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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५४३

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सूरसागर।


सकल भूमि बजरत्नन छाय सरसरसही फूलडोल। फूलेहैं त्रिदशपति सुर शची सहिताय नभचढि विमान फूले सुमन बरषाय संतन हितही फूल डोल॥२३॥ फूलेहि न हरषत हो ऋषिराय फूले विदाभये मुनि वैकुंठ सिधाय सरसरसही फूलडोल। फूले हरषि हरषि हरिको यशगाय फूले पूँछत सुर मुनि कछु कह्यो नजाय संतन हितही फूलडोल॥२४॥ फूल्योहि न पढो पढावै सुनै सुनावै वसि वैकुंठ परमपदपावै संतन हितही फूल डोल। सूरदास प्रभु कैसे करिगावै लीलासिंधु पार नहिं पावै संतनहितही फूल डोल॥२५॥५४॥ राज्ञीरामगिरी ॥ हरि पिय तुम जिनि चलन कहो। यह जिनि मोहिं सुनावहु बलिजाउँ जिनि जिय गहनि गहो॥ जब चलिहो तबही कहियो अब जिनि उरहिदहौ। औरहु जन्म प्राण मिलतहैं पुनि तुम मिलत नहो। जानि एई जिय तानि मन सुख अबकी बेररहो॥ यह सुनि सूरदासको लालच कबहूं जिनि उमहो॥५५॥ रागकल्याणा ॥ श्रीगोकुलनाथ विराजत डोल। संग लिए वृषभानु नंदिनी पहिरे नील निचोल॥ कंचन खचित लाल मणि मोती हीरा जटित अमोल। झुलवहिं यूथ मिले ब्रज सुंदरि हरषति करति कलोल॥ खेलति हँसति परस्पर गावति होहो बोलति मीठे बोल। सूरदास स्वामी पियप्यारी झूलतहैं झक झोला॥५६॥ कल्याणा ॥ श्रीझूलत नँदनंदन डोल। कनक खंभ जराय पटुली लगे रतन अमोल॥ सुभग सरल सुदेश डाँडी रची विधना गोल। मनो सुरपति सुरसभाते पठै दियो हिंडोल॥ जबहिं झंपति तबहि कंपति विहँसि लगति डरोल। त्रिदशपति सजि चढि विमानन निरखि दै दै ओल॥ थके मुख कछु कहि न आवै सकल मख कृत झोल। सखी नवसत साजि लीन्हे कहत मधुरे बोल॥ थक्यो रतिपति देखि यह छबि इंद्र भयो भ्रम भोल। सूर यह मुख गोप गोपी पियत अमृत कलोल॥५७॥ गौरी ॥ डोलत देखि ब्रजवासी फूलैं। गोपी झुलावैं गोविंद झुलैं॥ नँदनदन गोकुल में सोहै॥ मुरली मनोहर मन्मथ मोहैं॥ कमल नयनको लाड लडावै। प्रमुदित गात मनोहर गावै॥ रसिक शिरोमणि आनँद सागर। सूरदास मन मोहन नागर॥५८॥ इति फागु क्रीडा समाप्त॥अध्याय॥३८॥ अथ अक्रूर मस्ताव कथा वर्णन॥ राग बिलावल ॥ फागु रंग करि हरि रसराख्यो। रह्यो नमन युवतितके काख्यो॥ संखा संग सबको सुख दीनो। नर नारी मन हरि हर लीनो॥ जो जेहिभाव ताहि हरि तैसे। हितको हित कंटकको नैसे॥ महरि नंद पितु मातु कहाए। तिनहीके हित तनु धरि आए॥ युग युग यह अवतार धरत हरि। हरता करता विश्व रहे भरि॥ धरणी पाप भार भई भारी। सुरन लिए सँग जाइ पुकारी॥ त्राहि त्राहि श्रीपति दैत्यारी। राखि लेहु मोहिं शरन उबारी॥ राजसरीति सुरन कहि भाषी। भए चंद्र सूरज तहां साखी॥ क्षरिसिंधु आहे शयन मुरारी। प्रभु श्रवणन तहाँ परी गुहारी॥ तब जान्यो कमलाके कंता। दनुज भार पुहुमीमै मंता॥ सिंधु मध्य वाणी परकाशी। भुव अवतार कह्यो अविनाशी॥ मथुरा जन्मि गोकुलहि आये। मात पिता सुत हेतु कहाए। नारद कहि यह कथा सुनाई। ब्रज लोगन सुख दियो कन्हाई॥ नंद यशोदा बालक जान्यो। गोपी कामरूप करि मान्यो॥ प्रथम पिवत पय वकी विनाशी। तुरत सुनत नृप भए उदासी॥ यहि अंतर बहु दनुज संहारे। यहि अंतर लीला बहुधारे॥ को माया कहि सकै तुम्हारे। बाल तरुन सुख न्यारे न्यारे॥ धन्य धन्य ए ब्रजके वासी। वशकीन्हे जिनि ब्रह्म उदासी॥ अकल कला निगमहु तेन्यारे॥ तिन युवती बन बननि बिहारे॥ आज्ञाइहै मोहिं प्रभु दीन्हो। यह अवतार जबहि भुव लीन्हों॥ दैत्य दहन सुरके सुखकारी। अब मारों प्रभु कंस प्रचारी॥ यह मुनि हँसे सुरनके नाथा। जब नारद गाई यह गाथा॥ श्रीमुख कह्यो जाइ समुझावहु। नृप आयसु