पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५१६

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दशमस्कन्ध-१० (४२३) m कुल लाजकानि तजि मर्याद वचन मिति कीन्हींतवही ते तनु सुधि विसराई निशि दिन रहति गोपाल अधीन्हीं।।शरद सुधानिधि शरद अंश ज्यों सीचत अमी प्रेमरस भीनी।ता ऊपर शुभदरश सूरप्रभु श्रीगोपाल लोचन गति छीनी॥३४॥मुरली भई आजु अनूप । अधर विव वजाय करधरि मोहे त्रिभु वन भूप ॥ देखि गोपी गाइ गाइन देखि गृह वन कूप । देखि मुनिजन नाग चंचल देखि सुंदर रूप॥ देखि धरणि अकाश सुर नर देखि शीतल धूप । देखि सूर अगाध महिमा भए दादुर चूप ॥३५॥ कान्हरो ॥ मुरलिया मोको लागत प्यारी । मिली अचानक आइ कहाते ऐसी रही कहारी॥धनिया- के पितु मात धन्य यह धन्य धन्य मृदु वोलनि । धन्य श्याम गुण गुणिकै ल्याये नागरि चतुर अमोलनि ॥ इह निर्मोल मोल नहिँ याको भली न याते कोई । सूरदास याको पटतर को तो दीजै जो होई॥३६॥ गौरी ॥मोहन मुरली अधर धरीकंचन मणि मय खचित रचित अति कर गिरि धरन परी॥ औषरतान बंधान सरस सुर अरु रस उमॅगि भरी। आकर्पत मन तन युवतिन के नग खग विवस करी॥ पिय मुख सुधा विलास विलासिनि सुरत सँगीत समुद्र तरी । सूरदास त्रैलोकं | विजययुत दर्प मीन पति गर्व हरी ॥३७॥ केदारो। मुरली श्यामके कर अधरविव रमी। लेति सर्वसु युवति जनको बदन विंदुत अमी ॥ पिवति न्यारे गर्व मारे नेकु नाहीं नमी । बोलि शब्द सुसप्तसुर मिल नाग मुनि गति दमी ॥ महाकठिन कठोर आली वांस वंशजु जमी। सूर पूरण परसि श्री मुख नैक नाही झमी॥३८॥मलार ॥ बांसुरी विधिहूते प्रवीनाकहिए काहि आहि को ऐसोकियो जगत आधीन ॥ चारि वदन उपदेश विधाता थापी थिर चरनीति । आठ वदन गर्जति गर्वीली क्यों चलिए यह रीति ॥ विपुल विभूति लई चतुरानन एक कमल करि थान । हरिकर कमल युगल पर. बैठी वाट्यो यह अभिमान ॥ एकवेर श्रीपतिके सिखये उन लियो सब गुण गान । इनके तौ नंद- लाल लाडिलो लग्यो रहत नितकान ॥ एक मराल पीठि आरोहन विधि भयो प्रवल प्रशंस । इन तौ सकल विमान किए गोपीजन मानस हंस ॥ श्रीवैकुंठनाथ उर वासिनि चाहत जापद रेन । ताको मुख सुखमय सिंहासन कार वैसी यह ऐन ॥ अधर सुधा पी कुल व्रत टारचो नहीं साखि श्रमताग । तदपि सूर या नंदसुवनको याही सों अनुराग ॥३९॥ सारंग ॥ वंसी वैर परी जु हमारी। अधर पियूप अंश तिनहींको इन पियो सव दिन निज २ प्यारी ॥ इकधौं हरि मन हरति माधुरी दूजे वचन हरत अन्यारी । वांस वंश हरि वेध महाशुभ अपने छेद न जानत कारी ॥ सुन्यो सुपति जानी ब्रजको पति सो अपनाइ लियो रखवारी । सुने अनित सूरज प्रभु केरी अधर गोपाल जे अपने धारी॥ ४०॥ मलार ॥ जब जब मुर लोके मुख लागत । तब तब श्याम कमलदल लोचन नखशिखते रस पागत ॥ वातन कहत रहत टेढेहोइ वाह अलिंगन मानत । भृकुटी अधर विव नाशा पुट सूधो चितवन त्यागत ॥ पल इक माँह पलटसो लीजत प्रगट प्रीति अनागतासूरदास स्वामी बंसी वश मुरछि निमेष नजागत॥४॥ ॥ वंसीवचन-मलार । ग्यालिनी तुम कत उरहन देहु । पूछहु जाइ श्याम सुंदरको जिहि विधि जुस्यो सनेहु ॥ वारेहीते भई विरत चित तज्यो गाँउ गुणगेह । एकहि चरण रहीहो ठाढी हिम ग्रीपम ऋतुमेह ॥ तज्यो मूल शाखा सो पत्रनि सोच सुखानी देहु । अगिनि शलाकत मोरयो न अंग मन विकट बनावत वेहु ॥ वकती कहा बांसुरी कहि कहि करि करि तामस तेहुः । सूरश्याम इहि भाँति रिझेकै तुमहु अधर रस लेहु॥४२॥मलार।।ज्यों ज्यों मुरलिहि महत दियो। त्यों त्यों निदरि श्याम कोमल तन बदन पियूष पियो ॥ रोके रहति पाणि पल्लव पुट होत नकळू % D