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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५३९

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(४४६)
सूरसागर।


रागसारंग ॥ बनी रूप रंग रस राधिका ताते अधिक बने ब्रजनाथहो। ललिता अरु चंद्रावली मिलवन्यो छबीलो साथहो। ताल पखावज बाजही सँग डफ मुरलीकी घोर हो नंदद्वार औसर रच्यो दोऊ राजत नवल किसोरहो॥ एककोंध ब्रजसुंदरी एककाध ग्वाल गोविंदहो। सरस परस्पर गावहीं दैनारि गारि बहु वृंदहो॥ आवहुरी हम दुरिरहैं बलभद्र कृष्णगहि देहिहो। लोचन उनके आँजही अधरनको रस लेाहिं हो॥ शीलानाम ग्वालिनी तेहि गहे कृष्ण धपि धाइहो। उपरैना मुरलीलई मुख निरखि हरषि मुसकाइहो। गहे कृष्ण अचानक राधिका रही कंठ भुजलाइहो। मनके सब सुख भोगए जब परसे यादवरायहो॥ दई कोटि कलस भरि वारुनी बहुत मिठाई पानहो। राधा माधव रस रह्यो सब चले यमुनजल न्हानहो॥ द्वितिआ सकल समाज सो पट बैठे आनंद कंद हो। दान देति ब्रजसुंदरी नगभूषण नव निधि नंदहो॥ बनवीथिनि भरी पुर गली उमग्यो रंग अपारहो। सूर सुनभ सुर थकि रहे निरखत प्राण अधारहो॥४८॥ रागसारंग ॥ करत यदुनाथ जलधि जल केलि। अवलनकर लिए अंबुज अमृत किए दिये नव नव मुख खेलि। जो राजत तिहिकाल लाल ललनारसाल रसरंग मानहु न्हात मदन ध्वजान सजनी गज गजनी गज संग॥ श्रवत सलिल शिव विदित अलक मिवराहु बदन विधुदमत। मनहुँ पानकरि भोजन सो अलि जु पिक बल रसबमत॥ ध्वनिन करत सिंधुउतरन धरत तरंग रह्यो ढहिराइ। पूजे कृष्णउजागर सागर वैरागर पहिराइ॥ भवत गवन यों नंदसुवन तब निकसि चढे रथ कूल। निरखत बरषत कुसुम त्रिदशजन सूरसुमति मनफूल॥४९॥ रागवसंती ॥ यदुपति जलक्रीडत युवतिन सँग। सागर सकुचत तजीत रंग॥ षोडससहसदशअष्ट नारि। तिनमें अति सोभित श्रीमुरारि॥ उडुगण समेत शशिसिंधवारि। मनु पुनि आयो चितहित विचारि॥ मृगमद मलयज केसरि कपूर। कुमकुमा कलित छत अगर चूर॥ जलताकि परस्पर छपत दूर। मनु धनुष निपुण संग्राम शूर॥ चलत चारु कलवलय चीर। अरु जलद वृंद छतभित समीर॥ वदन निकट कच चुवत नीर। मनु मधुप निकर प्यावत नधीर॥ जहँ नारदादि मुनि करत गान। जग पूरित हरि यश सुर वितान। सुर सुमन सुघन बर्षत विमान। जै सूर प्रभू सब सुखनिधान॥५०॥ सारंग ॥ रवितनयाको सलिल गंभीर आवहुरे मिलि न्हाइये। यहँ अति श्रम गँवाइ देहको पुनि अपने घर जाइये॥ जानत हौ ब्रजवेगि विदाह्वै सूरज विमुख जाइ चितए॥५१॥ कल्याण ॥ यमुनातैं हो बहुत रिझायो। अपनीसौंह दिए नंददोहाई ऐसो सुख मैं कबहुँ न पायो॥ मिले मातु पितु बंधु सजन सब सखन संग वन विहरन आयो। अज अनंत भगवंत धरणिधर सुवस कियो प्रिय गान सुनायो॥ होंभयों प्रसन्न प्रेम हित तेरे कलिमल हरेजु यह जल न्हायो। अब जिय सकुच कछू मति राखहु माँगि सूर अपने मन भायो॥५२॥ राज्ञीबिलावल ॥ श्यामा श्याम खेलत दोउ होरी। फागुमच्यो अति ब्रजकी खोरी॥१॥ इताह बनी वृषभानु किसोरी। सँग ललिता चंद्रावलि जोरी॥ ब्रजयुवती सँग राजति भोरी। बनि श्रृंगार श्रीराधा गोरी॥२॥ उतहि श्याम हलधर दोउ जोरी। वारौं कोटिकाम छबि थोरी॥ ग्वाल अबीरनकी लिए झोरी। सुरंग गुलाल अरगजा रोरी॥३॥ गावति सबै मधुर सुर गोरी। तानलेति दैदै


मालाकंकणकुंडलैः कनकलैराभूषिता प्रायशः सम्यग्दाडिमबीज दंतरुचिभिः संस्पर्द्धमानाभृशम्॥ ईषद्धास्यमुखी कठोरकुचकारक्तांबरं बिभ्रती वासंतीवरलोललोचनचलल्लोलानतावर्तते॥ राज्ञीवासंती॥ नेत्रेकज्जलरंजितेतितिलतेना साग्रमुक्ताफलम् भालेभातिसुकुंकुमस्यतिलकं गौरांगचित्रांबम्॥ वेणीचंपककेतकी सुकुसुमैसार्द्धकरेवीटिकां नानासौरभगंधिताखिलवपुर्वेलीवलीयोषिता॥ बिलावल॥