली मोसों कछु बूझति कहा कहौं मुखवनै नहीं। सूरश्याम युवती मनमोहन तिनको गुण नहिं परत कही॥८२॥ बिलावल ॥ हाहा कहि चंद्रावलि मोसों हरिके गुणमैंहूं सुनि लेउँ। श्रवणत मग सुनि हृदय प्रकाशो पुनि पुनि उत्तर देउँ॥ की तोहिं मिले तीर यमुनाके की तोहिं मिले भवनही माँझ। कहौं तोहिं मेरे गृह आए मानो अस्त होत रवि साँझ॥ कहूं बामके धाम बसे निशि भोर सदन गए मेरे आई। सूरश्याम जो चरित उपायो कहन चहौं मुख कह्यो न जाई॥८३॥ गौरी ॥ अबतो कहे बनैगी
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सूरसागर।
