पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४८३

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(३९०.) सूरसागर । तू गोरी ॥ हमसों करत दुराव वृथारी । इन वातन तू लहति कंहारी ॥ आलस अंग मरगजी सारी । ऐसी छवि कहि कालि कहारी।सूरदास छवि पर बलिहारी। धन्य धन्य तुम दोउ वरनारी॥ ॥॥सारंगाचानक बनी वृषभानु किसोरी। नख शिख सुंदर चिह्न सुरतके अरु मरंगजी पटोरी उर भुज नील कंचुकी फाटी प्रगटेहैं कुचकोरी । नवधन मध्य देखिअत मानहु नव रवि रस मिसु थोरी। आलस नैन सिथिल कजल वल मनि ताटक नमोरी।।मानहु खंजन हंस कंजपर लरत चूंच पढतोरी। विथुरी लट लटकी भृकुटीपर विकट माँग नग रोरी । मानहुँ कर कोदंड काम अलि सैन कमल. हित जोरी ।। अति अनुराग पियत पियूष हरि अधर सिंधु हृद थोरी । सूर सखी निशि संग। श्यामके प्रगट प्रात भई चोरी॥॥सानुत।। राधे तू अति रंग भरी । मेरे जान मिली मनमोहन अचरा पीकपरी॥ हों जानति हौं फौज मदनकी लूटिलई सगरी । छूटी लट छूटी नकसीर मोतिनकी दुलरी ॥ अरुण नैन मुख शरद निशाकर कुसुम गलित कवरी। सूरदास प्रभु गिरिधर के सँग सुरत समुद्र तरी॥६॥ नट ॥ में जानी हैरी तेरे जियकी वात साई अरु गात चिह्न कहे देत माई। आलस तनु मोरे भुज जोरे जम्हाइरी अटपटात माईरी लागत मोहि सुहाई वाही पियके मन भाई ॥ वैन ऐन नैन सैन. देखिये रसीले शृंगार हार वार विथरि रहेरी रति कॅपति देति क्यों न जनाई । सूरदास प्रभुकी सुन जरी आली तेरे अंग अंग भयो उदोत वह हिलनि मिलनि खिलनकी तेरे प्रेम प्रीति जनाई ॥७॥ मूही ॥ नहिं दुरत हार पियको परस । उपजतहै मनको अति आनंद अधरन रंग नैननको अरस ।। अंचल उडत अधिक छबि लागत नखरेखा उर वनी वरस । मनो जलधर तर बाल कलानिधि कबहुँ प्रगटि दुरि देत दरश ॥ विथुरी अलक सुदेश देखियत श्रम जलते मिटियो तिलक सरस । सूर सखी बूझेहुँ न बोलते सो कहिं धौं तोहिं को न तरस ॥ ॥८॥विलावलातोहिं छवि राजैरी ब्रजराजके संग जागेकीकरसों कर जोरि मिली जम्हात अरु बैंडात होति दुरि मुरि रही अलक लसी आगेकी ।कबहूं कवहूं पलक झपकि झपकि आवत ते मनभावत अंखियां अरुण भई प्रेम पगेकी।सूरदास प्रभुको जू प्रगट उमॅगि देखताश्याम सुंदर उर लागेको । ॥ देशाख । अरी मैं जानि पाए चिह्न दुरै न दुराए । अति अलसात जम्हात पियारी श्यामके काम पुराए ॥ कहा दुराव करति री प्यारी कोटि करै मुख नैन झुराए । सुमनहारसी मरगजी डारी पिय रंग रैनि जगाए ॥ प्रगट नहीं तू करति डरति कहि सुरति सेन रति काम लराए । सूरश्याम तोहिं रस वशकीनी जात न मन विसराए ॥१९॥ सारंग ॥ काहेको दुरावति नैन नागरी ।। जानतिहौ नंदलाल रसिक पिय मिलि सब रैनि जगीरी । सुरत समैके मुख तमोरमिलि लोचन परस लागरी मनहुँ शरद विधु भए पद्मयुग युग मुकलित अनुरागरी । उरज करज मनो शिव शिरपर शशि सारंग भागरी ॥ अरुण कपोल अंक अलकै मिलि उरग कामिनी आगरी हरि पुनि चतुर चतुर अति कामी कै तु रूपकी आगरी । सूरदास प्रभु वश करि लीन्हे धनि त्रिय तेरो सुहागरी।।११॥ोडीलालसों रति मानी जानी कहे देत नैनारी रंगभोए । चंचल अंचल कतहि दुरावति रूप राशि अति मानहु मीन महाउर धोए ॥ पीक कपोलंन तरिवनके ढिग. झलमलात मोतिन छवि जोए । सूरदास प्रभु छविपर रीझे जानतिही निशि नेक नसोए।।१२॥आसावरी॥ देखरी नख रेख वनी उराअचला उडत अधिक छवि.उपजति मनहुँ उदितं शशि दुति दुतिया वर॥सोभा - कहा कहत वनि आवहि निरखि निरखि नैननि सनपावति । लांगति पाइ दशो दिशि मेलति लिए रजनी कर अलिंन वदावति ॥ सुनि श्रवण उनमान करीतहैं। निगमनेति यह लखनि लखीरी। - -