पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५५०

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दशमस्कन्ध-१० (१२७) धनहीं नहिं पठळं अवहिं कंस किन बांधौ ॥७॥ सारंग ॥ मनहु प्रीति अति भई पातरी । अनुज सहित चले राम हमारे कमल नैन देखौ मिलि न जातरी॥ अरस परस कछु समझत नाही या ब्रजपोच भलौकी वातरी । कंचन काँच कपूर कपट खरी हीरा सम कैसे पोति विकातरी ॥ वे दोउ हंस मानसरवरके छीलरे क्षुद्र मलीन कैंसे न्हातरी । सुरश्याम मुक्ताफल भोगी कोरति करत ज्वारिकन खातरी ॥८॥सोरठ।। नहिं कोई श्यामहि राखै जाइ।सुफलक सुत वैरी भयो मोको कहति यशोदा माइ । मदन गुपाल विना घर आँगन गोकुल काहि सुहाइ । गोपी रही ठगीसी ठाढी कहा ठगोरी लाइ ॥ सुंदर श्याम राम भरि लोचन विन देखे दोउ भाइ । सूर तिनहि लै चले मधुपुरी हृदय शूल बढाइ ॥९॥ सौरठ ॥ यशोदा बार बार यों भाप । है कोई ब्रजहितू हमारो चलत गोपालहि राखे।कहा कान मेरे छगन मगनको नृप मधुपुरी बुलायो। सुफलकसुत मेरे प्राण हतनको कालरूप है आयो । वरु ए गोधन हरौ कंस सब मोहिं वदि लै मेलो। इतनेही सुख कमल नैन मेरी अँखियन आगे खेलो ॥ वासर वदन विलोकत जीवों निशि निज अंकम लाऊ । तेहि विछुरत जो जीवों कर्मवश तो हँसि काहि बोलाऊं । कमल नैन गुण टेरत टेरतही अधर वदन कुझिलानी।सूर कहा लगि प्रगट जनाऊं दुखित नंदजूकीरानी१०यशोदावचन श्रीकृष्णमति ॥सोरठ ॥ गोपालराइ केहि अवलंबो प्राण । निठुर वचन कठोर कुलिशसे कहत मधुपुरी जान ॥ क्रूर नाम गति कूर मति काहेको गोकुल आयो । कुटिल कंस नृप पैरजानिकै हरिको लेन पठायो । जिहि मुख तात कहत ब्रजपति सों मोहिं कहतहै माइ । तिहि मुख चलन सुनत जीवतिहौं विधिसों कहा बसाइ ॥ को कर कमल मथानी धरिहै को माखन अरि सैहे । वर्पत मेष बहुरि व्रजऊपर को गिरिवर कर ले है ॥ हों पलि बलि इन चरण कमलकी इहँईरहौ कन्हाई।सूरदास अवलोकि यशोदा धरणि परी मुरझाई ॥११॥ मोहन इतनो मोहिं चित परियोजन नी दुखित जानि के कवहूँ मथुरागमन न करिये ॥ यह अक्रूर दूर कृत रचिकै तुमहिं लेन है आ यो। तिरछे भए कर्म कृत पहिले विधि यह ठाट बनायो वारवार जननी कहि भोसी माखन मांगत जीन । सूर तिन्ही लेवेको आए करिही सूनो भोन॥१२॥मूही। सुफलक सुतके संगते कहु हरिहोत नन्यारे । वार वार जननी कहे मोहिं तज्यो दुलारे ॥ कहा ठगोरी यहि करी मेरे वालक मोह्यो । हाहाकरि करि मरतिही मोतन नहि जोहो ॥ नंदकहो परवोधिकै सँग मैं लै जैहौं । धनुपयज्ञ देखराइकै तुरतहि ले ऐहो । घर घर गोपनसों कहो कर भार जुराबहु । सूर नृपतिके द्वार को उठि पात चलावहु॥१३॥नंदवननयशोदामति ॥ मलागाभरोसोकान्हकोहै मोहि।सुन यशोदा कंस भयते तू जनि व्याकुल होहि।पहिले पूतना कपट करि आई स्तननि विप पोहिाँसीज्यों प्रवल दुदिनके बाल कमारि देखावत तोहि।।अपचक धेनु तृणावर्त केशीको बल देख्यो जोहिासातदिवस गोवर्धन राख्यो | इंद्र गयो द्रपुछोहि ।। सुनि सुनि कथा नंदनंदनकी मन आयो अवरोहि। सूरदास प्रभुजो कहिएक छु सो आवे सब सोहि ॥१॥विक्षागरो। यशुमति अतिंही भई वेहाल । सुफलकसुत यह तुमहि झि ए हरतहो मेरो पाल ॥ ए दोउ भैया बजकी जीवन कहति रोहिणी रोई । धरणी गिराति दुरति अति व्याकुल कहि राखत नहिं कोई । निठुरभए जवते यह आयो घरहू आवत नाहिं । सूर कहा नृप पास तुम्हारो हम तुम विनु मरिजाहि ॥१५॥ सोरठगाकन्हैया मेरी छोह विसा।ि क्यों वलराम कहत तू नाही में तुम्हरी महतारि ॥ तव हलधर-जननी परवोधत मिथ्या यह संसारी । ज्यों सावनकी बेलि प्रफुडिकै फूलतिहे दिनचारी। हम बालक तुमको कहा सिखवै कहूं तुमहि ते जात॥ - ५८