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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५३३

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सूरसागर।


पहर दुइ बीते॥१४॥ देखी निकट राधिका प्यारी। तब हरिलीला और विचारी॥ तब हरि जाइ दुरे उपवनमें। सँगलगी नायका कुंज सदनमें॥१५॥ करत कुलाहल ब्रजकी नारी। देखत चढे कदंम बिहारी॥ कबहुँक सुरली मधुर बजावैं। श्रवण सुनत जितही तित धावें॥१६॥ जब हरि जानि निकटही आए। डरते तब हरि रहे लुकाए॥ कुंज कुंज कोकिल ज्यों टरैं। श्रवणनाद भृंगी त्यों हेरैं॥१७॥ कबहूं फिरि आपुसमें खेलति। सकल सुगंध परस्पर मेलति॥ झुके वचन कहती बिनपाये। कहति कछू राधिका लगाए॥१८॥ करनि लाज वरवनु भे जैसे। जाई डोलति वन वनमें तैसे॥ तब हरि भेष धयो युवतीको। सुंदर परम भावतो जीको ॥१९॥ सारी कंचुकि केसरि टीको। करि श्रृंगार सब फूलनहीको॥ कर राजति गेदुक नोलासी। छूटी दामिनिसी ईषदहासी॥२०॥ सकल भूमि वन सोभा पाइ। सुंदरता उमँगी नसमाय॥ ता सोभा ब्रजनारी सोही। रही ठगीसी रूप विमोही॥२१॥ एक कहति हरि कैसे नैना। एक कहति वैसेई वैना॥ बूझति एक कौनकी नारी। विधिकी सृष्टि नहीं तू न्यारी॥२२॥ तब हरि कहत सुनहु ब्रजबाला। बोलति हँसि हँसि वचन रसाला॥ हम तुम मिलि खेलहिं सब जानति। राधा आली मोहिं पहिचानति॥२३॥ होंहूँ संग तिहारे खेली। जानति होहूँ जान सहेली॥ अबहीं कीरति महरि पठाई। राधा इकली खेलन आई॥२४॥ अब एक बात कहौं होजीकी। हों जानति हौं हरिही पीकी॥ सघन विपिन ऐसे कहाँ पावहु सब मिलि एकसंग जिनि धावहु॥२५॥ सुनहु सोर कत रहिहे नेरे। कोटि करौ पावहु नहिं हेरे॥ ह्वैह्वै न्यारी न्यारी डोलहु। तनक मूंदि कर मुख जिनि बोलहु॥२६॥ जाइ अचानकही गहि ल्यावहु। सखी एक ज्यों त्यों करि पावहु॥ राधाको भुज गहिकै लीनी। ऐसे सबको द्वैद्वै कीनी॥२७॥ मौन किए प्रवेस कियो बनमें। हरिको रूप राखि निज मनमें॥ और सखी खोजति सब कुंजनि। राधा हरि विहरत सुख पुंजनि॥२८॥ राधा आवति देखि अकेली। तब फिरि बहुरिस बौठि सकेली॥ तब बूझति वृषभानु दुलारी। सखी संगकी कहाँ विसारी॥२९॥ अति गह्वर में जाइ परी हम। सूर्य न सूझत भयो निशातम॥ ताठहरतेहों भई न्यारी॥ फिरि आई डरपी हों भार॥३०॥ पुहुप वाटिका हो फिरि आई। मुकुट पीठिते हो इतआई॥ ता ठाहर जो ठाढे पावहि। चलौ जाइ धाइ गहि लावहि॥३१॥ नारी बात सुनतहीं धाई। घेरिलिए कोकिल सुरगाई॥ जाहु कहाँ व अकेले पाये। सकल सुगंध शीशते नाये॥३२॥ एकरूप माधुरी निहारहि। एक कटाक्ष नयनशर मारहि॥ एक सुमन लै ग्रंथितमाला। सोभित सुंदर हृदय विशाला॥३३॥ खेलत आए पुलिन सुहाए। बैठे तहँ मंडली बनाए॥ मोहन नव शशि मध्य बिराजै। देखि सूर कोटिक छबि छाजै॥३४॥३३॥ काफी ॥ खेलत फागु कुँवर गिरिधारी। अग्रजअनुज सुवाहु श्रीदामा ग्वाल बाल सब सखा अनुसारी॥ इत नागरि निकसीं घर घरते दै आगे वृषभानु दुलारी। नवसत साजि ब्रजराज द्वार मिलि प्रफुलित बदन भीर भई भारी॥ दुंदुभि ढोल पखावज बाजत डफ मुरली रुचिकारी। मारत बांस लिए उन्नत कर भाजत गोप प्रियनिसों हारी॥ एक गोप इक गोपी कर गहि मिलिगए हलधरसों भुजचारी। मिटिगई लाज सम्हार न कुच पट बहुत सुगंध दियो शिरढारी॥ वांह उचाइ कहतहो हो हो लै लै नाम देत प्रभु गारी।