पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५५२

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दशमस्कन्ध-१० (१५९) मैनअति है तिय वदन गयो ॥ दुसह दशन मनो धरत श्रमित अति परसे परकतसह्यो । देखो देव अमृत अंतरते ऊपर जात बहो। अब यह शशि ऐसो लागत ज्यों विन माखनहि मह्यो । सूरसकल गुणपति दरशन विनु मुखछवि अधिक दह्यो ॥२६॥धनाश्री।। मिलि किन जाहु वटाउनाते। नंद यशोदाके तुम बालक विनती करतिहौं ताते॥ तुम्हरी प्रीति हमारी सेवा गनियत नाहिन काते । रूपदेखि तुम कहा भुलाने मीत भए वनयाते ॥ तुम विछुरत घनश्याम मनोहर हम अवला सरपाते । कहा करौं जु सनेह नछूटे रूप ज्योति गई ताते ॥ जब उठि दान माँगते हसिकै संग गात लपटाते । सूरदास प्रभु कौन प्रबलरिपु बीचपरयौ धौं जाते॥२७॥ हरिकी प्रीति उरमादि करकै । आय क्रूर लैचले श्यामको हितनाही कोउ हारकै ॥ कंचनको रथ आगे कीन्हो हरिहि चढाएवरकै। सूरदास प्रभु सुखके दाता गोकुल चले उजरकै।।२८॥सारंग। सब ब्रजकी सोभा श्याम । हरिके चलत भई हम ऐसी मनहु कुसुम निरमायल दाम ॥ देखियतही तुम क्रूर विषमके से सुनियतही अङ्करहि नामाविचरतिहौ न आन गृह गृहको तेसिसुलायक नृपको कह काम॥२९॥ यशोदाविलाप।विलावल॥ गोपालहि राखहु मधुवन जात । लाजगए कछु काज नसरिहे विछुरत नँदके तात ॥ रथ आरुढ होत वाले गई होइ आयो परभात ॥ सूरदास प्रभु बोले न आयो प्रेमपुलकि सब गात॥३०॥मोहन नैक वदन तन हेरो॥राखो मोहिं नात जननीको मदन गुपाल लाल मुख फेरो। पाछे चढो विमान मनोहर बहुरो यदुपति होत अँधेरो । विछुरत भेट देह ठाठे निरखोघोष जन्मको खरो॥ माधो सखा श्याम इन कहि कहि अपने गाइ ग्वाल सब घेरो। गए न प्राणसूरता औसर नंद जतन करि रहे घनेरो३॥अथ श्रीकृष्णमथुरागमनहेतु अफूर साथ।सोराजनहीं रथ अवर चढे। तब रसना हरि नाम भाषिकै लोचन नीर बढे॥ महरि पुत्र कहि सोर लगायो तरु ज्यों धरनि लुटाइ। देखति नारि चित्रसी ठाठी चितए कुँवर कन्हाइ ॥ इतनेहि में सुख दियो सबनको मिलि हैं अवधिवताइातनक हँसे मनदै युवतिनको निठुर ठगोरी लाइपोलत नहीं रहीं सब ठाढी श्याम ठगी बजनारी।सूर तुरत मधुवन पगधारे धरणीके हितकारी॥३२॥विहागरो।चलत हरिफिरि चितये ब्रज पासाइतनेहि धीरज दियो सवनको अवधि गएदै आशानंदहि कह्यो तुरत तुम आवहु ग्वालसखा लै साथ । माखन मधु मिभन्न महरले दियो अङ्करके हाथ ॥ आतुर रथ हॉक्यो मधुवनको ब्रजजन भएं अनाथ । सूरदास प्रभु कंस निकंदन देवन करनि सनाथ ॥३४॥नटी ॥ रहीं जहां सो तहां सब ठाढी । हरिके चलत देखिअत ऐसी मनहुँ चित्र लिखि काढी ॥ सूखेवदन श्रवत नैननते जल धारा उरवाटी। कंधनि वाँहधरे चितवति द्वम मनहु वेलि दवडाढा ॥ नीरस कार छाँडी सुफलक सुत जैसे दूध विन साठी। सूरदास अक्रूर कृपाते सही विपति तनु गाढी ॥ सारंग ॥ चलतहु फेरि न चितए लाल । रथ बैठे दूरते देखे अंबुजनैन विशाल ॥ मीडत हाथ सकल गोकुल जन विरह विकल वेहाल । लोचन पूरि रहीं जल महियाँ दृष्टि परी जो काल ॥ सूरदास प्रभु फिरिकै चितयो अंबुज बैन रसाल॥३६॥विलावलाविछुरे श्रीब्रजराज आज तौ नैननते परतीति गई। उठि नगई हरिसंग तवाहि ते वै नगई सखी श्याममई ।। रूपरसिक लालची कहावत सो करनी कछु वै नभई । साँचे कूरकुटिल ए लोचन व्यथा मीन छवि मानो छीन लई ॥ अब काहे जल मोचत सोचत समौगए ते शूलनए। सूरदास याहीते जडभये इन पलकनही दगादए।॥३६॥सखी वचन परस्पर धनाश्री। केतिक दूरि गयो रथमाई।नँदनंदनके चलत सखीहे तिनको मिलन नपाई।एक दिवशहों द्वार नंदके नहीं रहति विनु आई । आजु विधाता मति मेरी गई भौनकाज विरमाई ॥