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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५५०

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दशमस्कन्ध-१०


धनहौं नहिं पठंऊ अबहिं कंस किन बांधौ॥७॥ सारंग ॥ मनहु प्रीति अति भई पातरी। अनुज सहित चले राम हमारे कमल नैन देखौं मिलि न जातरी॥ अरस परस कछु समुझत नाहीं या ब्रजपोच भलौकी वातरी। कंचन काँच कपूर कपट खरी हीरा सम कैसे पोति बिकातरी॥ वे दोउ हंस मानसरवरके छीलरे क्षुद्र मलीन कैंसे न्हातरी। सुरश्याम मुक्ताफल भोगी कोरति करत ज्वारिकन खातरी॥८॥ सोरठ ॥ नहिं कोई श्यामहि राखै जाइ। सुफलक सुत बैरी भयो मोको कहति यशोदा माइ। मदन गुपाल बिना घर आँगन गोकुल काहि सुहाइ। गोपी रही ठगीसी ठाढी कहा ठगोरी लाइ॥ सुंदर श्याम राम भरि लोचन बिन देखे दोउ भाइ। सूर तिनहि लै चले मधुपुरी हृदय शूल बढाइ॥९॥ सौरठ ॥ यशोदा बार बार यों भाषै। है कोई ब्रजहितू हमारो चलत गोपालहि राखै॥ कहा कान मेरे छगन मगनको नृप मधुपुरी बुलायो। सुफलकसुत मेरे प्राण हतनको कालरूप है आयो। वरु ए गोधन हरौ कंस सब मोहिं बनदि लै मेलो। इतनेही सुख कमल नैन मेरी अँखियन आगे खेलो॥ वासर बदन विलोकत जीवों निशि निज अंकम लाऊ। तेहि बिछुरत जो जीवों कर्मवश तो हँसि काहि बोलाऊं। कमल नैन गुण टेरत टेरतही अधर बदन कुह्मिलानी। सूर कहा लगि प्रगट जनाऊं दुखित नंदजूकीरानी॥१०॥ यशोदावचन श्रीकृष्णमति ॥ सोरठ ॥ गोपालराइ केहि अवलंबौ प्राण। निठुर वचन कठोर कुलिशसे कहत मधुपुरी जान॥ क्रूर नाम गति क्रूर मति काहेको गोकुल आयो। कुटिल कंस नृप बैरजानिकै हरिको लेन पठायो॥ जिहि मुख तात कहत ब्रजपति सों मोहिं कहतहै माइ। तिहि मुख चलन सुनत जीवतिहौं विधिसों कहा बसाइ॥ को कर कमल मथानी धरिहै को माखन अरि खैंहे। बर्षत मेष बहुरि ब्रजऊपर को गिरिवर कर लै है॥ हों बलि बलि इन चरण कमलकी इहँईरहौ कन्हाई। सूरदास अवलोकि यशोदा धरणि परी मुरझाई॥११॥ मोहन इतनो मोहिं चित धरिये। जननी दुखित जानि कै कबहूँ मथुरागमन न करिये॥ यह अक्रूर क्रूर कृत रचिकै तुमहिं लेन है आयो। तिरछे भए कर्म कृत पहिले विधि यह ठाट बनायो॥ बारबार जननी कहि मोसौं माखन मांगत जौन। सूर तिन्हीं लेवेको आए करिहौ सूनो भौन॥१२॥ सूही ॥ सुफलक सुतके संगते कहुं हरिहोत नन्यारे॥ बार बार जननी कहै मोहिं तज्यो दुलारे॥ कहा ठगोरी यहि करी मेरे बालक मोह्यो। हाहाकरि करि मरतिहौं मोतन नहिं जोह्यो॥ नंदकह्यो परबोधिकै सँग मैं लै जैहौं। धनुषयज्ञ देखराइकै तुरतहि लै ऐहौं॥ घर घर गोपनसों कह्यो कर भार जुरावहु। सूर नृपतिके द्वार को उठि प्रित चलावहु॥१३॥ नंदवचनयशोदामति ॥ मलार ॥ भरोसो कान्हकोहै मोहिं। सुन यशोदा कंस भयते तू जनि व्याकुल होहि॥ पहिले पूतना कपट करि आई स्तननि विष पोहि। वैसी ज्यों प्रबल दुदिनके बालक मारि देखावत तोहि॥अघ वक धेनु तृणावर्त केशी को बल देख्यो जोहि। सातदिवस गोवर्धन राख्यो इंद्र गयो द्रपुछोहि॥ सुनि सुनि कथा नंदनंदनकी मन आयो अवरोहि। सूरदास प्रभुजो कहिएकछु सो आवै सब सोहि॥१४॥ विहागरो ॥ यशुमति अतिंही भई बेहाल। सुफलकसुत यह तुमहि बूझिए हरतहौ मेरो बाल॥ ए दोउ भैया ब्रजकी जीवन कहति रोहिणी रोई। धरणी गिरति दुरति अति व्याकुल कहि राखत नहिं कोई॥ निठुरभए जबते यह आयो घरहू आवत नाहिं। सूर कहा नृप पास तुम्हारो हम तुम बिनु मरिजाहिं॥१५॥ सोरठा ॥ कन्हैया मेरी छोह विसारि। क्यों बलराम कहत तू नाहीं मैं तुम्हरी महतारि॥ तब हलधर जननी परबोधत मिथ्या यह संसारी। ज्यौं सावनकी बेलि प्रफुडिकै फूलतिहै दिनचारी॥ हम बालक तुमको कहा सिखवैं कहूं तुमहि ते जात॥

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