पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( सूरसागर। थाके रंग रणकी छवि छाजतं हारि मानि नहिं रहत निहोरी। सूर सुभट दोउ खेत न छोडत मनहु आइ ठाढे दल जोरी ॥७॥सारंगा देखो माधौ राधा की रतासुरत समै संतोष न मानत फिरि फिरि अंक भरत ॥ मुखके अनिल सुखावत श्रमजल यह छवि मनहि हरत । मानहु कामग्नि निर्वाला भई ज्यों ज्वाला फेरी करत ॥ दुतिय प्रेमकी राशि लाडिली पलकन बीच धरत । सूर श्याम श्यामा सुख क्रीडत मनसिजपाँइ परत ॥८॥ सारंग ।। नैननको फल सुफल राधिका प्यारी। श्रमजल भरत वृंद वदन मृदु अरविंद प्रसेद मकरंद अलि अलकै अनुसारी ।। नैन मेचक रेख अ धर रंग विशेप नासिका जलज मनहुँ गुंजारी । भौह मन्मथ धनुप पूरि त्रिभुवन विजय तिलक तीक्षण श्रीमंत सार सारी॥ताटंक दुति छुटि केश विथुरी लेटें घट कुर्घरतर उदित उजियारी । गंड सूक्ष्म इंदु मानहु दिनकर द्वंद सकुचे सतदल सूछकै निवारी॥ दशनहरिकी पांति विच विच मुस काति वरणि नजात मृदुवचन किलकारी । विमल मुक्तमाल लसत उच्चकुचन पर मदन महादेव मनो दई है लचारी।दोऊ वसत एक और काज निविसत भोर विरुद्ध त्यागि बात बनी अति भारी। कमल विकच करनावली मुद्रिका वलय पुट भुजवलि शुकचारी।स्कंध वेनी धरे मान मनसिज हरे श्रीगुंजमध्य कुंज सुरंग सारी।निम्ननाभी लेस कटि अति सुदेश वनी अधार जंघनि अति भारी।।मनहु मन्मथ अजित कार हरिहि देत होत नाद किंकिणि झनकारी। अति विशद गुरुनितंब चौर बांधे कोउ नाहिंन सम तारी|मंदगति युगल पटलपर अमल पद्म पानि पटतरन तुम्हारी अभिमान पूरन वंक सूर प्रभु यदपि थकितभये गिर निराखि गिरिधारी।ओट निरखै सखी मनहुँ चित्रत लिखीयुक्ति संयोगपर जाहि वलिहारी ॥९॥ रागकेदाग। नागरताकी राशि किशोरी।वन नागर कुलमूल साँवरो वरवशकियो चितै मुख मोरी।। रूप रुचिर अंग अंग माधुरी विनभूपण भूपित ब्रजगोरी। छिन छि न कुशल सुगंध अंगमें कोकरभसर सिंधु झकोरी|चंचल रसिक मधुप मोहन मन राखे कनककमल कुच कोरी। प्रीतम नैन युगल खंजन खग वांधे विविध नितंवन डोरी ॥ अपनी उदर नाभि सरसी में मनहु कछुक मादक मधुरोरी । सूरदास पवित सुंदर वर सीव सुदृढ निगमनि की तोरी॥३०॥ ॥ केदारो ॥ आजु तनु राधा सज्यो शृंगार । नीरज सुत सुववाहनको भख श्याम अरुण रँग कौन विचार ॥ मुद्रापति अचवन तनयासुत उरहि वनावहि हार । गिरिसुत तिन पति विवस करनको अक्षत लै पूजत रिपुमार ॥ पंथपिता आसन सुत शोभित श्यामघटा वग पंक्ति अपार.।.सूरदास प्रभु अंश सुता तट क्रीडत राधा नंदकुमार ॥३३॥ ललित ॥ देख सखी सायक बल जोर । वीस कमल परगट देखियतहै राधा नंदकिसोरसोरहकला संपूरण मोझो बज अरुणोदय भोर। तामें सखि द्वै कमल लागिरहे चितवत चारि चकोर ॥ मनु मन मल दै गजराज अरे हैं कोर्ट मदनभै भोर । सूरदास वलि बलि या छविकी अलकनकी झकझोर॥१२॥ सारंग। मोरनके चंद वा माथे बने राजत रुचिर सुदेशरी। वदन कमल ऊपर अलिगण.मानो धुंधरवारे केशरी भौंह धनुष हगवान चपल-अति भाल तिलक जनु वानरी । भोरहोत रवि अंधकारको कियो उरध-संधानरी ॥ मणिगण जडित मनोहर कुंडल राजत लोल कपोलरी । कालिंदीमें रवि प्रति विक्ति चंचल पवन अडोलरी ॥ सुभग नासिका मुक्ता शोभित झलमलात छवि होतरी । भृगुसुत मानो अमलं, विमल सखि धनमें किए उदोतरी ।। अरुण अधर सु श्रमित मुख बोलत ईपद कछु मुसुकातरी। मानहु सुपकविवते प्रगटत रस अनुराग चुचातरी ॥ दशनदमक दामिनि सी चमकति सोभा कहत || न आवैरी । याहीते दाडिम उर विगसित तिनकी सम नहिं पावैरी ॥ चिबुक चारु मर्कत मणि । -