पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(४५८) सूरसागर। . सूर हृदय धीरज अवधारौ काहेका विलखात॥१६॥ सोरठायह सुनि गिरी धरणि झुकि माता।कहां अकर ठगोरी लाई लिए जात दोउ ताता । विरध समय की हरत लकुटिया पाप पुण्य डर नाहीं। कछू नफा तुमको है यामें सोसो धोमन माहीं ॥ नाम सुनत अक्रूर तुम्हारो क्रूर भए हौ आइ ॥ सूर नंद घरनी अति व्याकुल ऐसीह रेनि विहाइ॥१७॥पिकावचन परस्पर ॥ रामकली।सुनेहैं श्याम मध परी जात । सकुचनि कहि न सकति काहू सो गुप्त हृदयकी बात ॥ संकित वचन अनागत कोऊ कहि जु.गई अधरात । नींद न परै घटै नहिं रजनी कर उठि देखों प्रात ॥ नंदनंदन तो ऐसे लागे ज्यों जल पुरइन पात । सुरश्याम सँगते विछुरत हैं। कब ऐ हैं कालात ॥१८॥ सारंग ॥ सुने नंदलाल मधुपुरी जात । सकुचति कहि न सकति काहू सो गुप्त हृदय की बात ॥ सकृत वचन अनागत सखीरी कोऊ कहि जु गयो अधरात । रजनी घटेन सूर प्रकाशे कब उठि देखौं प्रात।उर धकधको तवहिते लागी अगम जनायो सीरे गातासूरदास स्वामी के चलिये ज्यों यंत्री विनु यंत्र सकात १९भभात कथा वदत ॥ सखा वचन ।। राग भैरवाभोरभयो ब्रजलोग नकोग्वाल सखा सखि व्याकुल मुनिकै श्याम चलतहैं मधुवनको।सुफलकसुत स्पंदन पलनावत देखें तहां बलमोहनकोयह सुनि घर घरते उठि धाई नंदसुवन मुख जोवनको ॥रोरि परी गोकुलमें जहँ तहँ गाइ फिरत पय दोहनको।सूर वरवस कर भार सजावत महरचलत हरि गोहनको२०रामकली चलनको कहियतहैरी आजाअवहीं गई श्रवण सुनि आई करत गमनको साजुकोउ एक कंस कपट कर पठयो कछु सँदेश दै हाथासोले चल्यो हमारी जीवननिधिको अपने साथ।।अब यह शूल न जाति । समुझि सहि रही हिए कार लाजाधीरज अवधि आशदै जननिहि जात चले ब्रजराजाकरिये विनती कमल नयन सों सूर समो पहिचानाकौने कर्म भयो दुखदारुण रहत न मेरो कान२१चलत हरि धृग : जु रहत ए प्रान । कहां वह सुख अवसहौं दुसह दुख उर करि कुलिश समान।कहां वह कंठ श्याम । सुंदरभुज कराति अधर रस पानाअचवत नमन चकोर सुधा विधु देखहु मुख छवि आनाजाको जग : उपहास कियोतब छाँड्यो सव अभिमानासूर सुनिधि हम तेहैं विछुरत कठिनहै करमनिदान२२कल्याण हौं सारे के संग जैहौं । होनी होइ सुहोइ उभै लै हठ यश अपयश कहूं नडरैहौं ॥ कहा रिसाइ करेगो कोऊ जो रोकि है प्राण ताहि देहों । देहाँ छांडि राखिहाँ यह व्रत हरि हितु वीज बहारको वैहौं।कारहौं सूर अजर अवनी तन मिलि अकास पिय भौन समैहौं। वायवीज वापी जलक्रीडा तेज मुकुर मुख लेत॥२३॥यहि अंतर एक सखी आइ हारके गवनको संदेश वंदति ॥ राग कल्याण श्याम चलन चह त कहो सखी एक आईबलमोहन रथ बैठे सुफलकसुत चढन चहत यह सुनि चकित भई विरहदों : लगाई।धुकि धुकि सब धराण परी ज्याला झरलतागिरीं मनो तुरत जलद वरपि सुरति नीर परसी। धाई सबनंदद्वार बैठे रथ दोउ कुमार यशुमति लोटति भुवपर निठुर रूपदरसी।कौन पिता कौनमा. ता आपु ब्रह्म जगधाता राख्यो नहीं कछू नाता नैक नेह माहीं आतुर अकर चढे रसना हरिनाम । रटे सूरज प्रभु कोमल तनु देखि चैन नाहीं ॥२४॥ गोपीवचन मोहनमति राग||सारंग ॥ विनती एक सुनौ श्रीश्याम । चलन नदेत चलो चाहत मन चलन कहौ सो सुनिए श्याम । तुम सर्वज्ञ सकल घट व्यापक जीवन पद सबके विश्राम । संतत रहत कहत. ढीठोंदै करते. सब सोवत सुखधाम ।। वाहर सरल प्रीति गोपिनको लिए रहत लैलै गुणग्राम । सूरदास प्रभु सकल सुखदाता तिनते. न्यारेन ग्राम॥२६॥ सारंग ॥विनु परवहि उपराग आजु हरि तुमहै चलन कह्यो। को जानै उहि राहु । रमापति कतद्वै शोधलह्यो।वैतकिचुनित नीच नैनन मिलि अंजन रूप रह्यो। विरह संधि बलपाइ..