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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५३८

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दशमस्कन्ध-१०


जोरि॥ धरत भरत भाजत राजत गेंदुक नवला सन मार। रसन वसन छूटत नसँभार टूटतहै उरहार॥३॥ जब मोहन न्यारे करि पाए पकरे चहुँदिशघेरि। बोलहुजू अब आनि छुड़ावै बल भैयाको टेरि॥ आजु हमारे वश परेहो जैहौ कहाँ छिड़ाइ। की बल छूटहु आपने की यशुमति माय बोलाइ॥४॥ एक गहे कर एक फेंट गहि पीतांबर लियो छिडाय। राधा हँसति दूरि भई ठाढी सखियन देति सिखाय॥ एक श्रवणमें कहि कछु भाजति एक भरति अँकवारि। एक निहारति रूप माधुरी एक अपुनपो वारि॥५॥ एक चिबुक गहि बदन उठावति हमतन लाल निहारि। एक नैनकी सैन मिलावति एक उठति दै गारि॥ आई झूमि सकल ब्रजबनिता हरि देखी चहुँ ओर। राधा दृष्टि परे बिनु मोहन तलफत नैन चकोर॥६॥ हरि तब अपने करवरसों घूंघट पट कीनो दूरी । हँसत प्रकाश भयो चहुँ दिशते सुधा किरानि भरि पूरि॥ आँखि दिखाव तहौ जु कहा तुम करिहौ कहा रिसाय। हम अपनो भायो करि लेहैं छुवहु कुँवरिके पाय॥७॥ तब तुम अंबर हरे हमारे कीन्हे कौन उपाय। अबतौ दाउँ परयो धरि पाए छाँडहिं तुमहिं नगाय॥ मुखकी कहति सबै झूठी मनहीं मन बहुत सनेहु। कूटि करैंगे बलभैया अब हमहि छांडि किनि देहु॥८॥ तुम जो फगुवा दैंहो कहा चलि बोलहु सांचे बोल। की हमसों हाहा करिए की देहु श्रीदामा ओल॥ हँसि हँसि कहत सहत सबहीकी आभूषण अब लेहु। नासाको मुक्ता अरु मुरली पीतांबर मेरो देहु॥९॥ एक बनाइ देति वीरी कर वल्लभ छुवति कपोल। धन्य धन्य बडभाग सबहिके वश कीने बिनुमोल॥ उड़त गुलाल अबीर कुमकुमा छबिछाई जनु सांझ। नाहीं दृष्टि परत राधा मुख चंद्र नीलांबर मांझ॥१०॥ खेलि फाग अनुराग बढ्यो घर मची अरगजा कीच। ब्रजबनिता कुमुदिनी कुसुमगण हरि शशि राजत बीच॥ अष्टसिद्धि नवनिधि ब्रज वीथिनि डोलति घर घर द्वार। सदा वसंत वसत वृंदावन लता लटकि द्रुम डार॥११॥ देखि देखि सोभा सुख संपति यह जिय करति विचार। ब्रजबनिता हम किन न भई यों कहति सकल सुरनारि॥ फागु खेलि अनुराग बढायो सबके मन आनंद। चले यमुन स्नान करनको सखा सखी नँदनंद॥१२॥ दुष्टन दुख संतन सुखकारन ब्रजलीला अवतार। जय जय ध्वनि सुमन न सुर वर्षत निरखत श्याम बिहार॥ युगल किसोर चरण रज मांगौं गाऊं सरस धमार। श्री राधा गिरिवर धर ऊपर सूरदास बलिहार॥१३॥४६॥ रागनटनारायण ॥ खेलत फागु कहत हो होरी। उत नागरी समाज विराजति इत मोहन हलधरकी जोरी॥१॥ बाजत ताल मृदंग झांझ डफ रुंज मुरुंज बांसुरी ध्वनि थोरी। श्रवण सुनाइ गारिदै गावति ऊंची तान लेति प्रियगोरी॥ कोटि मदन दुरि गयो देखि छबि तेउ मोहे जिन्हहूं मति भोरी। मोहन नँदनंदन रस विथकित कोहू दृष्टि जात नहिं मोरी॥२॥ कुमकुम रंग भरी पिचकारी उत्तम छिरकति नवल किसोरी। यहि विधि उमँगि चल्यो रँग जहँ तहँ मनु अनुराग सरोवर फोरी॥ कबहुँक मिलि दश बीसक धावति लोत छिंडाइ मुरलि झकझोरी। जाइ श्रीदामा लै आवत तब दैमानिनि बहुभांति पटोरी॥३॥ भमिकर आन अबीर उडावत गोविंद निकट जाय दुरि चोरी। मनहु प्रचंड पवन वश पंकज गगन धूरि सोभित चहुँओरी॥ कनककलस कुमकुम भरि लीन्हो कस्तूरी मिलिकै घसिघोरी। खेल परस्पर कीचमची घर अधिक सुरंग भई ब्रजखोरी॥४॥ ग्वाल बाल सब संग मुदित मन जाय यमुनजल न्हाइ हिलोरी। नए वसन आभूषण पहिरत औरन देत पीतांबर छोरी॥ द्वीज समाज समेत करत द्विज तिलक दूब दधि रोचन रोरी। सूरश्याम विप्रन बंदीजन देत रतन कंचनकी बोरी॥५॥४७॥