पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५४४

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दशमस्कन्ध-१०. करि मोहिं बोलावहु ॥ अंजलजोरि राज्य मुनि हरपे । कृपावचनं तिनसों हरि वरपे ॥ तुरत चल नारद नृपवासा । इहै बुद्धि मन करत प्रकासा ॥ संकर्षण हृदय प्रगटाई । जो वाणी ऋषिगाइ सुनाई ॥ आदिपुरुप अज्ञात विचारी । शेषरूप हरिके सुखकारी॥ हरिअंतर्यामी जगताता अनुज हेतु जग मानत नाता॥ इहै वचन हलधर कहिभाष्यो। सुनि सुनि श्रवण हृदय हरिराख्यो ॥ तुमज नमे भुवभार उतारन । तुमहो अखिललोकके तारन ॥ तुम संसार सारके सारा । जल थल जहाँ तहाँ विस्तारा ॥ तव हसि कह्यो भातसा वानी । जो तुम कहत बात मैं जानी ॥ कंसनि कंदन नाम कहाऊं केशगहौं पुहुमी घिसटाऊं ॥ यहि अंतर मुनि गए नृपपासा । मनमारे मुख । करे उदासाहरपि कंस मुनि निकट वोलाए।आदर कर आसन बैठाए।किसो मुख क्यों ऋपिमनमा। : कह चिंता जिय बढ़ी तुम्हारे॥ नारद कह्यो सुनो होराउ । कहा बैठे कछु करहु उपाउ ॥ त्रिभुवनमें तुम सरि को ऐसो । देख्यो नंद सुवन व्रज जैसो ॥ करत कहा रजधानी ऐसी । यह तुमको उपजी । कछु जैसी ॥ दिन दिन भयो प्रवल वहभारी। हम सब हितकी कहैं तुम्हारी ॥ तव गर्वित नृप वोले | वानी । कहा वात नारद तुम गानी ।कोटिदनुज मोसरि मो पासा।जिनको देखि तरणितनु बासा ।। कोटि कोटि तिनके सँगयोधा । को जीवै तिनके तनु क्रोधा ॥ मल्लनके गुण कहा वखानो। जिनके देखत काल डरानो । कोटि धनुर्द्धर संतत द्वारे। बचै कौन तिनके जुहँकारे । एक कुवलिया त्रि भुवनगामी । ऐसेऔर कितिकहैं नामी ॥ ग्वालसुतनकी कहा चलावहु । यह वाणी कहि कहा सुना वह ।। प्रजालोग ब्रजके सब मेरे । सेवा करत सदा रहैं नेरे ॥ ताते सकुचतहौं उनकाजा । बालक सुनत होइ जिय लाजा॥ भली करी यह वात सुनाई । सहज बुलाइलेउँदोउ भाई।और सुनहु नारद मुनि मोसों। श्रवणन लागि कहाँ कछु गौसौं। केतिक बात बलराम कन्हाई। मोदेखत अति काल डेराई॥ आजु कालि अब उनहिं बोलाऊं । कहि पठउंब्रज सहित मँगाऊं। और प्रजा व्रज आनि बसाऊं। अपने जियकी खुटक मिटाऊं ॥ तिनपर क्रोध कहामैं पाऊं । रंगभूमि गजचरण रुंदाऊं। मेरे सम सरिको वहनाहीं। यह सुनिकै नारद मुसकाहीं ।। सत्य वचन नृप कहत पुकारे । अब जाने उनि तौ तुम मारे ॥ यह कहि मुनिवैकुंठ सिधारे । त्रिभुवन में को बलहि तुम्हारे ॥ कंस परयो मन इहै विचारा । रामकृष्ण वध इहै संभारा ॥ दनुज हृदय हारे इहै उपायो । नारद कही सुनत जिय आयो । अव मारौं नहिं गहर लगाऊं। मथुरा जहां तहां बलछाऊं ॥ धकधकात जिय बहार सँभारै । क्यों मारौं सो बुद्धि विचारै । सूरज प्रभु अविगति अविनाशी । कंसकाल.यह बुद्धि प्रकाशी॥१९॥कान्हरो। अहो नृप द्वै अरि प्रगट भए।वसे नंद गृह गोकुल थानक दियो सुदिन नगए। तुमहूं को दुख बहुत जनमको रथ मारग आरोए। तादिनते शिशु सप्त देवकी तेरेही कर ! सोए।जो परिराज काज सुख चाहै वेगि बोलाइ न लीजै। हारि जीति दोउनकी विधि यह जैसे होइ । सोइ कीजै ॥ऐसी कहि वैकुंठ सिधारे कए निसाविकराय । सुरश्याम कृतकी वे इच्छा मुनि मन इहै उपाय।।६०॥सोरठानृपति मन इहै विचार परोक्यों मारौं दोउ नंद ढोटोना ऐसी अरनि अरो।। कबहुँक कहत आपु उठि धावों यहै विचार करौ । सात दिवसमें वधी पूतना यह गुनि मनाह डरो।। पुनि साहस जिय जिय करि गौ ताको काल सरो। सूरश्याम वलराम हृदयते नेकनहीं विसरो॥६॥सारंग ॥ मथुराके निकट चरति हैं गाई । दुष्टकंस भय करत मनहि मन ज्यों ज्यों सुनै कृष्ण प्रभुताई ।। शीश धुनै नृप रिसन मनै मन बहुत उपाइ करै । घर बैठेहि दशन अधरन धार चंपे श्वास भरै ॥ नारद गिरा सम्हारी पुनि पुनि शिर धुनि आपु सरे । कालरूप देवकी नंदन -