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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५३४

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दशमस्कन्ध-१०


इतहि राधिका निकसि यूथते सन्मुख पिय छांडति पिचकारी॥ इक गोपी गोपाल पकार कर चली आपने मेर उसारी। आंजति आंखि मनावति फगुवा हँसति हँसापति दै करतारी॥ सुर विमान नभ कौतुक भूले कोटि मनोज जाइ बलिहारी। सूरदास आनंदसिंधु में मगन भए ब्रजके नर नारी॥३४॥ काफी ॥ नँदनंदन वृषभानु किसोरी राधा मोहन खेलत होरी। श्रीवृंदावन अतिहि उजागर वरन वरन नवदंपति भोरी॥ एकन करहै अगर कुमकुमा एकनकर केसरिले घोरी। एक अर्थ सों भाव दिखावति नाचति तरुनि बाल वृध भोरी॥ श्यामा उतहि सकल ब्रजवनिता इतहि श्याम रस रूप लह्योरी। कंचनकी पिचकारी छूटति छिरकति ज्यों सचुपावै गोरी॥ अतिः ग्वाल दधि गोरस माते गारी देत कहौ न करोरी। करत दुहाई नंदराइकी लै जुगयो कलबल छल जोरी॥ झुंडनि जोरि रही चंद्रावलि गोकुल में कछु खेल मच्योरी। सूरदास प्रभु फगुवा दीजै चिरजीवो राधा बर जोरी॥३६॥ श्रीहठी ॥ श्यामा परवशपरी हो बिकाय मोहनके खेलत रस रह्योहो। खेलन चले करत अति तरकै मारत पीक पराइ। पेलि चली यौवन मदमाती अधर सुधारस प्याइ॥ इत लिए कनक लकुटिया नागरि उत जेरी धरेग्वार। इत है रंग रँगीली राधा उत हैं श्री नंदकुमार॥१॥ खेलत में रिस नाकार नागार श्यामहि लागी चोट। मोहन है अति माधुरी मूरति राखिये अंचल वोट॥ मारि डगै जब फिरि चली सुंदरि बेनी तुरे शुभ अंग। मनहु चंदके बदनसुधाको उडि उडि लगत भुअंग॥२॥ रंज मुरज डफ झांझ झालरी यंत्र पखावज तार। मदन भेरि अरु राइ गिरी गिरि सुर मंडल झनकार॥ एक जुआई आन गाँवते सुंदर परम सुजान। यह ढोटा धौं आहि कौनको मारत मनसिज बान॥३॥ यमुनाकूल मूल बंसीवट गावत गोप धमारि। लैले नाम गाउँ बरसानो देत दिवावत गारि॥ खेलिफागु मिलिकै मनमोहन फगुवा दियो मँगाय। हरषित भई सकल ब्रजवनिता सूरदास बलिजाइ॥४॥३६॥ नटनारायण ॥ हो हो हो हो लै लै बोलैं। गोरस केरी माते डोलैं॥ ब्रजके लरिकनि सँग लिए डोलैं। घर घर केरी फरके खोलैं॥ गोपी ग्वाल मिले इक सारी। बचत नहीं बिन दीने गारी॥ आनि अचानक अँखियां मीचैं। चंदन वंदन ऊपर सींचै जो कोइ जाइ रहे घर वैसी। करि परि आइ तहांऊ पैसी॥ हाथन लिए कनक पिचकारी। तकितकि छिरकत मोहन प्यारी॥ कुमकुम कीच मची आति भारी। उडत अबीरनरँगी अटारी॥ अति आनंद भरे सब गावैं। नाना गति कौतुक उपजावैं॥ मोहन गहि आने मिलिधाय। फगुवा हमको हेहु मँगाय॥ भागत कुसुम हार उर टूटे। पीतांबर गोहन दै छूटे॥ सोभा सिंधु बढ्यो अतिभारी। छबि पर कोटि काम बलिहारी॥ सूरदास प्रभु करि रस होरी॥ वरणौं कहां लगि मोमति थोरी॥३७॥ श्रीहठी ॥ नागरि राधा पै मोहन लेआयहो। लोचन आंजि भाल वेंदीके पुनि पुनि पाँइ परायहो॥ वेनी ग्रंथि मांग शिरपारचौ वधू वधू कहि गाइहो। प्यारी हँसति देखि मोहन मुख युवती बने बनाइहो॥ श्याम अंग कुसुमी नई सारी अपने कर पहिरायहो। कोउ भुज गहति कहति कछु कोऊ कोउ गहि चिबुक उठाइहो॥ कोउ कपोल छुवै कहति लाल अति कोउ मुख मुखहि मिलाइहो। एक अधर गहि सुभग अँगुरिअन बोलत नहीं कन्हाइहो॥ नीलांबर गहि खूंट चूनरी हँसि हँसि गांठि जुराइहो॥ युवती हँसति देति करतारी भयो श्याम मन भायहो॥ कनक कलस अरगजा घोरिकै हरिके शिर ढरकायहो। श्रीवृंदावन अद्रुत होरी कहत कही नहिं जाइहो॥ नंदसुनत हँसि महरि पठाई यशुमति धाई आइहो। पटमें बाँध्यो श्याम छुडायो सूरदास बलिजायहो॥३८॥ बिलावल ॥ सोंधेकी उठत झकोर मोहन रंगभरे। चोवा चंदन अगर कुमकुमे सोंधे

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