पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशमस्कन्ध-१० (४३१) आवेंगे हरि आज खेलन फागुरी । सगुन सँदेशोहो सुन्यो तेरे आँगन बोलै कागुरी ॥ मदन मोहन तेरे वश माई सुनि राधे वडभागुरी । वाजत ताल मृदंग झांझ डफ का सोवै उठि जागुरी । चोवा. चंदन और कुमकुमा केसरिलै पैयां लागुरी । सूरदास प्रभु तुम्हरे दरशको श्रीराधा अचल सुहा गुरी॥९शाहो आजु नंदलाल सों खेलोंगी सखी होरीललिता विशाखा अंगन लिपावो चौक पुरावो तुमरोरी । मलयज मृगमद केसरिलै माथि माथि भरो कमोरी । नवसत साजि शृंगार करौ सव भार भरि लहु गुलालहि झोरी ॥ ज्यों उडुगणमें इंदु विराजत सहोलन मध्य राधिका गोरी । इक गोरी इक साँवरी हो इक चंचल इक भोरी ॥ वरजति सखी वरज्यो नाहि मान लै पिचकारी दौरी । उन रंगले पिय ऊपर डारयो पियहो रंगमें बोरी ॥ ब्रह्मा इंद्र देवगण गंधर्व वरपे बहुत वाटिका खोरी । सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलनको चिरजीवो राधावर जोरी॥९॥रागमालकौशिकानागर रसिक अरु रसिक नागरी । बलि वलि जाउँ देखि अब दंपति प्रमुदित लीला प्रथम फागरी॥ || राधा दाधि मथन करति अपने गृह प्रवल धार सुकर पागरी । तब हरि उठि आए औचानक ॥ उससिशशी चसहरित गागरी । ले सास अंजरि भरिलोनो विदुराते दधि जुअनूपम आगरी॥ अति उमगित श्याम घन छिरके मनु वग पांति विचार गई मागरी ॥ मोहन मुसकि गही दौरत में छूटि तनी छंदरहित घाघरी । जनु दामिनि वादरते विमुख वपु तरपित तक्षण लई तलागरी ॥ आनंदित परम दंपति ऐसे पटने परस परत दागरी। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणिका वरणौं ब्रज युवति भागरी।।९६॥ राशी बंगाली||श्रीमदनमोहन जू मति डारौ केसार पिचकारी। दधिही मथन जाहुँ यमुनाजल हो मोहन तुम कुंज विहारी ।। मर्म न गुरुजन पुरजन जाने नाहि या वृंदावनकी नारी। सासु रिसाय लर मेरी ननदी देखें रंग देहि मोहि गारी ॥ मुरली माहि बजावत गावत बंगाली अधर चुवत अमृत बनवारी । मुदित पियत संतन सुखकारी पूरव सचित तेहि गिरिधारी॥ मृदु मुसुकानि युवति मन मोहत हो हार माखन चोर मुरारी । सूरदास प्रभु दोउ चिरजीवो श्रीवजनाय वृपभानु दुलारी॥९॥धमारि॥ ठाढी देखी नंद दुआरेहो सुंदार एक दह्यो लिये। वाढीहो प्रीति ललना गिरिधरसों गुरुजन सवहिन विसरि दिये। नयनन कज्जल नासिका वेसार मुखत मोर अति राज्य । दार सुढार वन्यो जाको मोती रहत अधर मुख छाज्य ॥ काटि लहँगा पहुंची बंध अगिया कँदना बहु विधि सोहै । तरन जराव जरी जाकी जेहार हंसचाल मृग मोहै। कंचन कलस भराय यसुनजल मोतियन चौक पुराये । मनहु कछौना हंसन कैसे चुगन सरोवर आए॥ तुमती कहावतहो नँदनंदन सारंग लाई है थोरी । सूरदास प्रभु नंदके लालकी वनाहो छवीली जोरी ॥९८॥ कान्हरो ॥ हार सँग खेलत हैं सब फाग । यहि मिस करत प्रगट गोपी उर अंतरको अनुराग ।। सारी पहिरि सुरंग कास कंचुकी काजर दैदै नैन । वनि वनि निकास निकसि भई ठाठी सुनि माधोके वैन । डफ वांसुरी रुंज अरु महुआर वाजत ताल मृदंग । अति आनंद मनो हर वाणी गारत उठत तरंग ॥ एक कोध गोविंद ग्वाल सब एक कोध जनारि । छोडि सकुच सब देति परस्पर अपनी भाई गारि ॥ मिलि दश पांच अली वलि कृष्णहि गहि लावति उचका __रागमालकोशिफ वीणाहाटककंकणेचद्धतीपद्माक्षिपद्मानना बसफेरवपद्मकोमलसमंशास्त्रैपरंपंडिता ॥मालश्रीसाखिसंयुतात्रिभुवने. गीतार्य पुंसामिया भूपालीसहितामियायफरणामाफुर्वतीश्रीहठी ॥ १ ॥ श्यामांगःपीतवासामधुरिपुगलनोवंशवाद्यस्त्रिभंगीरत्नानां फंटमालोविरचिंततिलका कुंकुम लमध्ये ॥ रागोयमालकोशीमचरतिशिशिरेकंठदेशेजनानां मायः सूर्योदयादो स्वरनिचयविदा तुष्टयभूपतीनाम् ॥ - -