पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५०६

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दशमस्कन्ध-१० (४१३) के मनोहर रनजडित सुहावनो। पटली विच विद्रुम लागे हीरालाल खचावनो ॥ सुंदर डाँडी चुनी वहुत लायो कोटिकमदन लजावनो। मरुवा मयारि पिरोजालाल लटकत सुंदर सुढिर ढरावनो मोतिनहिं झालरि झूमका राजत विच नीलमणि बहुभावनो । पंच रंग पाट कनक मिलि डोरी अतिही सुघर वनावनो । स्फटिक सिंहासन मध्य राजत हाटक सहित सजावनो॥हरािलाल प्रवाल पिरोजा पंगति बहु मणि पचित पचावनो। मनो सुरपुर तेहि सुरपति पठइ दियो पठावनो । विश्व कर्मा सुतिहार श्रुतिधरि सुलभ सिलप दिखावनो । तेहि देखे त्रय ताप नाशै ब्रजवधूमन भावनो।सुनि श्यामा नवसत सँग सखीले वरसाने तेहि आवनो।जव आवत बलराम देख्योमधु मंग ल तन हेरनो। तब मधु मंगल कहि ग्वाल सों गैयाहो भैया फेरनो ॥ उठे संकर्षण करि शृंग वेणु ध्वनि धौरी काजरी धेनु टेरनो। गैया गई वगराइ सघन वृंदावन वंसीवट. यमुनातट घेरनो । पहिरे चीर सुही सुरंग सारी चुहुचुहु चूनरी बहु रंगनो॥ नील लहँगा लाल चोली कसि उवाटि केसरि सुरंगनो । नवसत साज शृंगार नागरि मरिगमय भूपण मंगनो ॥ सादर मुख गोपाल लालको चित्त चकोर रस संगनो । श्यामा श्याम मिले ललिता दिहि सुख पावत मनमोहनो॥ गावत मलारी सुराग रागिनी गिरिधरन लाल छवि सोहनों । पचरंग वरन पाटहि पवित्रा विच विच फोंदा गोहनो ॥ नाचति सखी संगीत परस्पर पहिरि पवित्रा सोहनो॥ माथे मोर मुकुट चंद्रिका राजहि बंदा वैजंती माल कंज प्रसावनो कुंडल लोल कपोलनके ढिग मानो रवि प्रकाश करावनो ॥ अधर अरुण छवि कोटि व्रज दुति शशि गुण रूप समावनो । मणिमय भूपण कंठे मुक्तावाल देखत कोटि अनंग लजावनो ॥ सखि हरापि झूले वृपभानु नंदिनी सोभित सँग नँद लालनो। मणिमय नूपुर कुनित कंकन किंकिनी झनकारनो ॥ ललिता विशाखा ब्रजवधू झुलावै सुरुचि सार सारको सारनो। गौर श्यामल नील पीत छवि मानधन दामिनि संचारनो ॥ तैसोइ नन्हीनन्ही बूदान वरपै मधुर मधुर ध्वनि घोरनो जैिसीही हरीहरी भूमि हुलसावनी मोर मरालमुख होतं न थोरनो । जहाँ त्रिविध मंद सुगंध शीतल पवन गवन सुहावनो । तहँ विहरत उठत सुवास उडत मधुप सुहावनो । चढि विमानन सुरसुमन वर जैले ध्वनि नभ पावनो । श्यामा श्याम विह रत वंदावन सुरळलना ललचावनो ॥ शुक शेप शारदा नारदादि विधि शिध ध्यान नपावनोसर श्याम सुप्रेम उमग्यो हरि यश सुलीला गावनो॥८॥डमलार||हिंडोरनो माई झुलत गोकुलचंदासंग राधा परमसुंदरःसवन करत अनंद।। द्वैखंभ कंचनके मनोहर रतनजडित सुरंगावनी चारि डाँडी परम सुंदर निरखि लजितअनंग ॥ पटली पिरोजा लाल लटकत झुमका बहुरंग । मरुवति माणिक चुनीलागी. विचविच हीरा तरंग ॥ कल्पद्रुम तर छांह शीतल विविध मंद समीर । वर लता लटकहि भार कुसुमनि परसि यमुनानीर ॥ हंस मोर चकोर चातक कोकिला अलि कीर । नवनेह नवल किसोर राधा नवल गिरिधर धीर । ललिता विसाखा देहि झोटा, रीझिं अंग. नसमाति । आति लाडिली सुकुमार डरपति श्याम तन लपटाति।गौर श्यामल अंग मिलि दोउ भए एकहि भांति । नील पीतदुकूलदुति घन दामिनी दुरि दुरि जाति ॥ कुंज पुंज झुलाय झुल वत सहचरी चहुंओर । मनो कुमुदिनि कमल, फूले निरखि युगल किसोर ॥ ब्रजवधू तृण तरि डारति. देति प्राण अकोर । जनसुरजको व्रजवास दीजै नागर नंद किसोर ।। ८२ ॥ राज्ञी श्रीहठी ।। हिंडोरे झूलत श्यामा श्यामः। ब्रजयुवती मंडली.चहषां निरखत विथाकत काम ॥ कोउ गावति कोउ हरपि झुलापति कोउ पुरवति मन साध । कोउ संगमचति कहति कोउ मचिहौं उपजो .