पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५१७

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(४२४) . . सुरसागर। वियो । बैठति अधरन पीठ परमरुचि सकुचन नाहिं हियो । जान्यो जग रति पति शिव जारयो सो यह सूर जियो । विधि मर्याद मेटि इन जो जो रुचि आयो सो कियो॥४३॥सारंग ॥ इन मुरली कछु भलो न कीन्हों। अधर सुधा सरवर सुहमारो आपुन पियो अरु औरन दीन्हों। विरुधे द्रुम तृण सोलसतिलतट पूजति गौरि भयो तनु छीनो।सो मधु सूरज परसि कुटिल चित सवहिनके देखत हरि लीनो॥४४॥ अथ श्रीकृष्ण ब्रज आवन ॥ गौरीगानटवर भेष धरे ब्रज आवत । मोर मुकुट मकराकृत कुंडल कुटिल अलक मुखपर छवि पावत।भुकुटी विकट नैन अति चंचल यह छवि पर उपमा इक धावत । धनुष देखि खंजन विवि डरपत उडि नसकत उठिवे अकुलावत ॥ अधर अनूप मुरालि सुर पूरत गौरी राग अलापि बजावत । सुरभीबूंद गोप बालक सँग गावत अति आनंद बढावत।। कनक मेखला कटि पीतांवर नृत्यत मंद मंद सुर गावत । सूर श्याम प्रति अंग माधुरी निरखत ब्रजजनके मन भावत॥४५॥कान्हरो॥ ब्रज युवती सब कहत परस्पर बनते श्याम बने ब्रज आवत । ऐसी छबि मैं कबहुँ नपाई सखी सखी सों प्रगट देखावत ॥ मोर मुकुट शिर जलजमाल उर कटि तट पीतांबर छवि पावत । नव जलधर पर इंद्रचाप मानो दामिनि छवि बलाक धन धावत ॥ जेहि जु अंग अवलोकन कीन्हों सो तन मन तहही विरमावत । सूरदास प्रभु मुरली अधर धरे आवत राग कल्याण बजावत ॥ ४६ ॥ रागगुण सारंग ॥ मेरे नयन निराखि सचुपावें । बलि बलि जाउँ मुखादिकी बनते पुनि वन ३ ॥ गुंजाफल अव तंश मुकुटमणि वेणु रसाल बजावें । कोटि किरणि मुखमें जो प्रकाशत उडुपति वदन लजावें ॥ नटवर रूप अनूप छबीलो सबहिनके मनभावें । सूरदास प्रभु चलन मंदगति विरहिन ताप नशावें ॥१७॥ गौरी ॥ बलि बाल मोहन मूरतिकी बाल बलि कुंडल बलि नैन विसाल । बलि भ्रुकुटी बलि तिलक विराजत बलि मुरली बलि शब्द रसाल ॥ बलि कुंडल बलि पाग लटपटी बलि कपोल बलि उर वनमाल । बलि मुसुकानि महामुनि मोहत बाल उपरैना गिरिधर लाल ॥ बलि भुज सखा अंग पर मेले बलि कुलही बलि सुंदर चाल । बलि काछनी चोलनाकी बलि सूरदास बलि चरण गोपाल||४८॥ नैतश्री ॥ सुंदर सांवरे हो रौं चित लियो चुराइ। संगी सखा सांझके समये निकसे द्वारे आइ ॥ देखि अद्भुत रूप तेरे रहे नयन उर छाइ । पाग ऊपर गोसमावल रंग रंग रचि बनाइ ॥ आत सुंदर शुक नासिका राजत लोल कपोल । रत्न जडित कुंडल ज्यों झलकत करन कपोल ॥. कटि तट काछ विराजई पीतांवर छवि देत । अमृत कमल मुख भाषई तन मन वशकरलेत ॥ भी हैं धनुष दुइ वरुनि मनों मदन शरसाँध । जाहि लगे सोइ जानै संग लेत बलि बांध ॥ अंग अंग. पर बलिगई मुरली नेक बजाइ । सुनि पावै सचु गोपिका सूरदास बलिजाइ॥४९॥ बिलावल ॥ श्याम कछु मोतनही मुसुकात । पीतांबर पहिरे चरण पाँवरी ब्रजबीथिनमें जात ॥ अति बुधि वंदि चंद नखशिखलौँ सोंधे भीने गात । अलकावली अधर मुख वीरा काध कमल कर दिशाहि फिरावत।। धन्यभाग्य ब्रजके जो सखीरी धन्य धन्य उनके जननी तात । धन्य जे सूरदास प्रभु निर. खत अतिभूखे लोचन न अपात५०॥अडानोश्यामसुंदर आवैवनते बने आजु देखि देखि नैन रीझे।। शीशमुकुट डोल श्रवणकुंडल लोल भृकुटी धनुष नैन खंजनझीझे ॥ दशन दामिनि ज्याखीझे उर । परमाल मोती ग्वाल बाल सब आवै रंगभीजे । सूर प्रभु श्याम राम संतनके सुखद धाम अंग अंग प्रति छवि निरखिजीजै९१॥कान्हरो। विराजतरी वनमाल गरे हरे हरि आवत वनते। पुहुपनिसों || लाल पाग लटकि रहीरी वाम भागसों छवि. टरतन मनते ॥ मोर मुकुट शिर श्रीखंड गोरज । -