पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५१४

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दशमस्कन्ध-१० . (४२१) थार कटोरा जरित रतनके ॥ भरि सब वासन विविध जतनके । पहिले पनवारो. परसायो । तत्र आपुन कर कौर उठायो ॥ जैवत रुचि अधिको अधिकैया । भोजनहूं विसराति नाहि गैया ॥ शीतल जल कपूर रस रचयो। सोमोहन निज रुचि करि अचयो । महरि मुदित नित लाड लडावै । ते सुख कहा देवकी पावै ॥ धार तुष्टी झारी जल ल्याई । भरयो चुरूखरिका लै आई ॥ पीरे पान पुराने वीरा । खातभई दुति दातनि हीरा।। मृगमद कन कपूर कर लीने । वाँटि वाँटि ग्वालनको दीने ॥ चंदन और अरगजा आन्यो । अपने कर पलके अंग वान्यो । तापाछे आपुनहूं लायो। उबरयो बहुत सखन पुनि पायो । सूरदास देख्यो गिरिधारी । बोलिदई हॉसि जूठनि थारी॥ यह जेवनार सुनै जो गावै । सो निज भक्ति अभय पद पावै॥२१॥विलावलारामकली ॥ भोजन करत मोहनराइ । हरपि मुखतन देत मोहन आपु लेत छडाइ ॥ देखहीं मुख नंदको तब आनंद उर नसमाइ । निरखि प्रभुकी प्रगट लीला जननि लेति बलाइ ॥ नंदनंदन नीर शीतल अचे उठे अघाइ। सूर जूठन भक्तपाई देव रहे लुभाइ॥२२॥विलावलादेख सखीव्रजते बनआवतारोहिणिसुत यशुमति सुतकी छवि गौर श्याम हरि हलधर गावत ॥ नीलांवर पीतांवर ओढे यह सोभा कछु कही नजात । युगल जलद युग तडित मनहुँ मिलि अरस परस जोरतहै नात ॥ शीश मुकुट मकराकृत कुंडल झलक विविध कपोलहि भाँति मनहुँ जलद युग पास युगल रवि तापर इंद्र धनुषकी कांति ॥ काटे कछनी कर लकुट मनोहर गोचारन चले मन उनमानि । ग्वाल सखा विच श्रीनँदनंदन बोलत वचन मधुर मुसुकानि । चितै रहीं ब्रजकी युवती सब आपसहीमें करत विचार । गोधन दलिए सूरज प्रभु वृंदावन गए करत विहार ॥ २३ ॥ ग्वाल वचन श्रीकृष्ण मति ॥ गौरी ॥ छवीले मुरली नेक वजाउ । बलि बलि जात सखा यह कहि कहि अपर मुधारसप्याउ ॥ दुर्लभ जन्म दुर्लभ वृंदावन दुर्लभ प्रेम तरंग । नाजानिये बहुरि कव है श्याम तुम्हारो संग ॥ विनती करहिं सुबल श्रीदामा सुनहु श्याम दै कान । जा रसको सनकादि शुकादिक करत अमर मुनि ध्यान ॥ कव पुनि गोप भेष ब्रज परिहों फिरिहौं सुरभिन साथ । कब तुम छाक छीनिकै खैहो हो गोकुलके नाथ ॥ अपनी अपनी कंध कमरिया वालन दई डसाइ । सौंह दिवाइ नंदवावाकी रहे सकल गहिपाइ ॥ सुनि सुनि दीन गिरा मुरलीधर चितए मुख मुसकाइ । गुणगंभीर गोपाल मुरालि कर लीन्हो तबहिं उठाय ॥ परिकर वेनु अघर मन मोहन कियो मधुर ध्वनि गान । मोहे सकल जीव जल थलके सुनि वारयो तन प्रान ॥ चपलनयन भृकुटी नाशापुट सुनि सुंदर मुखवैन । मानहु नृत्यक भाव दिखावत गति लिये नायक मैन । चमकत मोर चंद्रिका माथे कुंचित अलक सुभाल । मानहु कमलकोशरस चाखत उड़िआए अलिमाल ॥ कुंडल लोल कपोलन झलकत ऐसी सोभा देत । मानहु सुधासिंधुमें क्रीडत मकर पानके हेत ॥ उपजावत गावत गतिसुंदर अनाघातके ताल । सखस दियो मदन मोहनको प्रेम हरषि सब ग्वाल || सोभित वैजंती चरणनपर श्वासा पवन झकोरि । मानहु ग्रीव सुरसरी वहि आवत ब्रह्मकमंडलु फोरि ॥ डुलति लता नहि मरुत मंदगति सुनि सुंदर मुख वैन।। खग मृग मीन अधीन भए सब कियो यमुन जल सैन । झलमलात भृगुकी पदरेखा सुभग साँवरे गात । मानो षटविधु एकै रथ वैठे उदय कियो अपरात ॥ वांके चरण कमल भुज बांके अवलोकनि जु अनूप । मानहु कल्पतरोवर विरवा आनि रच्यो सुरभूप ॥ आया दियो गुपाल सबनको सुखदायक जियजान । सूरदास चरणनरज मांगत निरखत % D -