पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५४३

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८४९०) सूरसागर । सकल. भूमि बजरत्नन छाय सरसरसही फूलडोल । फूलहैं त्रिदशपति सुर शची सहिताय नभचढि विमान फूले सुमन वरषाय संतन हितही फूल डोल ॥ २३ ॥ फूलेहि न हरपत हो ऋषिराय फूले विदाभये मुनि वैकुंठ सिधाय सरसरसही फूलडोल । फूले हरपि हरषि हरिको यशगाय फूले पूँछत सुर मुनि कछु कह्यो नजाय संतन हितही फूलडोल ॥२४॥ फूल्योहि न पढो पढावै सुनै सुनावै वसि वैकुंठ परमपदपावै संतन हितही फूल डोल । सूरदास प्रभु कैसे करिगावै लीलासिंधु पार नहिं पावै संतनहितही फूल डोल॥२५॥५४॥राज्ञीरामगिरीहरि पिय तुम जिनि चलन कहो। यह जिनि मोहिं सुनावहु बलिजाउँ जिनि जिय गहनि गहो । जव चलिहो तवही कहियो अब जिनि उरहिदहौ।औरहु जन्म प्राण मिलतहैं पुनि तुम मिलत नहो।जानिएई जिय तानि मन सुख अबकी बेररहो ॥ यह सुनि सूरदासको लालच कबहूं जिनि उमहो।।५६॥रागकल्याणाश्रीगोकुलनाथ विराजत डोलासंग लिए वृषभानु नंदिनी पहिरे नील निचोलाकंचन खचित लाल मणिमोती हीरा जटित अमोल । झुलवहिं यूथ मिले ब्रज सुंदरि हरपति करति कलोलाखेलति हँसति परस्पर गाव ति होहो बोलति मीठे बोल । सूरदास स्वामी पियप्यारी झुलतहैं झक झोला॥५६॥कल्याणाश्रीझूलत | नंदनंदन डोल। कनक खंभ जराय पटुली लगे रतन अमोल ॥ सुभग सरल सुदेश डाँडी रची विधना गोलोमनो सुरपति सुरसभाते पठे दियो हिंडोलाजवहिं झंपति तवहि कंपति विहँसि लगति डरोल । त्रिदशपति सजि चढि विमानन निरखि दै दै ओल ॥ थके मुख कछु कहि न आवै सकल मख कृत झोल । सखी नवसत. साजि लीन्हे कहत मधुरे बोल ॥ थक्यो रतिपति देखि यह छवि इंद्र भयो भ्रम भोल । सूर यह मुख गोप गोपी. पियत अमृत कलोल ॥६॥गौरी। डोलत देखि ब्रजवासी फूलैं। गोपी झुलावै गोविंद झुलैंनिदनदन गोकुल में सोहै। मुरली मनोहर मन्मथ मोहैं । कमल नयनको लाड लडावै । प्रमुदित गात मनोहर गावै॥रसिक शिरोमणि आनंद सागर। मरदास मन मोहन नागर ॥१८॥ इति फागु क्रीडा समाप्त॥अध्याय ॥३८॥अथ अक्रूर मस्ताव कथा वर्णन ॥. राग बिलावल ॥ फागु रंग कार हरि रसराख्यो । रह्यो नमन युवतितके काख्यो। संखा संग सबको सुख दीनो । नर नारी मन हरि हर लीनो ॥ जो जेहिभाव ताहि हरि तसे । हितको हित केटकको नैसे॥ ॥ महरि नंद पितु मातु कहाए । तिनहींके हित तनु धरि आए ॥ युग युग यह अवतार धरत हरि । हरता करता विश्व रहे भरि ॥ धरणी पाप भार भई भारी । सुरन लिए सँग जाइ पुकारी ॥ त्राहि त्राहि श्रीपति दैत्यारी । राखि लेहु मोहिं शरन उवारी ॥ राजसरीति सुरन कहि भाषी । भए चंद्र.सूरज तहां साखी ॥ क्षारासिंधु आहे शयन मुरारी । प्रभु श्रवणन तहाँ परी गुहारी॥तव जान्यो कमलाके कंता। दनुज भार पुहुमीमै मता ॥ सिंधु. मध्य वाणी परकाशी। भुव अवतार कह्यो अविनाशी॥ मथुरा जन्मि गोकुलहि आये। मात पिता सुत हेतु कहाए । नारद कहि यह कथा सुनाई । ब्रज लोगन सुख. दियो कन्हाई. ॥. नंद यशोदा बालक जान्यो । गोपी कामरूपं करि मान्यो ॥ प्रथम पिवत पय वकी विनाशी । तुरत सुनत नृप भए उदासी ॥ यहि अंतर बह दनुज संहारे। यहि अंतर लीला बहुधारे ॥. को माया कहि सके तुम्हारे । बाल तरुन सुख न्यारे, न्यारे ॥ धन्य धन्य. ए ब्रजके वासी । वशकीन्हे जिनि ब्रह्म उदासी ॥ अकल कला निगमहु तेन्यारे ॥ तिन युवती बन बननि बिहारे ।। आज्ञाइहै मोहिं प्रभु दीन्हो।। यह अवतार जबहि भुव लीन्हों। दैत्य दहन सुरके सुखकारी अब मारों प्रभु कंस प्रचारी॥ यह मुनि हँसे सुरनके नाथा।जब नारद गाई यह गाथा॥श्रीमुख कह्यो जाइ समुझावहु । नृप आयसु.