पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५१२

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दशमस्कन्ध-१० दुति सखी राजति त्रिवली ग्रीवरी । मानहु सप्त तीनि रेखा करि कामरूपकी सीवरी ॥ उन्नत विसाल हृदय राजतहै तापर मुक्ताहाररी। मानहु साँवर गिरिते सरिता अघ आवत पारी॥ भुज भुजंग मनु चंदन चरचित करगहि मुख धरि वंसरी। मानहु सुधा सरोवरके ढिग कुंजत युग कल हंसरी ॥ कंचन बरन पीत उपरैना सोभित साँवर अंगरी । मानहु आवत आगे पाछे निशि वासर इक संगरी ॥ नाभि सरोज सुधा सरसी जनु त्रिवली सिढी बनाइरी । व्रजवधु नैन मृगी आतरहै अति प्यासी ढिग आइरी॥ कटि प्रदेश सुंदर सुदेश सखि तापर किंकिणि राजैरी। अति नितंब जंघन सोभितहै देखत मृगपति लाजैरी ॥ पीन पिंडरिया साँवल सीरी चरणाम्बुज नखला लरी | मंद मंद गति वो आवतिहै मत्त दुरदकी चालरी ॥ सूरदास सर्वसहि निरंतर मनमोहन अभिरामरी। वृंदावनमें विहरत दोऊ मम प्रभु श्यामाश्यामरी।। १३॥ देखि हरिजूके नैननकी छवि। इहै जानि दुखमानि मनहु अंबुज सेवत रवि ॥ खंजरीट अति वृथा चपलता गये वन मृगजल मीन रहे दवि । तहँउ जानि तनु तजत जवाह कछु पटतरदे वे कहत कुकवि ॥ इन्हसे येइ पचिहारि रही हौं आवै नहीं कहत कछू फवि । सूर सकल उपमा जोरही यों ज्यों होइ आवै कहत होमत हवि १४॥ गुजरी ॥ किसोरी देखत नैन सिरात । बलि बलि सुखद मुखार्विदकी चंद्रबिंदु दरिजात ॥ अघमोचन लोचन रतनारे फूले ज्यों जलजात । राजत निकट निपट श्रवणनके पिशन कहत मनवात ॥ गौर लिलाट पाट पर सोभित कुंचित कच अरुझात । मानो कनक कमल मकरंदहि पीवत अलिन अपात ॥ नकसरि सीके संभ्रम भौंह मीन अकुलात । मनु ताटंक कमठ बूंघट डर जालवाझि अकुलात । श्यामकंचुकी मांझ सांझ फूले कुच कलस नसमात । मानहु मत्त गयंद कुंभान पर नील ध्वजा फहरात ॥ नखशिखलौं रस रूप किसोरी विलसत साँवल सुकृतगात । यहसुख देखत सूर अवर सुख उडे पुराने पात।। १६॥वसौ जु मेरे नैननमेंए जोगीसुंदरश्याम कमलदल लोचन सँग वृपभानु किसोरी ॥ मोर मुकुट मकराकृत कुंडल पीतांवर झकझोरी । सूरदास प्रभु तुम्हरे दरशको का वरणौमति थोरी ।। विलावल ॥शंखचूड तेहि अवसर आयो। गोपी हुती प्रेमरस माती तिन ताको कछु शुद्धि न पायो । चल्यो पराइ सकल गोपीले दूरिगयो तब उन सुधि आयो। को यह लिये जात कहां हमको कृष्ण कृष्ण कहि कहि गोहरायो।गोपी टेर सुनत हरि पहुँचे दानव देखि डरायो ।मुष्टिका मार गिराइ दियो तेहि गोपिन हर्षवढायो।मणि अमोल ताके शिरताही दिये हलधरही आयो ।सूर चले बनते गृहको प्रभु विहँसत मिलि समुदायो॥१६॥सोरठ।सोई सुख नंद भाग्यते पायो । जो सुख ब्रह्मादिकको नाहीं सोइ सुख सुरभी वछ वृंदावन सोइ सुख यशुमति गोदखिलायो।सोइ सुख ग्वालन टेरि सुनायो सोइ सुख यमुनाकूल कदमचढि कोपकियो कालीगहि ल्यायो। सुखही सुख डोलत कुंजनमें सब सुखनिधिवनते ब्रजआयो।सूरदास प्रभु सुखसागर अति सोइ सुख शेप सहस मुख गायो॥ ॥१७॥विलावला कौन परी नंदलालहिं वानि । प्रातससै जागनकी विरियां सोवतहै पीतांवर तानि॥ मात यशोदा कवकी गढ़ी दधि ओदन भोजन लिये पान । तुम मोहन जीवनधन मेरे मुरली नेकु सुनावहु कान ॥ संग सखा व्रजवाल खरे सव मधुवन धेनु चरावन जान ॥ यह सुनि श्रवण उठे नँदनंदन वंसी वेणु माँग्यो मृदुआन ॥ जननी कहति लेहु मनमोहन दधि ओदन घृत आन्यो सानि । सूर सु पलि बलि जाउँ वेणुकी जिहि लगि लाल जगे हितमानि १८॥ अध्याय॥३५॥ विलावल।। | भोर भयो जागो नँदनंद । तात निशि विगत भई चकई आनंद मई तरनिते चंद्र